militants in valleyकश्मीर में इस साल भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों अब तक 200 से अधिक मिलिटेंट्स मारे गए. उनमें 90 से ज्यादा कश्मीरी और बाकी विदेशी हैं. मिलिटेंसी के खिलाफ चलाए जा रहे ऑपरेशन ऑल आउट को सेना और पुलिस दोनों ने सफल बताया है. सुरक्षाबलों के अनुसार घाटी में फिलहाल 200 मिलिटेंट्स सक्रिय हैं. गौरतलब है कि साल 2016 में भी आधिकारिक तौर पर यहां मिलिटेंट्स की संख्या 200 ही बताई गई थी. इसका मतलब ये हुआ कि यदि 200 मिलिटेंट्स मारे जा चुके हैं, तो 200 और मिलिटेंट्स सक्रिय हो गए हैं. ये भी हकीकत है कि पिछले 27 साल की मिलिटेंसी के दौर में सुरक्षा एजेंसियों ने कभी भी घाटी में सक्रिय मिलिटेंट्स की संख्या 200 से ज्यादा नहीं बताई है. अब सवाल ये उठता है कि ऐसे हालात में, जब 200 मिलिटेंट्स मारे गए हैं और 200 अभी भी सक्रिय हैं तो ऑपरेशन ऑल आउट को कैसे सफल माना जा सकता है? इस साल अप्रैल में केंन्द्रीय गृह मंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में बताया कि 1989 से अब तक जम्मू और कश्मीर में कुल 21,965 मिलिटेंट्स मारे जा चुके हैं.

सुरक्षाबलों के लिए ये बात परेशान करने वाली है कि मारे जाने वाले मिलिटेंट्स की शवयात्रा में हजारों कश्मीरी शामिल हो जाते हैं और जिस इलाके में वे मारे जाते हैं वहां उनके शोक में दो दिनों तक बाजारें और दुकानें बन्द रहती हैं. हाल ही में दक्षिण कश्मीर के त्राल में हिजबुल मुजाहिदीन से संबंधित मिलिटेंट आदिल चौपान के मारे जाने के बाद उसके नमाज-ए-जनाजा में हजारों लोग शामिल हुए और उसकी चहारूम (फातया) के दिन उसके गांव में लोगों ने उसके नाम और फोटो वाले बैनर लहराए. स्थानीय फौजी कैंप में जब ये खबर पहुंची, तो सेना की एक टीम बैनरों को हटाने उस गांव पहुंची. लेकिन ग्रामीणों के साथ उनकी झड़प हो गई और ग्रामीणों ने बैनर नहीं हटाने दिया. ये ऐसी स्थिति है जिसे देख कर विश्लेषक ये मानते हैं कि मारे जाने वाले मिलिटेंट्स सुरक्षाबलों के लिए ज्यादा खतरनाक बन जाते हैं. बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से पैदा हुई स्थिति से यही साबित होता है.

आत्मसमर्पण की नीति

भाजपा के वरिष्ठ नेता और कश्मीर के प्रभारी राम माधव ने इस साल मई के महीने में सुरक्षाबलों को संबोधित करते हुए कहा था कि कश्मीरी मिलिटेंट्स और गैर-कश्मीरी मिलिटेंट्स में कोई भेद न रखें. राम माधव के बयान के बाद सेना प्रमुख विपिन रावत ने भी घोषणा की थी कि कश्मीर में सक्रिय सभी मिलिटेंट्स को खत्म किया जाएगा. अब सात महीने बाद राज्य सरकार और सुरक्षा एजेंसियों ने कहना शुरू कर दिया है कि जो मिलिटेंट हथियार डाल देंगे, उनका स्वागत किया जाएगा. 17 नवंबर को दक्षिणी कश्मीर में एक मिलिटेंट माजिद खान ने सुरक्षाबलों के सामने आत्मसमर्पण किया. माजिद अपने इलाके का मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी रह चुका है. वो सिर्फ दस दिन पहले मिलिटेंट बना था. माजिद की मां ने सोशल वेबसाइट पर वीडियो के जरिए उससे घर वापस लौटने की गुहार लगाई थी. माजिद घर लौट आया. पुलिस ने उसके साथ कोई कार्रवाई किए बगैर घरवापसी पर उसका स्वागत किया. माजिद के आत्मसमर्पण के तीन दिन बाद दक्षिणी कश्मीर का एक और मिलिटेंट मात्र 13 वर्षीय नसीर अहमद घर लौट आया. नसीर दो महीने पहले ही मिलिटेंट बना था. इन दो मामलों के बाद कई परिजनों ने अपने मिलिटेंट बच्चों से घर वापस लौटने की अपील सोशल मीडिया पर जारी की है.

