प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान अपने भाषणों में सबको चौबीस घंटे बिजली उपलब्ध कराने की भी बात कही थी. मोदी सरकार के पास अपने इस वायदे को पूरा करने के लिए वर्ष 2019 तक का समय है. ज़ाहिर है अगर ऐसा संभव हुआ तो इसे मोदी सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. बहरहाल, अगर देश के सभी घरों में चौबीस घंटे तक बिजली पहुंचानी है तो ऊर्जा की मांग भी बढ़ेगी, जिसे पूरा करने के लिए मौजूदा उत्पादन क्षमता में कई गुना वृद्धि करनी पड़ेगी.
ऊर्जा की इस संभावी बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए सरकार ने वर्ष 2022 तक 175 गीगावाट (जीडब्लू) अक्षय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) के उत्पादन का लक्ष्य रखा है, जिसमें सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी 100 गीगावाट होगी. यदि इस महत्वकांक्षी लक्ष्य को पूरा कर लिया जाता है तो भारत के कुल ऊर्जा उत्पादन में अक्षय ऊर्जा की भागीदारी 7 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 19 प्रतिशत हो जाएगी.
17 जून, 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में नेशनल सोलर मिशन के तहत सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता के लक्ष्य को पांच गुना बढ़ाते हुए वर्ष 2022 तक इसे 100 गीगावाट करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को मंज़ूरी दे दी गई.
100 गीगावाट सौर ऊर्जा के संशोधित लक्ष्य की घोषणा करते समय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने इसका सालाना खाका पेश किया था, जो इस प्रकार है: 2015-16 के लिए 1.8 गीगावाट, 2016-17 के लिए 7.2 गीगावाट, वर्ष 2017-18 से 2019-20 के लिए 10 गीगावाट और 2020-21 एवं 2021-22 के लिए 18 गीगावाट.
इस लक्ष्य को दो हिस्सों में बांटा गया है. पहला रूफटॉप सोलर पॉवर, जिसके तहत 40 गीगावाट का लक्ष्य रखा गया है और दूसरा ग्रिड कनेक्शन सोलर पावर योजना (यूटिलिटी स्केल परियोजना), जिसके तहत 60 गीगावाट का लक्ष्य रखा गया है. जहां तक इन परियोजनाओं पर अनुमानित लागत का सवाल है तो इसकी अनुमानित लागत लगभग 100 अरब डॉलर बताई गई है. गौरतलब है कि वर्ष 2022 के लिए पुराना लक्ष्य 22 गीगावाट रूफ टॉप परियोजना के लिए और 57 गीगावाट ग्रिड कनेक्शन सोलर पावर यूटिलिटी स्केल परियोजनालिए था.
ताज़ा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में सौर ऊर्जा की ऑपरेशनल उत्पादक क्षमता 5 गीगावाट है, जिसमें से रूफटॉप सोलर एनर्जी की हिस्सेदारी महज़ 10 प्रतिशत है. गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में मौजूद सौर ऊर्जा क्षमता का 99 प्रतिशत पिछले चार-पांच वर्षों में हासिल की गई है.
भारत में सौर ऊर्जा उत्पादन के उपलब्ध आंकड़ों और 2022 के लिए रखे गए महत्वकांक्षी लक्ष्यों पर एक नज़र डाली जाए तो यह सवाल बेहद महत्वरपूर्ण हो जाता है कि क्या 2022 तक 100 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन के सपने को पूरा किया जा सकता है?
क्या महत्वकांक्षी योजना बना देने से किसी लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है? क्या बड़ा लक्ष्य रखने से गुणवत्ता में कमी नहीं आएगी या बड़ा लक्ष्य रखने का उद्देश्य यह है कि कम से कम 2022 के लिए सौर ऊजार्र् उत्पादन के लिए निर्धारित पुराने लक्ष्य से अधिक सौर ऊर्जा का उत्पादन किया जाए. बहरहाल, सौर ऊर्जा से जुड़े उद्यमी इस लक्ष्य को असाध्य नहीं मानते. उनका मानना है कि भारत में 100 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन के लक्ष्य को हासिल करने का सामर्थ्य है.
कोचीन इंटरनेशनल एअरपोर्ट के लिए 12 मेगावाट क्षमता वाला सौर संयंत्र स्थापित करने वाली कंपनी बोस्च लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर स्टेफेन बर्न्स तो कम से कम यही मानते हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2014-15 में सौर ऊर्जा की उत्पादन क्षमता में 1.1 गीगावाट की वृद्धि हुई. अगर इस लिहाज़ से देखा जाए तो मौजूदा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उत्पादन में हो रही वृद्धि दर में प्रतिवर्ष कई गुना की वृद्धि करनी पड़ेगी.
