प्रो राज कुमार जैन ने ‘अगस्त क्रान्तिदिवस’ पर बहुत ज्ञान वर्धक लेख दिया है । ये सब ऐतिहासिक दस्तावेज हैं । पढ़िए
बम्बई के गोवलिया टैंक मैदान से लेकर दिल्ली के चाँदनी चौक घंटाघर एवं आचार्य नरेन्द्र देव की मूर्ति स्थल तक सोशलिस्टों की भागीदारी
प्रो॰ राजकुमार जैन
( जो साथी या जो लोग 9 अगस्त को भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन मानते हैं, जो चाहतें हैं कि 9 अगस्त को वहीं सम्मान मिले जो 4 जुलाई और 14 जुलाई को अमेरिका और फ्रांस में हासिल है, वे समाजवादी आंदोलन के वरिष्ठतम साथियों में एक प्रोफेसर राजकुमार जैन के इस लेख को ध्यान से पढ़ें और 9 अगस्त को लेकर अपने अपने जिलों में हुई घटनाओं और उसके भागीदारों को जैन साहब की तरह याद करें। याद रहे, इस वर्ष अंग्रेजों भारत छोड़ो की 78 वीं जयन्ती 9 अगस्त के अवसर पर हम आप अपने अपने घर पर लें स्वदेशी अपनाने का संकल्प जरूर लें
– सैकड़ों साल की गुलामी के खिलाफ़ कांग्रेस पार्टी के झण्डे के नीचे महात्मा गाँधी की रहनुमाई में अंग्रेज़ी सल्तनत के विरुद्ध जो संघर्ष चल रहा था, उसमें आखिर में वो दिन भी आ गया जिस दिन का इंतज़ार कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी दूसरे विश्वयुद्ध के आरंभ से कर रही थी कि गाँधी जी को जन-आंदोलन शुरू कर देना चाहिए, सोशलिस्ट इसके लिए लगातार गाँधी जी तथा कांग्रेस पर दबाव बना रहे थे। जयप्रकाश नारायण ने 9 अक्टूबर 1939 में ए.आई.सी.सी. की बैठक में जवाहर लाल नेहरू के प्रस्ताव के सामने एक संशोधन पेश करते हुए माँग की थी कि हमें तत्काल, जन आंदोलन छेड़ देना चाहिए, परंतु कार्यसमिति ने उनके संशोधन को प्रचंड बहुमत से खारिज कर दिया।
डॉ॰ लोहिया चाहते थे कि गाँधी जी सत्याग्रह का एलान करे। उन्होंने गाँधी जी को पत्र लिखकर आग्रह किया, परंतु गाँधी जी सत्याग्रह शुरू करने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने इसके दो कारण भी बताए, एक तो यह कि अभी समूचे देश ने अहिंसा को निष्ठापूर्वक स्वीकार नहीं किया है और दूसरा यह कि अभी देश में इसके लिए आवश्यक अनुशासन भावना नहीं आई है।
लोहिया ने गाँधी जी से आग्रह किया कि भारत की आज़ादी के लिए अब और इंतज़ार नहीं करना चाहिए। सत्याग्रह हर हालत में अब शुरू हो जाना चाहिए। गाँधी जी न तो लोहिया की सलाह से सहमत थे और न ही कांग्रेस की राय से, उन्होंने सत्याग्रह के संबंध में लोहिया से कहा -‘अभी नहीं’।
7,8, 9 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन बम्बई के गोवलिया टैंक मैदान में बनाए गए पंडाल में आयोजित किया गया। उस समय बम्बई के मेयर सोशलिस्ट नेता यूसुफ मेहर अली थे। कांग्रेस के सम्मेलन से पहले यूसुफ मेहर अली ने 1 अगस्त 1942 को बम्बई के चौपाटी मैदान पर ”तिलक जयन्ती समारोह” में जनता का आह्वान करते हुए खुले शब्दों में कहा कि बम्बईवासियों को आज़ादी की लड़ाई के अंतिम दौर के लिए तैयार होना है, जो न केवल जेल होगी, बल्कि अंग्रेज़ी राज को भारत से खत्म करने के लिए खुला विद्रोह होगा। उन्होंने कांग्रेस पार्टी के सम्मेलन होने से पहले सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं की कई बैठकें की, अगर महात्मा गाँधी तथा अन्य राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारियाँ हो तो हमें भूमिगत रहकर कैसे काम करना है। मेहर अली ने महात्मा गाँधी के आशीर्वाद से पदमा पब्लिकेशन नाम पर एक पुस्तिका ‘Quit India” प्रकाशित की, जिसकी हजारों प्रतियाँ हाथों हाथ बिक गई।
