विवेक त्रिपाठी ‘मानस’ का कहानी संग्रह ‘बालकनी’ पढ़ने को मिला। कहानीकार ने लॉकडाउन को धन्यवाद दिया है कि उसने समय दिया तो ये कहानियां उनसे मिल पाई। अनेक नकारात्मकताओं के मध्य लॉकडाउन का यह एक सकारात्मक पहलू भी है कि सृजनात्मकता ने हार नहीं मानी। परिस्थितियाँ कैसी भी हों, उम्मीद बनी रहे तो बेहतर होता है। बालकनी की कहानियाँ अपने समय को दर्ज़ करती हैं। यह दिलचस्प बात है कि कहानियाँ अंत तक रहस्य जिज्ञासा बनाये रखती हैं। पाठक को बेचैन करती हैं कि शीघ्र ही वह समय निकाले और जिज्ञासा का शमन करे। कुछ लघु व कुछ थोड़ी सी दीर्घ आकार की कुल 21 कहानियाँ इस संग्रह में है। जिनमें विषय विविधता भी है।
वर्तमान कहानी में घटना और कार्य व्यापार के स्थान पर पात्र और उसका संघर्ष ही कहानी की मूल धुरी बन गए हैं। ‘गिद्ध’ कहानी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की गहरी जड़ों पर अनुशीलन है। कोई सरकारी अधिकारी ईमानदार रहना चाहे तो भी भ्रष्ट समाज उसे दलदल में खींच ही लेता है। पूंजीवाद की प्रखरता से उच्च तबका सारी सुविधाएं चुम्बक लगाकर अपने अधीन कर रहा है। इसी वर्ग के लोग ईमानदार अधिकारियों का जीवन दूभर कर देते हैं व सड़ी हुई व्यवस्था का हिस्सा बनने को विवश कर देते हैं। सुकुमार के मन का आंतरिक संघर्ष उभरकर सामने आया है। छोटे-छोटे संवादों के ज़रिए कथानक आगे बढ़ता है। संवाद कहीं भी बोझिल नहीं हुए हैं। सुकुमार की चारित्रिक विशेषताएं, उसकी उलझनें कथोपकथन से प्रकट होती हैं। भाषा-शैली पात्रानुकूल है। आम जीवन में समाहित अंग्रेजी के शब्द भी लेखक ने उसी तरह प्रयोग किये हैं जिस रूप में कहानी का पात्र उपयोग करता है। बेईमानी, अवसरवाद, भ्रष्टाचार आदि का आम जन जीवन में जितना दखल हो चुका है उसे उद्घाटित कर जीवन-मूल्यों का स्मरण दिलाया गया है- “वो तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है या तो भगवान विष्णु की तरह उसकी सवारी करो और ग़लत के ख़िलाफ़ लड़ो, या उसे मारकर सिस्टम का हिस्सा बन जाओ। लेकिन ये बीच का मार्ग अपना कर अगर ग़लत को जस्टिफाइड करते रहोगे, तो ये गिद्ध तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाले। याद रखो कि तुम्हें आज ग़लत और सही भले ना दिख रहा हो। लेकिन जो ग़लत है, वह ग़लत है और जो सही है वह सही।”
छोटी-छोटी खुशियाँ भी जीवन में कितना महत्व रखती हैं किसी की एक मुस्कुराहट की वजह भी अगर हम बनते हैं तो प्रतिक्रिया में जो सुकून मिलता है वह अनमोल है। वह आत्मा की खुराक है। ऐसी ही एक बहुत प्यारी सी कहानी है ‘धनुष’।
‘पचहत्तर’ शीर्षक की कहानी बताती है हम कितना भी बदल जाएं, हमारा अतीत कभी साथ नहीं छोड़ता। अतीत की शोहरत हो या बदनामी परछाई की तरह हमारे साथ रहती है। सरकारी दफ़्तर की ज़्यादतियों के शिकार एक वृद्ध का अतीत जब सामने आता है तो सरकारी कर्मचारी भय से भर उठता है।
‘बेजुबान’ मोहित आरती की चुलबुली सी प्रेम कहानी है। परिस्थितियों के साथ आरती कितनी परिपक्व हो गई। क्यों हँसती-खेलती ज़िंदगी को बुरी नज़र लग जाती है, जीवन की किताब में ख़ुशियों वाले अध्याय लंबे होने चाहिऐं न।
