योगी का गढ़ कहे जाने वाले गोरखपुर में सपा और बसपा ने मिलकर भाजपा को मात दे दी है. 27 साल बाद गोरखपुर में सपा की हार हुई है. साथ ही फुलपुर में भी भाजपाा को करारी हार मिली. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र गोरखपुर की प्रतिष्ठित लोकसभा सीट पर भाजपा के उपेंद्र शुक्ला को सपा के प्रवीन निषाद ने 21,881 वोटों से शिकस्त दी. भाजपा 1991 से ही लगातार गोरखपुर संसदीय सीट से जीतती आ रही थी. 1989, 1991 और 1996 में महंत अवैद्यनाथ यहां से सांसद रहे और उनके बाद 1998 से 2014 तक योगी आदित्यनाथ यहां से जीतते रहे.
पिछली बार योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर से 3 लाख 12 हजार के मतों से जीत दर्ज की थी, लेकिन इसबार भाजपा को यहां बुरी हार का सामना करना पड़ा. इस बड़ी उलटफेर के कई कारण हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:
सपा-बसपा का साथ आना
सपा-बसपा ने साथ आकर भाजपा के सामने एक ऐसी चुनौती खड़ी कर दी, जिसकी काट भाजपा के नेता नहीं निकाल सके. योगी आदित्यनाथ ने जमीन पर बहुत पसीना बहाया, उन्होंने दर्जन भर से ज्यादा रैलियां और कई बैठकें की, लेकिन सपा-बसपा के साथ आने से बने समीकरण को ध्वस्त नहीं कर सके. इस सीट पर निषाद सबसे पहले पीस पार्टी फिर निषाद पार्टी से गठबंधन किया.
अखिलेश का जातिगत समीकरण
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने गोरखपुर में जातिगत समीकारणों का भी पूरा ध्यान रखा और उसी के इर्द-गिर्द पूरी रणनीति तैयार की. पीस पार्टी और निषाद पार्टी से गठबंधन इसी रणनीति का हिस्सा था. प्रवीण निषाद को टिकट देना भी कारगर कदम रहा. सपा ने पूरी रणनीति से इस चुनाव को जातीय राजनीति में उलझाया.
भाजपा की गुटबाजी
यूपी में योगी सरकार बनने के बाद से भाजपा के भीतर ठाकुरों और ब्राह्मणों के बीच के मतभेद ने भी गोरखपुर को भाजपा के हाथ से छीनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ब्राह्मणों और ठाकुरों ने एक दूसरे का साथ नहीं दिया. बड़े नेताओं की गुटबाजी में जीमनी कार्यकर्ताओं की भूमिका भी खत्म हो गई. पार्टी का बूथ मैनेजमेंट इस बार बिल्कुल कमजोर रहा और इसका नतीजा हुआ कि गोरखपुर में साइकिल और हाथी के साथ ने बाजी मार ली और कमल मुरझा गया.
मठ से जुड़ा उम्मीदवार न होना
गोरखपुर में पिछले 3 दशक से मठ से जुड़े व्यक्ति को ही जीत मिलती रही है. इसबराा भाजपा आलाकमान ने योगी की पसंद का उम्मीदवार नहीं दिया था. जिस उपेंद्र शुक्ला को टिकट दिया गया था, वे भी चुनाव प्रचार के बीच ही बीमार पड़ गए, जिससे क्षेत्र में उन्हें जनसंपर्क और कार्यकर्ताओं से मिलने का पूरा मैका नहीं मिल सका और वे लोगों को अपने पक्ष में एकजुट करने में विफल हो गए.