महात्मा गाँधी के बम्बई आगमन पर यूसुफ मेहर अली ने ही मेयर की हैसियत से उनका स्वागत किया। सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों के लिए यूसुफ ने एक बिल्ला बनवाया, जिसमें भारत का मान-चित्र बना हुआ था तथा उसके ऊपर क्यू. अर्थात् क्विट इण्डिया ‘भारत छोड़ो ‘ लिखा हुआ था जो कि चांदी के समान धातु का बना हुआ था, गाँधी जी को दिखाया। परंतु गाँधी जी ने कहा कि हिंदुस्तान की गरीब जनता चांदी की खरीदारी नहीं करती, इसलिए इसकी जगह ताम्बे की परत का बिल्ला बनवाओ। मेहर अली ने रातों-रात बिल्ले को तैयार करवाया, जिसे गाँधी जी ने पसंद किया। सम्मेलन के लिए एक वालिन्टयर कोर भी बनाई गई जिसके इंजार्च सोशलिस्ट नेता अशोक मेहता थे। यूसुफ मेहर अली पहले नेता थे जिसने ”साइमन कमिशन वापिस जाओ’ तथा ‘भारत छोड़ो’ नारा दिया था।
सम्मेलन की अध्यक्षता मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद कर रहे थे। जवाहर लाल नेहरू ने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पेश किया। सरदार पटेल ने इसका अनुमोदन किया। अन्य नेताओं के अतिरिक्त सोशलिस्ट नेता आचार्य नरेन्द्र देव, अच्युत पटवर्धन तथा डॉ॰ लोहिया ने प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया। डॉ॰ लोहिया ने प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा कि ‘पिछले कुछ महीनों से बरतानिया हुकूमत के प्रति कांग्रेस में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। भारत के लोगों को यह विश्वास हो गया है कि अंग्रेज़ी हुकूमत कोई अपराजेय नहीं है, जैसा कि पहले जनता को लगता था, अब जनता के दिलों में भय समाप्त हो गया है। सम्मेलन में कम्यूनिस्टों द्वारा प्रस्ताव के विरोध में कई संशोधन पेश किये गये थे। इसका विरोध करते हुए आचार्य नरेन्द्र देव ने कहा, ‘यह अफसोस की बात है कि अभी भी ऐसे लोग है जो संघर्ष के आखिरी दौर में भी कुर्बानी देने के लिए तैयार नहीं हैं। वे पहले भी नहीं थे, अब भी नहीं है। अच्युत पटवर्धन ने कम्यूनिस्टों द्वारा पाकिस्तान की माँग का विरोध करते हुए कहा कम्यूनिस्टों का यह कहना कि करोड़ो मुसलमान पाकिस्तान के पक्ष में है। वो यह क्यों नहीं कहते कि कई करोड़ इसके खिलाफ़ भी है। कम्यूनिस्ट कांग्रेस से तो यह अपील कर रहे है परंतु वे मुस्लिम लीग से क्यों नहीं करते।’
8 अगस्त की रात्रि में महात्मा गाँधी ने कांग्रेस प्रस्ताव पर बोलते हुए भारतवासियों का आह्वान करते हुए तीन बातें कही –
1 करो या मरो
2 अंग्रेजों भारत छोड़ो
3 आज से हर भारतवासी अपने को स्वतंत्र समझे। भारत को आज़ाद कराने के लिए अब वे अपने नेता स्वयं है।
मैदान में मूसलाधार बारिश हो रही थी। 50 हजार से ज़्यादा लोगों ने महात्मा गाँधी के संदेश को सुना। गाँधी जी के भाषण से मैदान में मानों भूचाल सा आ गया।
9 अगस्त की सुबह गाँधी जी सहित सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। एक तरफ नेताओं की धर पकड़ चल रही थी, वही तय कार्यक्रम के अनुसार 9 अग्स्त की सुबह सोशलिस्ट नेता अरुण आसफ अली ने बेखोफ होकर कीचड़ से भरे सभा स्थल पर जाकर सम्मेलन की अध्यक्षता की घोषणा करके राष्ट्रीय झण्डा फहरा दिया। गिरफ्तारियों के विरोध में पूरे देश में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। जगह-जगह रेल पटरियाँ उखाड़ी गयी, डाकखाने जलाए गए, आवागमन की व्यवस्था भंग कर दी, थाने और कचहरियों पर हमले किये गये। बलिया (पूरा उत्तर प्रदेश) मिदनापुर (बंगाल) तथा सतारा (महाराष्ट्र) स्वतंत्र घोषित कर दिये गये जहाँ पर समानांतर सरकारें स्थापित कर दी। बड़े शहरों में विशाल प्रदर्शन हुए । सैकड़ों गांवों में लोगों ने पुलिस के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोह को दबाने-कुचलने के लिए सरकार ने सेना की सहायता भी ली। यहाँ तक कि कुछ स्थानों में बमबारी भी की गई। बर्बरता तथा दमन के कारण लाखों भारतीयों को जेल में ठूस दिया गया तथा लगभग 25000 लोगों की जान गई।