‘घिग्घी’ बहुत मज़ेदार कहानी लगी। सिविल सर्विसेज की तैयारी और परीक्षा तथा इंटरव्यू आदि को आधार बनाकर प्रतियोगियों के संघर्ष व व्यवहार के मनोविज्ञान को चित्रित करती यह कहानी लगभग हक़ीक़त ही है। छोटे-छोटे कस्बों शहरों से सपनों की अमानत लिए बड़े शहरों में पदार्पण करने वाले युवाओं के संघर्ष भी कम रोचक नहीं। वैश्वीकरण, सूचना क्रांति के युग में कहानियां तेजी से बदलते हुए मानवीय मूल्यों को अंकित कर ही हैं।
उच्च वर्गीय विशांत और निम्न मध्यवर्गीय नीरज की आध्यात्मिक यात्रा उन्हें कहाँ लेकर जाती है। दोनों वर्गों में क्या अंतर है? समाज में व्याप्त विद्रूपताओं व बाबा प्रवृत्तियों पर एक व्यंग्य है ‘मोह’ कहानी। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार व मध्यवर्गीय जीवन की समस्याओं का ताना- बाना लगभग हर कहानी में है।
भरे हुए पेट के नैतिकता के पैमाने कुछ और होते हैं खाली पेट के कुछ अलग। आर्थिक स्थिति ही रिश्तों के पैमाने तय करती है। जिस समाज में रिश्तों और नैतिकता की परिभाषाएँ इतनी दिखावटी सतही हों वहाँ एक बेसहारा औरत की गुज़र बसर किस तरह होती है? क्या वह चरित्रहीन है? क्या एक माँ इतनी स्वार्थी हो सकती है कि बेटी की थोड़ी सी ख़ुशियों पर गिद्ध दृष्टि डाले? यह जानने को पढनी होगी ‘चरित्रहीन’ कहानी।
बढ़ते शहरीकरण व तीव्र वैश्वीकरण ने व्यक्ति की सत्ता को कितना अलग-थलग कर दिया है। चरम व्यक्तिवाद के साथ ही व्यक्ति के अकेलेपन व अजनबीपन की परिस्थितियों में इंसान को अपनत्व की खुशबू से वंचित कर दिया है। अब वह जमीन पर उगने व फलने-फूलने वाला पेड़ न रहकर गमलों में उगने वाला, बालकनी की शोभा बनने वाला गमले का पौधा बनकर रह गया है।
शीर्षक कहानी ‘बालकनी’ में ऐसे ही गमले के पौधेनुमा कई प्राणी हैं जो अपने-अपने अपार्टमेंट की बालकनियों से दूर से ही दूसरों के कार्य-कलापों का अवलोकन व अनुमान करते हैं।
कहानी में कथानक से लेकर शीर्षक तक सभी तत्वों का बहुत महत्व होता है। छोटे व आकर्षक शीर्षक इस कहानी संग्रह की विशेषता हैं। कोई भी शीर्षक एक शब्द से बड़ा नहीं है। तानपुरा, पत्थर, चिश्मस, एप्पल सभी शीर्षक लघु व आकर्षक हैं, जिज्ञासा पैदा करने में सक्षम हैं।
‘पत्थर’ कहानी में पत्थर किस तरह एक सोच को उभारने व प्रेरणा देने में सहायक सिद्ध होता है प्रशंसनीय है। एक आत्मविश्वास से भरी नारी का समस्याओं से जूझने के दृष्टिकोण में क्या फ़र्क होता है व किस तरह मुकाबला करती है उम्दा है। पितृसत्तात्मक समाज में आधुनिक व पढ़ा लिखा इंसान भी कब क़ैद हो जाता है; पता नहीं लगता।
“मैं तुम्हारी बीवी हूँ, साथ चलने के लिए हूँ, ढोने के लिए नहीं। समाज के रखे इस मर्द नामक पत्थर को अपने दिमाग़ से हटाओ और मेरे कंधे पर सिर रख के रो लो। तुम यह कह सकते हो कि ‘प्रियंका मैं थक गया हूँ, अब थोड़ा तुम संभाल लो, नहीं हो पा रहा मुझसे अब। अब थोड़ा तुम चल लो। मैं बैठ जाता हूँ। ”
कहानियों की भाषा शैली के लिए लेखक ने स्वीकार किया है कि ये कहानियां जिस तरह निकल कर आई भाषा का चुनाव इन्होंने स्वयं कर लिया अतः इनकी भाषा साहित्यिक ना होकर सीधी व सरल है। वैसे देखा जाए तो सीधा सरल लिखना ज़्यादा मुश्किल काम है। आम इंसान के जो समझ में आसानी से समझ आ जाये वही भाषा सार्थक है।
