ए. एस. दुलत, असद दुर्रानी और आदित्य सिन्हा की किताब, द स्पाई क्रॉनिकल्स: रॉ, आईएसआई एंड द इल्यूज़न ऑफ पीस, भारत और पाकिस्तान से आने वाली एक विस्फोटक खबर की तरह है. दुर्रानी पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) और मिलिट्री इंटेलिजेंस (एमआई) के प्रमुख रह चुके हैं, जबकि दुलत भारत के रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख कर चुके हैं. 23 मई को पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन की उपस्थिति में इस किताब को दिल्ली में लॉन्च किया गया.
किताब में दो पड़ोसियों के बीच रिश्तों की कड़वाहट को कम करने की संभावनाएं मौजूद हैं. दरअसल, यह एक अभूतपूर्व कोशिश है, क्योंकि ख़ुफ़िया एजेंसियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने के तरीके और साधन तलाशें.
इस किताब की वजह से पहली बार पाकिस्तानी सेना ने अपने किसी पूर्व आईएसआई प्रमुख को देश से बहार न जाने देने वाली सूची में शामिल कर उनके खिलाफ जांच का आदेश जारी किया है. इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस के निदेशक मेजर जनरल असिफ गफूर ने कहा कि द स्पाई क्रॉनिकल्स में असद दुर्रानी के हवाले से प्रकाशित विचारों पर उनसे जवाब मांगा जाएगा. उनके हवाले से किताब में जो कहा गया है, उसे मिलिट्री कोड र्ऑें कंडक्ट का उल्लंघन माना जा रहा है, जो सभी सेवारत और सेवानिवृत्त सैन्य कर्मियों पर लागू होता है.
यह एक दिलचस्प घटनाक्रम इसलिए भी है, क्योंकि पाकिस्तानी सेना हमेशा अपने वर्तमान और पूर्व अधिकारियों का बचाव करती आई है. मिसाल के तौर पर पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ के सत्ता से हटने के बाद भी सेना ने उनका साथ दिया.
किताब में दुर्रानी के तेवर शांत और संयमित है, हालांकि उन्होंने अपने करियर में काफी उथलपुथल और अशांति देखी है. हेन किस्लिंग ने अपनी किताब फेथ, यूनिटी एंड डिसिप्लीन: द आईएसआई ऑफ़ पाकिस्तान में दुर्रानी को एक सुरक्षात्मक खिलाड़ी एवं संस्थागत व्यक्ति के रूप में देखा है और कहा है कि दुर्रानी की किस्मत का सितारा अगस्त 1988 की विमान दुर्घटना के कारण चमका था, क्योंकि 1988 की गर्मियों में उन्होंने नेशनल डिफेंस कॉलेज में लोकतंत्र पर एक व्याख्यान दिया था, जिससे नाराज़ होकर जनरल ज़िया ने उनका प्रमोशन रोक दिया था.
दुर्रानी ने आईएसआई की कमान उस समय संभाली थी, जब कश्मीर और अफगानिस्तान में अशांति का दौर था. कश्मीर में आईएसआई की भूमिका के मद्देनज़र तत्कालीन रॉ प्रमुख जीएस बाजपेयी के साथ उनकी दो गुप्त बैठकें हुईं, लेकिन उन बैठकों का कोई असर नहीं हुआ. दुर्रानी का नाम नेता रिश्वत मामले में भी आया, जिसने 90 के दशक में नवाज शरीफ को सत्ता तक पहुंचाया. बाद में वह बेनजीर भुट्टो के करीब आ गए थे और राजदूत भी बने.
दुर्रानी के खिलाफ कर्रवाई की वजह पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की प्रतिक्रिया हो सकती है. नवाज़ शरीफ ने हाल ही में मुंबई हमलों पर एक बयान दिया था, जो पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय पक्ष को मजबूत करता था. उनका कहना था कि ओसामा बिन लादेन, मुंबई हमलों, कश्मीर और अन्य मुद्दों पर पाकिस्तान का पक्ष ख़राब ढंग से पेश करने के लिए दुर्रानी से वैसे ही निपटा जाए, जैसे उनसे निपटा गया. शरीफ और अन्य लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर बनाया गया दबाव काम आया और दुर्रानी को सम्मन जारी कर दिया गया.