बम्बई के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी उसमें विचार का प्रमुख विषय था कि आगामी संघर्ष का रूप क्या हो, जो लोग 9 अगस्त की गिरफ्तारी से बच गए थे, उन्होंने भूमिगत होकर दृढ़संकल्प के साथ आंदोलन को चलाने की योजना को अंतिम रूप दिया। सोशलिस्ट नेता डॉ॰ राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, रामानंदन मिश्र, पुरुषोत्तम विक्रमदास, एस.एम. जोशी तथा उषा मेहता, अरुण आसफ अली तथा जयप्रकाश नारायण जो कि हज़ारीबाग जेल की ऊंची दीवार फांद कर बाहर आ गए थे ने भूमिगत आंदोलन को संचालित किया। वस्तुत: भूमिगत आंदोलन कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के द्वारा ही लड़ा गया। इनकी नीति थी ‘न हत्या न चोट’ । जयप्रकाश नारायण सशस्त्र संघर्ष की तैयारी में भी जुटे थे, परंतु व्यक्तिगत आतंकी कार्यवाही से बचा जा रहा था। पुराने क्रांतिकारियों की गुप्त नीतियों को पुन: अमल में लाया जा रहा था । इसके लिए सरकारी संचार माध्यमों को बड़े स्तर पर बाधित किया गया। डॉ॰ लोहिया का कहना था कि थाना-पुलिस स्टेशन ब्रिटिश राज की धमनियां है तथा क्रांतिकारी जनता को इन केंद्रों को ध्वस्त कर देना चाहिए।
इधर, गिरफ्तारियों के साथ ही अंग्रेज़ी हुकूमत ने समाचार पत्रों की आज़ादी का गला घोंट दिया था तथा संघर्ष से जुड़े समाचारों पर प्रतिबंध लगा दिया। इसका मुकाबला करने के लिए सोशलिस्ट क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता संग्राम के समाचार देने के लिए ‘रेडियो केंद्र’ स्थापित किया जिसका संचालन उषा मेहता, डॉ॰ राममनोहर लोहिया, विट्ठलदास खोकर, विट्ठल जवेरी, चन्दकात इत्यादि कर रहे थे।
जयप्रकाश नारायण, डॉ॰ राममनोहर लोहिया सशस्त्र क्रांति के लिए भेष बदलकर नेपाल की सीमा में चले गए। वहाँ पर इन्होंने ‘आज़ाद दस्ते’ का निर्माण किया, परंतु अंग्रेज़ सरकार को इसकी भनक लग गई थी, उन्होंने नेपाली शासकों से कहकर नेपाली पुलिस द्वारा गिरफ्तार करा लिया। परंतु आज़ाद दस्ते ने हथियारों के बल पर इनको आज़ाद करवा लिया। हालाँकि इस बीच गोली चलने से इन दोनों नेताओं की जान जाने से बची।
इधर,अगस्त क्रांति आंदोलन 9 अगस्त की क्रांति की लपटें पूरे हिंदुस्तान में धधक उठीं। दिल्ली में भी 9 अगस्त को जबरदस्त संघर्ष हुआ।
दिल्ली के पुराने सोशलिस्ट नेता मरहूम रूपनारायण जी, जो कि जयप्रकाश नारायण के दिल्ली में सबसे प्रमुख साथियों में थे, जो बम्बई के गोवालिया टैंक मैदान की सभा में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव तथा एक प्रतिनिधि की हैसियत से हिस्सा लिए थे, जो आज़ादी के आंदोलन में चार बार लम्बे समय तक अंग्रेजों की जेल में रहे, उनकी माता जी श्रीमती शर्बती देवी, बड़ी बहन श्रीमती गुणवती देवी एवं छोटी बहन श्रीमती शांति देवी वैश्व भी सत्याग्रह करते हुए जेल गई थीं, के अनुसार 9 अगस्त 1942 की सुबह दिल्ली के सभी कांग्रेसी नेता लाला देशबंधु गुप्ता, मौलाना नुरुद्दीन बिहारी सोशलिस्ट नेता मीर मुश्ताक अहमद, इमदाद साबरी (सोशलिस्ट) श्रीमती मेमोबाई लाला हनुमंत सहाय, डॉ॰ युद्धवीर सिंह बेरिस्टर फरीद-उल हक अन्सारी (सोशलिस्ट) आदि गिरफ्तार कर लिए गए।