पात्रों का व्यवहार बताता है कि लेखक की मनोवैज्ञानिक समझ बहुत अच्छी है। ‘एप्पल’ कहानी में बालमनोविज्ञान का अच्छा उपयोग किया है। सेब खाने की लालसा में बच्चा सोचता है कि वह बीमार हो जाये तो अच्छा रहे ताकि उसे सेब खाने को मिले। छोटे-छोटे संवादों से कहानी की रोचकता बनी रहती है। “लेकिन मेरी भोली माँ ने बातों ही बातों में मुझे खजाने की चाभी दे दी। अब मुझे पता चल गया था कि उस सेब को कैसे कब्ज़े में लिया जा सकता है।” एक सेब हथियाने के लिए मिट्ठू को क्या कुछ नहीं करना पड़ता। बालमन की योजनाएं देखिए कितनी सहज हैं। “मुझे इतना गुस्सा कि बस पूछिये मत…आज मैंने सीधे-सीधे भगवान जी से बोल दिया था…कि आज बारिश नहीं हुई तो उनको मैं प्लान से बाहर निकाल दूंगा और आगे भी किसी प्लान में नहीं रखूँगा। मैं तो उनको भगवान भी नहीं मानूंगा।”
मध्यम वर्ग की उलझनों, सपनों, संघर्षों, आकांक्षाओं के रंगों से मिलकर जो इंद्रधनुष निर्मित होता है वह है ‘बूमरैंग’। कौशल के पाँव चादर से बाहर निकालने को लोकेश का थोड़ा सा उकसावा नशे का काम करता है। शराब के नशे में उकसावे के नशे का मिश्रण किस तरह काम करता है, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह बड़ी कहानी है। – “भाभी जी! घूम लीजिए आप! पैसे वैसे तो हाथ का मैल है। दो दिन नहीं नहाएँगे तो आ जाते हैं।”
बाज़ार आवश्यकताओं को पैदा करता है। मृग-मरीचिका तृष्णाओं को भड़काती है। जब भीतर सुकून न हो तो कहीं भी नहीं मिलता। ऑफ़िस से छुट्टी लेने के लिए झूठ पर झूठ बोलने पड़ते हैं। सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। यह कहानी मनोरंजन भी करती है और सोचने पर भी मजबूर कर देती है। कहानी में तनाव चरम पर पहुंचता है। काम निकालने के लिए कौशल को अपना अहम छोड़कर कई पापड़ बेलने पड़ते हैं। ज़रूरत पड़ने पर एक इंसान कितना झुक जाता है। पासपोर्ट, वीज़ा के मामले में कागज़- पत्रों के सिलसिले में दफ़्तरों के चक्कर हलकान कर देते हैं। कुछ ले देकर काम करने की मानसिकता के पीछे आम इंसान का चैन हराम हो जाता है। यह चीजें व्यवस्था में इतने गहरे से पैठ चुकी हैं कि किसी को अजीब भी नहीं लगतीं। एक तरह की मानसिक स्वीकारोक्ति समाज से हासिल हो चुकी है। कहानी के अंत में कर्म के सिद्धांत की स्थापना आती है।
तीव्र वैश्वीकरण के युग में सूचना क्रांति के चलते समाज की नस-नस में बाजारीकरण का असर फैल गया है। मानवीय मूल्यों और मानवीयता का ह्रास हुआ है। लोगों की सोच जिस गति से अधोगति की तरफ़ अग्रसर होकर रसातल में पहुंची है ऐसा पहले नहीं था। स्वार्थलिप्सा के चलते आज व्यक्ति समाज में अकेला पड़ गया है। सेवा और सहयोग जैसे उच्च मूल्य कपूर की तरह हवा हो गए हैं। अजनबियत के खोल में स्वयं को छुपाए हुए मानव के मन से आत्मविश्वास व भरोसे के पँछी कब के उड़ चुके हैं। चूहा-दौड़ का हिस्सा बनकर वह कहीं का नहीं रहा। अपनी आत्म-शक्तियों को वहम के कोहरे में छिपा बैठा व्यक्ति विक्षिप्त सा हो गया है। इस यथार्थ से हमें ‘बालकनी’ कहानी-संग्रह की कहानियाँ रु-ब-रु करवाती हैं।
संक्षिप्त व रोचक कथोपकथन, जिज्ञासापूर्ण शीषर्क, मनोविज्ञान की सूक्ष्म पकड़ व कथानक की विभिन्नता समसामयिक यथार्थवादी चिंतन इस कहानी संग्रह को महत्वपूर्ण बनाते हैं। ‘बे-बस’, ‘आलस्य’ कहानियों में थोड़ा रोचकता का पुट कम लगा। आशा है अगले संस्करणों में अनुनासिक चिन्हों का ध्यान रखा जाएगा। लेखक का यह पहला कहानी संग्रह है। कह पड़ेगा कि उम्मीदें जगाई हैं कहानियों ने कि आगे भी लेखक इसी तरह रचते रहेंगे, ऐसी कामना के साथ बहुत बधाई इस पुस्तक के लिए।
लेखक : विवेक त्रिपाठी ‘मानस’
-अनिता मंडा