यदि पहले से जारी जवाहरलाल नेहरू नेशनल सोलर मिशन (जेएनएनएसएम) के लिए 2010 में स्थापित लक्ष्य के हिसाब से देखा जाए तो इसमें पांच गुना वृद्धि करनी पड़ेगी. जेएनएनएसएम ने वर्ष 2022 के लिए 20 गीगावाट का लक्ष्य इसलिए रखा था, क्योंकि वर्ष 2010 और 2014 के बीच फोटोवोल्टिक सोलर सेल की लागत में 60 प्रतिशत की कमी आई थी. अब सवाल यह उठता है कि क्या फोटोवोल्टिक सोलर सेल की लागत में आ रही लगातार कमी के कारण ही लक्ष्य को बढ़ाना उचित है? क्योंकि इसके लिए ज़मीन की उपलब्धता और सोलर तकनीक केविकास को भी ध्यान में रखना पड़ेगा.
यूटिलिटी स्केल परियोजना
सरकार ने ग्रिड कनेक्शन सोलर पावर योजना (यूटिलिटी स्केल परियोजना) के लिए 60 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है. जिसके तहत ज़मीन पर मध्यम से बड़े सोलर पॉवर प्लांट स्थापित करने का प्रस्ताव है. आमतौर पर सोलर संयत्र के लिए हाइड्रो पॉवर प्लांट से कम, लेकिन थर्मल और परमाणु प्लांट के बराबर भूमि की आवश्यकता होती है. एक अध्ययन के मुताबिक, एक मेगावाट सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए पांच एकड़ भूमि की आवश्यकता होती है. यूटिलिटी स्केल परियोजना के तहत निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 1,214 वर्ग किलोमीटर भूमि की आवश्यकता होगी.
लेकिन सौर संयत्र का एक लाभ यह भी है कि इसकी वजह से थर्मल और परमाणु ऊर्जा की तरह भूमि का डीग्रेडेशन (भूमि अवक्रमण) नहीं होता है. भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर चल रहे गतिरोध को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि किसी बड़ी सौर परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण एक टेढ़ी खीर है. इसके लिए एक उपाय यह किया जा सकता है कि जापान की तरह यहां भी सोलर डबल क्रॉपिंग या सोलर शेयरिंग तकनीक को अपनाया जा सकता है.
जिसके तहत एक ही खेत में बिजली भी पैदा की जाती है और वहां खेती भी होती है. दूसरा उपाय यह हो सकता है कि किसानों से ज़मीन अधिग्रहित करने के बजाये पट्टे पर उनसे उनकी ज़मीन ली जाए, ताकि ज़मीन पर उनका मालिकाना हक बरक़रार रहे. लेकिन इन योजनाओं पर आगे बढ़ने से पहले यह ज़रूरी है कि इसपर गहन अध्यन किया जाए और सारे पहलुओं पर गौर करने के बाद ही आगे बढ़ा जाए.
रूफ टॉप सौर ऊर्जा
100 गीगावाट सौर ऊजार्र् उत्पादन के लक्ष्य की प्राप्ति का दूसरा घटक है ग्रिड कनेक्टेड रूफटॉप, यानी छत पर लगे सोलर पैनल. रूफटॉप सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी इसमें 40 गीगावाट की है. सरकार ने इसके लिए पूरे भारत में 2.51 अरब डॉलर की सब्सिडी दिए जाने का प्रावधान किया गया है. साथ में विनियमों ( रूफटॉप का अनिवार्य इस्तेमाल) और प्रोत्साहन के जरिए रूफटॉप सौर ऊर्जा उत्पादन की संभावनाओं को बढ़ाया जा सकता है.
रूफटॉप सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए बनाई जाने वाली नीतियों में दो बातों पर विचार किया जाना चाहिए. पहला यह कि शहरी क्षेत्र पर फोकस किया जाना चाहिए. ग्रामीण क्षेत्रों के मुक़ाबले शहरी क्षेत्रों में बेहतर माहौल और सुविधाएं उपलब्ध हैं. यहां कंक्रीट की इमारतें हैं, उच्च सुरक्षा है, मशीनरी और कुशल मानव संसाधन की आसान उपलब्धता है. हालांकि, अतीत में सौर ऊर्जा का मुख्य फोकस ग्रामीण क्षेत्र की विद्युत आवश्यकता को पूरा करने को लेकर था. कई अध्ययनों से यह पता चला कि ग्रामीण क्षेत्रों में सौर प्रणाली प्राय: असफल रही है.
इसकी वजह है, इसकी उचित देखरेख न होना, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, सप्लाई चेन और मानव क्षमता की कमी. शहरी क्षेत्र में रूफटॉप सोलर सिस्टम के अधिक इस्तेमाल से इस क्षेत्र से संबंधित तकनीक का भी विकास होगा. जैसे टीवी और मोबाइल के क्षेत्र मेें हुआ. लेकिन यदि बिजली की आवश्यकता को ध्यान में रखा जाए तो यह जाहिर होता है कि सौर ऊजार्र् की आवश्यकता ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक है.