फिर भी कांग्रेसी कार्यकर्त्ता टोलियां बनाकर शहर में घूमते रहे । दिल्ली में पूरी हड़ताल रही। सब कारोबार बंद हो गए। मिल मज़दूरों ने भी हड़ताल कर दी। दिल्ली कांग्रेस कमेटी के दफ्तर पर पुलिस ने कब्जा कर लिया वहाँ ताले लगा दिये गये। 10 अगस्त को एक बहुत बड़े जुलूस का आयोजन हुआ। इस जुलूस को तितर बितर करने के लिए पुलिस ने लाठी-चार्ज किया जिसमें अनेक लोग घायल हो गए। कांग्रेस के भूमिगत नेताओं ने निर्णय किया कि 11 अगस्त की सुबह 9 बजे चाँदनी चौक घंटाघर के नीचे प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष हकीम खलील-उर-रहमान राष्ट्रीय झण्डा फहरायेंगे। यह खबर पूरे शहर में आग की तरह फैल गई। निर्धारित समय पर पुलिस ने चारों ओर से घन्टाघर को घेर लिया ताकि हकीम साहब वहाँ न पहुँच सके। इसके बावजूद सैकड़ों की संख्या में कांग्रेस कार्यकर्ता घन्टाघर के आसपास जमा हो गए हकीम साहिब के आने का इंतज़ार करने लगे। समय आहिस्ता-आहिस्ता बीत रहा था। 9 बजने वाले थे लेकिन निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार राष्टीय झण्डा फहराने के लिए हकीम साहब उपस्थित नहीं थे। प्रतीक्षा करते कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और आम लोगों में घबराहट फैलने लगी। सबके सामने प्रश्न यह था कि इतनी बड़ी संख्या में पुलिस की मौजूदगी में हकीम साहब घंटाघर तक पहुँचेंगे कैसे?
उन दिनों परदानशीं औरतों या मरीजों के लिए डोलियों का प्रबंध रहता था। उपस्थित लोगों ने देखा कि ऐसी ही एक डोली फव्वारे की ओर से चली आ रही है। पुलिस और उपस्थित लोगों ने यह समझा कि इस डोली में कोई परदानशीं औरत आ रही है, इसलिए पुलिस ने इस डोली को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। घंटाघर के ठीक नीचे वह डोली रुक गई। उसमें से परदा हटाकर हकीम साहब बाहर निकल आये। उनके हाथ में राष्ट्रीय झण्डा था। हकीम साहब ने पहले ही सब कुछ समझ लिया था कि घंटाघर पहुंचकर उन्हें क्या करना है, हकीम साहब को देखकर चारों ओर के कांग्रेसी कार्यकर्ता और आम लोग हकीम साहब को घेकर खड़े हो गए पुलिस भौंचक्का हो यह सब देखती रही। हकीम साहब ने एक मेज पर खड़े होकर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की सार्थकता पर एक अत्यंत ही जोशीला भाषण दिया। उस भाषण के बाद लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ़ नारे बुलंद कर दिये। कुछ क्षण पश्चात् हकीम साहब झण्डा लिए हुए फतेहपुरी मस्जिद की ओर बढ़े तो उनके पीछे हजारों लोगों की भीड़ भी चली। मस्जिद के बाहर बहुत बड़ी संख्या में मौजूद पुलिस ने हकीम साहब को गिरफ्तार करने की कोशिश की, लेकिन भीड़ ने उन्हें गिरफ्तार नहीं होने दिया। पुलिस ने लोगों पर जबरदस्त लाठी चार्ज किया तो लोगों ने जबाव में पत्थर फेंकने शुरू कर दिये। अंत में पुलिस ने हकीम साहब को गिरफ्तार कर उन्हें कोतवाली पहुँचा दिया। हजारों उपस्थित लोगों की भीड़़ पुलिस की लाठियों से बचने के लिए घंटाघर की और वापिस लौटने लगीं। घंटाघर पर पुलिस ने इन लोगों पर लाठियां चलाई। जवाब में लोगों ने घंटाघर के सामने स्थित दिल्ली म्यूनिसिपल कमेटी के कार्यालय में आग लगा दी, क्रुद्ध भीड़ ने वहाँ खड़ी दो ट्रामों में भी आग लगा दी, चांदनी चौक के डाकघर पर भी हमला बोला