इस जांच का क्या होगा, यह कहा नहीं जा सकता, लेकिन बाज़ार में आने से पहले ही किताब ने काफी हलचल पैदा की है. मैं दुर्रानी को कई वर्षों से जानता हूं. मैंने उन्हें विचारशील और पढे-लिखे जनरल के रूप में देखा है, जिनके पास दलील और तर्क की कोई कमी नहीं रहती है. लेकिन उनकी साफ़गोई उन लोगों को अच्छी नहीं लगेगी, जो ऐसे प्रयासों को समय की बर्बादी मानते हैं.
यह किताब पढ़ने लायक है. आदित्य सिन्हा ने इन दो पूर्व ख़ुफ़िया प्रमुखों के बीच चर्चाओं का बेहतरीन संचालन किया है. एक पत्रकार के रूप में आदित्य सिन्हा ने कश्मीर को व्यापक रूप से कवर किया है और राष्ट्रीय दैनिक डीएनए (डेली न्यूज़ एंड एनालिसिस) के संपादक भी रहे हैं. आदित्य सिन्हा की शैली भी दिलचस्प है और चर्चा के लिए चुने गए लोकेशंस भी, जिसमें इस्तांबुल से बैंकॉक और काठमांडू तक शामिल हैं. दुलत और दुर्रानी ने जो कहानी बयान की है, वो भारत-पाकिस्तान संबंध को परखती है और सहयोग के संभावित क्षेत्रों की ओर ध्यान आकर्षित करती है.
दरअसल यह किताब कोई ऐसी जानकारी आम नहीं करती है, जिसकी जानकारी पहले से नहीं है. जबकि दोनों पूर्व खुफिया प्रमुखों ने अपनी एजेंसियों और अपने देश की नीतियों का अच्छी तरह से बचाव किया है और कई जगह साफ़गोई से अपनी बातें रखी हैं. उदाहरण के लिए, ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए एबटाबाद में हुए अमेरिकी ऑपरेशन पर, दुर्रानी का कहना है कि पाकिस्तान के सहयोग के बिना यह संभव नहीं था. खोजी पत्रकार सेमियोर हर्ष ने यह बात पहले कह दी थी और कई अन्य स्रोतों से भी यह बात सामने आ चुकी है. मुंबई हमले पर दुर्रानी कोई नया खुलासा करते नज़र नहीं आते और न नवाज शरीफ की तरह आईएसआई पर दोष मढ़ते हैं.
दिलचस्प बात यह है कि दुर्रानी ने कश्मीर पर सख्त रूख नहीं अपनाया है. यहां उनका लहजा लगभग दुलत से मिलता जुलता है. ज़ाहिर है, यह कश्मीर पर पाकिस्तान के ज्ञात रूख के खिलाफ है, जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की कठोर कश्मीर नीति के कारण और सख्त हो गया है. उनका स्टैंड इस नैरेटिव के गिर्द घूमता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच सहयोग से सुलह का माहौल बना सकता है और अंत में समस्या का समाधान भी निकल सकता है.
बहरहाल, दुर्रानी यह स्वीकारते हैं कि पाकिस्तान ने जेकेएलएफ प्रमुख अमानुल्ला खान (जिनके स्वतंत्र जम्मू-कश्मीर विचार को व्यापक समर्थन हासिल था) को गंभीरता से नहीं लिया. खान को उन्होंने गिल्गीटी कहा है. हुर्रियत को दुर्रानी ने एक अच्छा प्रयोग कहा, लेकिन वो यह नहीं कहते कि पाकिस्तान ने इसे खड़ा किया है. दुर्रानी के विपरीत, दुलत भारत-पाकिस्तान, कश्मीर-पाकिस्तान और भारत-कश्मीर के बीच त्रिकोणीय बातचीत की वकालत करते हैं. हालांकि वो यह कहना नहीं भूलते कि कश्मीर हमारा है और कश्मीरी भी हमारे हैं.