दूसरी अहम बात यह है कि शहरी भवनों, संस्थानों, औद्योगिक और बड़े व्यावसायिक भवनों में इसे प्राथमिकता दी जाए. इसके पीछे विचार यह है कि इससे एक ऐसे उपभोक्ता, जो बहुत अधिक मात्रा में बिजली की खपत करता है और जिसके पास रूफटॉप स्पेस है, उसकी जरूरतों को सौर ऊजार्र् के जरिए पूरा किया जाए. इसके बाद नंबर आता है, सरकारी दफ्तरों, शैक्षणिक संस्थानों, होटल, फैक्ट्रीज, निजि संस्थानों आदि का, जो दिन में काम करते हैं और ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए डीजल जनरेटर का इस्तेमाल करते हैं.
आवासीय अपार्टमेंट भवन इस प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे आते हैं, क्योंकि इनके पास स्पेस की कमी होती है. रूफटॉप सौर ऊर्जा के बेहतरीन इस्तेमाल में बड़ी इमारतें ज्यादा प्रभावी होती हैं. हालांकि, रूफटॉप के लिए अतिरिक्त जमीन की जरूरत नहीं होती है. इसके लिए अतिरिक्त पावर इवेकुएशन इंफ्रास्ट्रक्चर की भी जरूरत नहीं होती है.
यह मौजूदा ग्रिड के तहत ही काम कर सकता है. यह ग्रिड के संपूर्ण बोझ में भी कमी लाता है और ट्रांसमिशन लाइन पर दबाव भी नहीं डालता. स्थानीय स्तर पर सौर ऊजार्र् का उत्पादन और उपयोग ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन के नुक़सान को भी कम करता है. भारत की बढ़ती जनसंख्या और बिजली की मांग को देखते हुए सौर ऊजार्र् की आने वाले समय में महत्वपूर्ण भूमिका होगी. हालांकि, रूफटॉप सौर ऊजार्र् की प्रगति अपेक्षाकृत धीमी है और ऐसा स्पष्ट नीति के अभाव में हो रहा है. सरकार को इस क्षेत्र में भी अध्ययन कर अपनी नीतियों में बदलाव करने की आवश्यकता है.
है चुनौती
दरअसल, भारत में सौर ऊजार्र् की क्षमता का पूर्ण दोहन करने के मामले में जो असल चुनौती है, वो हमारी सीमित विनिर्माण क्षमता है. हालांकि सरकार को सोलर विनिर्माण क्षेत्र से बहुत उम्मीदें हैं, जिसमें उसे उम्मीद है कि उत्पादन क्षमता बढ़ाने से इस क्षेत्र में बूम आ सकता है. इस क्षेत्र में मांग बढ़ने से जहां एक तरफ मैन्युफैक्चरिंग हब का निर्माण हो सकता है, वहीं दूसरी तरफ रोज़गार के सृजन में भी नई संभावनाएं पैदा होंगी.
इसमें कोई शक नहीं कि सौर ऊर्जा क्षमता में इजाफा करना भारत के लिए वक़्त की मांग है. सरकार द्वारा इसके इस्तेमाल के लिए सकारात्मक क़दम भी उठाए जा रहे हैं. लेकिन इसके कुछ पहलु ऐसे भी हैं, जो सरकार द्वारा रखे गए महात्वाकांक्षी लक्ष्यों पर सवाल खड़े करते हैं. सबसे पहले तो यह कि सौर ऊर्जा के क्षेत्र में पिछले चार-पांच वर्षों में केवल 4 गीगावाट ऊर्जा का उत्पादन हो सका है, उससे आने वाले पांच-छह वर्षों में 100 गीगावाट ऊर्जा के उत्पादन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? साथ में इस परियोजना के कुछ आलोचक ऐसे भी हैं,
जिनका मानना है कि इस परियोजना का फोकस केवल सौर ऊर्जा की क्षमता में इजाफे पर है, जबकि इसका मकसद उन लोगों तक बिजली पहुंचाना होना चाहिए, जिन लोगों तक अब तक बिजली नहीं पहुंच सकी है. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट से जुड़े चंद्र भूषण का मानना है कि अक्षय ऊर्जा उत्पादन का मकसद यह होना चाहिए कि अब तक जिन लोगों तक बिजली नहीं पहुंच सकी है, उन तक स्वच्छ बिजली पहुंचाई जाए, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया गया है.
बड़े लक्ष्य निर्धारित करने से यह सवाल भी उठता है कि कहीं इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपकरणों की गुणवत्ता के साथ समझौता न किया जाएगा. बहरहाल, सरकार को इस योजना के क्रियान्वयन की दिशा में में आगे बढ़ने से पहले इसकी संभावनओं का गहरा अध्यन करना चाहिए. बावजूद इसके हकीकत यह है कि भारत में ऊर्जा की मांग बढ़ी है और पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत को कम से कम 20 गीगावाट के पुराने लक्ष्य से अधिक सौर ऊर्जा उत्पादन करने की आवश्यकता है.