गया। भीड़ को तितर बितर करने के लिए घुड़ सवार सिपाहियों का उपयोग किया गया। सब तरफ सरकारी संपत्ति को नष्ट किया गया जा रहा था। लोगों की भीड़ पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई, जिसमें अनेक लोग मारे गए और बहुत से लोग जख्मी हुए। रेलवे स्टेशन के सामने एक पेट्रोल पंप में भी आग लगा दी गई। उस समय की दिल्ली में एकमात्र आठ मंजिली ऊंची इमारत जिसे ‘पीली कोठी’ के नाम से जाना जाता है, उसमें रेलवे का दफ्तर था, में भी भीड़ ने आग लगा दी। पीली कोठी जलाने वाली भीड़ में सोशलिस्ट नेता बाल किशन ‘मुजतर’ भी थे, जिनके साथ कालीचरण किशोर और पंजाब के मशहूर सोशलिस्ट नेता रनजीत सिंह मस्ताना भी थे। इस जगह पर पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई, जिसमें दो व्यक्ति मारे गए जिस अफसर ने गोली चलाई थी, उसको लोगों ने घेरकर पत्थरों से वहीं मार डाला। शाम 7 बजे के पश्चात् दिल्ली नगर को अंग्रेज़ फौज के सुपुर्द कर दिया गया। 11, 12, 13 अगस्त को फौज ने लगभग 50 स्थानों पर गोलियां चलाई। 150 से अधिक लोग मारे गए और 300 से अधिक व्यक्ति जख्मी हुए।
सोशलिस्ट नेता ब्रजमोहन तूफान बताते थे कि हमने अपने कालिज हिंदू कालिज से एक जुलूस निकाला जो कश्मीरी गेट से शुरू होकर चांदनी चौक पहुँचा जुलूस ज्योंहि पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुँचा चारों तरफ सरकारी इमारतों में आग लगी हुई थी, धुआं ही धुआं निकल रहा था। नई सड़क के पास हमारे जुलूस के सामने गुरखा बटालियन का एक जत्था पहुँच गया। चारों ओर ‘महात्मा गाँधी जिंदाबाद’ के नारे लग रहे थे। इतनी देर में पुलिस द्वारा बर्बरतापूर्ण लाठी चार्ज शुरू कर दिया गया, जिसके कारण बहुत सारे लोगों के सिर फट गए, हडिड्यां टूट गई। घर की छतों से लोग पत्थर फेंक रहे थे, कुछ ही क्षणों के बाद सशस्त्र पुलिस दल भी वहाँ पहुँच गया, हम किसी तरह सिर पर हाथ रखकर वहाँ से निकले।
पुरानी दिल्ली में चारो तरफ आंदोलनकारी और पुलिस फौज में संघर्ष हो रहा था, नई दिल्ली के कनाट पैलेस में भी महात्मा गाँधी जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। 10 अगस्त 1942 को रॉबर्ट टोर रसेल के डिज़ाइन किये कनाट प्लेस में भी अंग्रेजों के स्वामित्व वाली दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया था। सुबह से ही सभी उम्र के दिल्ली वाले कनाट प्लेस में इकट्ठा होने शुरू हो गए, इनमें से ज्यादातर खादी का कुर्ता-पायजामा पहने हुए थे। उन दिनों कनाट प्लेस में गोरों और आयरिश लोगों की अनेक दुकानें थीं तब कनाट प्लेस गोरों का गढ़ था। भीड़ ने सबसे पहले ‘रैकलिंग एण्ड कंपनी’, ‘आर्मी एण्ड नैवी’, ‘फिलिप्स एण्ड कम्पनी’ और ‘लॉरेंस एण्ड म्यों नामक शो रूमों को फूंका। ”रैकलिंग एण्ड कम्पनी जो कि एक हिन्दुस्तानी की थी, अंग्रेज़ी नाम होने के कारण आंशिक रूप से जल गई। हैरानी की बात है कि आंदोलकारियों ने कनाट प्लेस में चीनी मूल के तीन शोरूम ‘डी. मिनसन एण्ड कम्पनी’, ‘चाइनीस, आर्ट सेंटर’ और ‘जॉन ब्रदर्श’ को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया। दिल्ली में आंदोलन का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद, हकीम अजमल खां, डॉ॰ मुख्तार अहमद अंसारी, बैरिस्टर आसिफ अली, लाला शंकर लाल, बहन सत्यवती (सोशलिस्ट), कृष्ण नायर (सोशलिस्ट) और अरुणा आसफ अली (सोशलिस्ट) कर रहीं थीं।
9 अगस्त को शुरू हुए आंदोलन में देश भर में हजारों लोगों ने अपनी जानें गवाई। सालों जेल की यातनाएं सही, अपना घर-बार सब कुछ लुटा दिया। उसके बाद हमको आज़ादी प्राप्त हुई।