दरअसल, माजिद और नसीर के आत्मसमर्पण के बाद पुलिस ने ये घोषणा की कि जो भी मिलिटेंट आत्मसमर्पण करेगा, उसका पुनर्वास किया जाएगा. लेकिन अब तक किसी तीसरे मिलिटेंट ने आत्मसमर्पण नहीं किया है. ऐसा नहीं है कि जम्मू और कश्मीर में पहली बार सरेंडर पॉलिसी बनाई गई है. 1990 के दशक में सैकड़ों मिलिटेंट्स ने सरेंडर किया था, जिन्हें बाद में सरकार ने काउंटर इनसर्जेंसी में इस्तेमाल किया. इनमें से ज्यादातर बाद में मारे गए. बहुतों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा और उन्हें रोजगार के अवसर नहीं मिले. सरकार ने उनके पुनर्वास में कोई खास मदद नहीं की. साल 2010 में सरकार ने सीमा पार गए मिलिटेंट्स को घर वापस बुलाने के लिए आत्मसमर्पण/पुनर्वास नीति का एलान किया था. इनमें वो मिलिटेंट्स शामिल थे, जो 1990 के दशक में पाक अधिकृत कश्मीर चले गए थे और वहां अपना घर बसा लिया था. तय हुआ था कि ये लोग नेपाल की सीमा से भारत में दाखिल होंगे और कश्मीर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर अपने घरों में आराम की जिन्दगी गुजारेंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उन्हें यहां पहुंच कर आराम नहीं मिला, बल्कि पुलिस उन्हें तरह-तरह से तंग करने लगी. उनके पहचान पत्र जारी नहीं किए गए. रोजगार के अवसर नहीं दिए गए. पासपोर्ट नहीं जारी किए गए. उन्हें हर दूसरे दिन पुलिस थाने में हाजिरी के लिए बुलाया जाता था. इनकी हालत देखकर बाकी बचे मिलिटेंट्स ने वापस आने का फैसला बदल दिया.

विश्लेषकों का मानना है कि मिलिटेंसी के खात्मे के लिए सरकार को जनता के बीच अपनी साख बहाल करनी होगी. सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जिन मिलिटेंट्स ने आत्मसमर्पण किया, उन्हें वादे के मुताबिक सुविधाएं दी मिलें. कश्मीर में सरकार को आत्मसमर्पण की प्रभावी नीति बनानी होगी और साथ ही एक संजीदा सियासी प्रक्रिया भी शुरू करनी होगी, क्योंकि समस्या को लटकाए रख कर मिलिटेंसी का खात्मा नहीं किया जा सकता है. यदि मिलिटेंसी को जड़ से उखाड़ फेंकना आसान होता, तो कश्मीर में लाखों की संख्या में तैनात सुरक्षाबलों ने पिछले 27 सालों में ये काम कर दिया होता. लेकिन ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि मिलिटेंसी एक सोच है, उस सोच पर हमला कर के उसे बदलने की प्राथमिकता होनी चाहिए और इसके लिए एक मजबूत राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की जरूरत है.

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