ये दाग अब किसी सूरत, किसी कोशिश, किसी कवायद से मिटने वाले नहीं हैं…! लाल की नज़रें नीची, प्राचीर की गर्दन झुकी हुई और देश का दंभ डोला हुआ है…! जिद्दमजिद्दा के दो महीनों के बाद एक मोड़ ऐसा भी आएगा, किसी ने सोचा नहीं था (हो ये भी सकता है कि सब पहले से सोचा विचारा ही हो…)! मेहमानों के खुशनुमा चेहरों की बजाए वैमनस्य से भरी क्रूरता, फूलों की बारिश की जगह अश्रु गैस की बोछार, सुगम संगीत के स्थान पर कर्कश ट्रैक्टर इंजन की ध्वनि… हद ये कि प्राचीर पर लहराते तिरंगे को मुंह चिढ़ाता एक संगठन खास का ध्वज…!

सब कुछ तय था… रुट भी, शामिल होने वाले लोग भी, किया जाने वाला प्रदर्शन भी और उसका समय भी…! फिर सब कुछ बदला हुआ दिखा… रुट, प्रदर्शन, समय… और शायद लोग भी! दिल्ली की सड़कों पर गणतंत्र को कुचलते जो नज़र आए, वह वे किसान तो कतई नहीं हो सकते, जो धरती का सीना चीरकर देश के लिए अन्न निकालते हैं…! इनके भेष में कुछ बहरुपिए थे जो हल की बजाए लाठियां और तलवारें थामे नज़र आए…! अपनी फसल के ओने पोन दाम पाने के हाथ बांधे खड़े दिखाई दिए…! अपनी मेहनत का फल पाने के लिए याचक बने दिखने वाले लाल मैदान में लाल पीले होते दिखे…!

सरकारी संपत्ति का नुकसान, शहर भर हलकान, कई चोटिल और कुछ जानों की बलि के बीच दम तोड़ता गणतंत्र….! नुक़सान बड़े हुए, लेकिन रणनीतिकार गणतंत्र की बहत्तर वीं वर्षगांठ का खास जश्न मना रहे होंगे… छोटे नुक़सान का बड़ा फायदा दो महीने से जमे जिद्दी किसानों की अकड़ को कमज़ोर करने का आसान रास्ता निकलते नज़र आ रहा है…! कानून के नाम पर, गणतंत्र के दमन के बदले के नाम पर, सजा के नाम पर आंदोलन खत्म करवाने का मार्ग प्रशस्त होता दिख रहा है…! सुकून एक तारीख को लेकर मची खलबली के ख़तम होने से भी जरूर मिल रहा होगा….!

पुछल्ला
गोदी से दलाल बन चुकने का सफर

नया नहीं है, बहुत दिन हो चुके विश्वसनीयता खो देने के। एक पक्षीय, एक विचारधारा पर, झूठ को सच और सच को झूठ करार देकर गोदी होने का तमगा मीडिया ने हासिल किया है। किसानों(?) को उपद्रवी, देशद्रोही, दंगाई और सबसे खराब करार देने की महारत भी आज मीडिया ने बटोर ली। उनके पक्षकार और इनके विरोधी बने खड़े दिखाई देने वाले मीडिया को दलाल कहा जा रहा है। चंद सिक्कों की खनकार में दलाली के इस तमगे की पुकार धीमी जरूर है लेकिन लेकिन इसकी आवाज आमजन तक पहुंच भी रही है, उनकी समझ भी आ रही है।

खान अशु

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