अगस्त आंदोलन प्रमुखत: सोशलिस्टों द्वारा लड़ा गया था। इसलिए 9 अगस्त 1942 से लेकर आज तक हिंदुस्तान में जगह-जगह इस दिवस की याद में सोशलिस्ट यादगार दिवस के रूप में मनाते रहे है। सोशलिस्टों के लिए 9 अगस्त का बहुत महत्व है।
डॉ॰ राममनोहर लोहिया ने इस पर प्रकाश डालते हुए 9 अगस्त, 15 अगस्त तथा 26 जनवरी के इन दिवसों की ऐतिहासिकता अहमियत पर रोशनी डालते हुए अगस्त 1967 के अपने एक लेख में 9 अगस्त 1942 की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर लिखा था, कि इसे अच्छे तरीके से मनाया जाना चाहिए। इसकी पचासवीं वर्षगांठ इस प्रकार मनाई जाएगी कि 15 अगस्त भूल जाए, बल्कि जनवरी भी पृष्ठभूमि में चली जाए या उसकी समानता में आ जाए। 26 जनवरी और 9 अगस्त एक ही श्रेणी की घटनाएँ है। एक में आज़ादी की इच्छा की अभिव्यक्ति थी और दूसरी ने आज़ादी के लिए लड़ने का संकल्प करवाया।
डॉ॰ लोहिया 9 अगस्त 1942 के दिन को जनता की महान घटना मानते थे तथा उनकी मान्यता थी कि वह हमेशा बनी रहेगी। 9 अगस्त तथा 15 अगस्त में तुलना करते हुए उन्होंने लिखा कि पंद्रह अगस्त राज्य की महान घटना थी, क्योंकि उस दिन ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड माउंटबैटन ने भारत के प्रधानमंत्री के साथ हाथ मिलाया था और क्षतिग्रस्त आज़ादी देश को दी थी। क्षतिग्रस्त आज़ादी से लोहिया का इशारा अंग्रेजों द्वारा सोची समझी चालाकी से हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रूप में भारत के टुकड़े करके 15 अगस्त को, हिंदुस्तान को आज़ाद करने की घोषणा से था।
15 अगस्त से ज्यादा महत्व डॉ॰ लोहिया 9 अगस्त को इसलिए देते थे क्योंकि 9 अगस्त को वे जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति मानते थे। हमें आज़ादी चाहिए और हम आज़ादी लेंगे। उनका कहना था कि हमारे लंबे इतिहास में पहली बार करोड़ों लोगों ने आज़ादी की अपनी इच्छा ज़ाहिर की। डॉ॰ लोहिया 9 अगस्त को जनता का दिवस तथा 15 अगस्त राज्य का दिन मानते थे। जिन लोगों ने आज़ादी लाने के लिए कुर्बानी दी उनको याद करने के लिए 9 अगस्त का दिन सबसे पवित्र दिन है।
डॉ॰ लोहिया ने अपनी मान्यता के पक्ष में दुनिया के इतिहास से दो उदाहरण भी दिये। जो कि सारी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। 14 जुलाई को फ्रांस के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि उस दिन फ्रांस की राजधानी पैरिस में लाखों लोगों ने बस्टिलें की जेल को तोड़कर उन सारे कैदियों को छुड़ाया जिन्हें फ्रांस के बादशाह ने बंद कर रखा था। दूसरे उदाहरण में डॉ॰ लोहिया 4 जुलाई के दिन को देते है, उस दिन अमेरिकी जनता ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में अपनी आज़ादी की घोषणा की थी। डॉ॰ लोहिया का मानना था कि 14 जुलाई और 4 जुलाई की तरह 9 अगस्त भारत के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन है।