दुलत का स्टैंड, उनकी पहली किताब कश्मीर-माई वाजपेयी इयर्स में व्यक्त उनके विचारों पर आधारित है, जिसमें वो कश्मीरियों को बातचीत की मेज पर लाने की वकालत करते हैं और अंतिम समाधान के लिए चार-बिंदुओं को पेश करते हैं. वह कश्मीरियों को नज़रअंदाज़ करना नहीं चाहते, लेकिन उन्हें अपने पक्ष में करने के खिलाफ भी नहीं हैं. कश्मीर में किताब की आलोचना उस तिरस्कार की बुनियाद पर हुई कि एक आईएसआई का आदमी, एक रॉ के आदमी के साथ मिलकर किताब लिख रहा है. आज के माहौल में इस तरह की खुशमिजाजी नहीं है, क्योंकि ऐसा माहौल नई दिल्ली ने पैदा किया है. संघर्ष विराम और पर्दे के पीछे की कवायद के बाद, शायद गुस्से में कुछ कमी आए.
यह किताब पाकिस्तान को अफगानिस्तान, अमेरिका (ट्रंप) के संदर्भ में देखने पर जोर देती है. इसमें रूस, चीन, पुतिन, नवाज शरीफ, बेनजीर भुट्टो के अलावा और भी बहुत कुछ शामिल है. दुर्रानी ने अमेरिका और अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी की काफी आलोचना की है. उनके मुताबिक, गनी अफगानिस्तान के हालात को नहीं समझ रहे हैं. वो कश्मीर में अमेरिकी मध्यस्थता के भी खिलाफ हैं, वे समझते हैं कि अमेरिका भारत का पक्ष लेगा. अफ़ग़ानिस्तान के बारे में उनका कहना है कि अमेरिका शांतिपूर्ण तरीके से वहां से वापस नहीं जाना चाहता है. यदि वहां शांति होती है तो न्यू ग्रेट गेम में अमेरिका हार जाएगा.
ऊहीं दुलत ने यह स्वीकारा है कि अफ़ग़ानिस्तान के साथ बातचीत में पाकिस्तान महत्वपूर्ण है. वो दिल्ली की नीति पर सवाल उठाते हुए पूछते हैं कि हम अफ़ग़ानिस्तान में क्यों झगड़ रहे हैं? हम वहां सहयोग क्यों नहीं कर रहे हैं? किताब का अंत सहयोग के विचार पर होता है, जिसमें उनके विचार से खुफिया एजेंसियों को भी शामिल किया जाना चाहिए.
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी का विश्वासपात्र माना जाता है, के बारे में दुलत ने सुझाव दिया है कि उन्हें लाहौर आमंत्रित करना चाहिए, जो उनके अनुसार एक महत्वपूर्ण मोड़ होगा. दुर्रानी और दुलत इस बात पर सहमत हैं कि चुनाव दोनों देशों के संबंधों में बाधा बन रहा है. अंत में, दुलत ने अपना 16-सूत्रीय और दुर्रानी ने 10-सूत्रीय एजेंडा पेश किया है. कश्मीर भी इसमें शामिल है, अंतिम समाधान के रूप में नहीं, बल्कि विश्वास बहाली उपायों के संबंध में.
यह एक दिलचस्प किताब है, लेकिन थ्रिलर नहीं है. क्योंकि इसमें कोई विस्फोटक बात नहीं कही गई है. आदित्य ने स्पष्ट ढंग से अपनी बात कही है, जो किताब में पाठक की दिलचस्पी बरक़रार रखती है. यह आकर्षक और जानकारीपरक किताब है और दो देशों के संबंधों की महत्वपूर्ण ऊंचाइयों और निम्न स्तर को उजागर करती है. विवाद अपनी जगह है, लेकिन यह किताब दूसरों को भी इस क्षेत्र में काम करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है. यह किताब दो दिग्गजों के बीच केमिस्ट्री की वजह से वजूद में आई है.
–लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.