1942 से लेकर अभी तक दिल्ली के सोशलिस्ट बड़ी शिद्दत के साथ 9 अगस्त के दिवस को मनाते चले आ रहे है। हमारे नेता बताते थे कि 1942 से लेकर 1970 के आसपास के वर्षों में अधिकतर वे सोशलिस्ट नेता कार्यकर्त्ता शामिल होते थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया होता था। इनमें अरुणा आसफ अली, चौधरी ब्रह्म प्रकाश (दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री) और मुश्ताक अहमद चीफ एक्जीक्युटिव (मुख्यमंत्री के समान) लाला रूपनारायण, ब्रजमोहन तूफान, राजेन्द्र सच्चर (भू.पू. मुख्य न्यायाधीश दिल्ली हाई कोर्ट ) इत्यादि के अतिरिक्त वे सोशलिस्ट स्वतंत्रता सेनानी जो कि पंजाब सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे तथा उस समय वे पाकिस्तान में रहते थे। आज़ादी के बाद 1947 में वे पाकिस्तान से आकर दिल्ली में बस गए थे। वे 9 अगस्त के कार्यक्रम में बड़े उत्साह के साथ भाग लेते थे। उनमें से कई नेता कभी-कभी तो बहुत सारे नियमित रूप से शिरकत करते थे जैसे मरहूम श्री धर्मपाल चौपड़ा जिन्होंने आज़ादी की जंग में दो साल की कैद काटी थी। श्री विश्वनाथ दर्द (9 महीने का कारावास) श्री सतपाल चौपड़ा (दो साल कारावास), ग्यान सिंह बीर ( चार साल 10 महीने की सजा काटी) इन्द्रप्रकाश आनंद (दो साल का कारावास) सोमदत्त शर्मा रसाल 3 महीने की सजा, राज किशोर कपूर 1932 में गिरफ्तार हुए, महेन्द्रपाल दत्ता, होशियारपुर तथा जालंधर जेल में बंद थे। बनारसीदास रंचक (3 साल 4 महीने), प्यारे लाल गुप्ता (कई महीने जेल में) जोगेन्द्र नाथ साहनी (3 साल 2 महीने), चिंतामणि कपूर, रवेल सिंह कोहली, संतलाल आज़ाद, संतोष सखहराई, रघुवंश सरहदी, बंशीलाल, नरेन्द्रनाथ दत्ता, ईश्वरदास खन्ना (भू.पू. कौंसलर दिल्ली म्यूनैस्पेलटी) जसवंत सिंह एडवोकेट, केवल कृष्ण वडेरा, द्वारकानाथ मल्होत्रा, पहले मुल्तान जेल तथा बाद में बोस्टल जेल में बंद रहे थे। भाग लेने वालों में न्यायाधीश हरवंश लाल आनंद, वशेसर नाथ, बंशीलाल, प्रताप सिंह सेठी, प्रेमलाल भाटिया इत्यादि भी होते थे। डॉ॰ स्वरूप सिंह (दिल्ली विश्वविद्यालय के भूतपूर्व वाइस चांसलर), अनवर अली देहलवी (भू.पू. विधायक) रामशरण नगीना जो कि सरहदी गाँधी खान बादशाह के सेकेट्ररी रहे थे, गोविन्द सिंह झण्डेवाला (जो कि हर स्थान पर सोशलिस्ट पार्टी का झण्डा लेकर जाते थे) रामशरण चौहान, आसफ अली, दिल्ली के एक गाँव ज्वाला हेड़ी जो कि अब एक बड़ा व्यवसायिक केंद्र बन गया है, प्रतिष्ठित संपन्न परिवार के चार भाई रामनारायण यादव, रामसिंह यादव, बलवीर यादव, श्री यादव जी की दिल्ली के सोशलिस्ट आंदोलन में बड़ी भूमिका रही है। समय समय पर वे घंटाघर की सभा में भाग लेते रहे है। उनसे कई रोचक किस्से जुड़े हुए है। बताते है कि एक बार बलबीर यादव जी कनाट प्लेस के मशूहर रेस्टोरेन्ट गेलार्ड में काफी पीने के लिए गए थे। वो खद्दर का साधारण-सा कुर्ता-पायजामा पहने हुए थे उनकी वेश-भूषा को देखकर रेस्टोरेन्ट वालों ने उनको गेट पर अंदर जाने से रोक दिया, क्योंकि गेलार्ड में उच्च संभ्रान्त वर्ग के लोग ही जाते थे। बलवीर यादव जी ने रात्रि को यह बात अपने बड़े भाई रामनारायण जी को बताई। अगले दिन रामनारायण जी ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से 10-15 कुलियों को जो कि सोशलिस्टों की ‘ऑल इण्डिया रेलवे मैन्स यूनियन’ के सदस्य थे, को तांगे, रिक्शा में बैठाकर लाए और गेलार्ड रेस्टोरेंट घुस गए। रामनारायण जी ने 10 हजार की एक गड्डी मैनेजर की टेबल पर रख कर कहा कि हमारे ये साथी जो भी खाना पीना चाहे इनकी सर्विस करो, और एक बात का ध्यान रखना कि कोई बेअदबी न हो वरना पुलिस भी तुम्हें बचा नहीं पाएगी। वहाँ पर शहर का एक बड़ा अफसर भी मौजूद था, जो रामनारायण जी को पहचानता था, उसने फौरन मैनेजर के कान में बता दिया कि इनसे पंगा मत लेना, मैनेजर ने फौरन रामनारायण जी से माफी माँग कर मामले को रफा दफा किया, रामनारायण जी ने कहा भले लोगों, कपड़ों को देखकर किसी का कभी अपमान नहीं करना। खालिक ‘जापान वाला’ पं॰ हरस्वरूप शर्मा (जो कि दिल्ली में रेहड़ी, पटरी, खोंचा यूनियन के अध्यक्ष, दिल्ली के नये बाज़ार के व्यापारी बंधु रामसिंह, राधेश्याम, शंकर दास रोज (अध्यक्ष सोशलिस्ट पार्टी) भवानीदास ‘हिंदी’ (अध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी) बिहारी लाल आज़ाद (अध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी) मास्टर नरुद्दीन मजदूर नेता सी.पी. अग्रवाल जिन्होंने दिल्ली में पुलिस यूनियन, राष्ट्रपति भवन के कर्मचारियों तथा दिल्ली की प्रथम नर्स यूनियन बनाई थी, बिहारी लाल आज़ाद (अध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी दिल्ली), चंद्रशेखर (भू.पू. प्रधानमंत्री जब 1962 में सोशलिस्ट पार्टी के राज्यसभा के सदस्य बनकर दिल्ली में रहते थे, इस आयोजन में भाग लेते थे।
गत 50 वर्षों से मैं इस आयोजन से जुड़ा हूँ, इसकी अनेकों स्मृतियाँ मेरे मानस में समायी हुई है। बहुत सारा जोश, उमंग तथा साथीपन की भावना इससे जुड़ी हुई है। मुझे याद आता है कि जब सोशलिस्ट साथी नारा लगाते हुए पहुँचते थे तो ऐसा लगता था कि अब हम दिल्ली को फतह कर लेंगे।
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में बी.ए. का छात्र था, उस समय दिल्ली में सोशलिस्ट, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने कम्पनी बाग में गाँधी जी की मूर्ति के सामने सुबह-सुबह इकट्ठा होने शुरू हो जाते थे, क्योंकि मेरा घर बहुत पास में ही था, तो मैं और मेरे साथी, मरहूम चन्दमोहन भारद्वाज, मरहूम नंदकिशोर वर्मा, जयकुमार जैन, पहले पहुँचने वालों में होते थे।इसके बाद दिल्ली देहात के सोशलिस्ट पहुँचते थे। उन दिनों आवागमन के लिए केवल डी.टी.सी. की बस सेवा से, साइकिल या पैदल चलकर ही आना होता था। हैदरपुर गांव के चौधरी मेहर चंद यादव, बादली गांव से रामगोपाल सिसोदिया, मलस्वा गांव से चौ. लायक राम ज्वाला हेडी गांव से श्री यादव उजवा गांव से मा. प्रीतम सिंह, बवाना से मेहर सिंह डबास इत्यादि अपने-अपने गांवों से पहली बस से जो सुबह पाँच बजे चलती थी, उससे कम्पनी मैदान पहुँचते थे।
दिल्ली के उस समय के प्रमुख नेता रूपनारायण, ब्रजमोहन तूफान, सॉवलदास गुप्ता, मोहम्मद इदरीश, सूरजभान गुप्ता, कुन्दर लाल, जोड़ला इत्यादि होते थे। जब सारे साथी इकट्ठा हो जाते थे तो सबसे पहले बड़ी कड़क आवाज़ में दिल्ली के नेता कुन्दन लाला जोड़ला ‘महात्मा गाँधी अमर रहे’ अमर रहे का नारा लगाते थे। उसके बाद ‘इन्कलाब जिंदाबाद’, ‘गाँधी, लोहिया, जयप्रकाश जिंदाबाद जिंदाबाद, अगस्त के शहीदों को भूलो मत, भूलो मत, का नारा करीब 7-8 मिनट तक लगातार लगाते। अगर समय से महेन्द्र पालदत्ता पहुँच जाते थे तो फिर वो बुलंद आवाज़ में तब तक नारे लगाते जब तक उनका गला जवाब नहीं दे देता था। जोड़ला जी के बाद नारा लगाने की मेरी बारी आती थी। उसके बाद जुलूस नारे लगाता हुआ, चाँदनी चौक घंटाघर पर पहुँचता था। जहाँ पर दिल्ली में पहली बार संघर्ष शुरू हुआ था। घंटाघर पर जुलूस सभा में परिवर्तित हो जाता था, सभा स्थल पर तब तक सोशलिस्ट पार्टी दिल्ली के सिद्दकी बिल्डिंग बाड़ा हिंदुराव के पार्टी दफ़्तर के सहायक साथी गोविंद सिंह झण्डा, बैनर पर्चे लेकर पहुँच जाते थे तथा बैनर इत्यादि लगा चुके होते थे। कई ऐसे साथी, जो शुरू में नहीं पहुँच पाते थे, वहाँ शामिल हो जाते थे।
उस समय के दिल्ली के हमारे सबसे झुंझारू नेता मरहूम सांवलदास गुप्ता जी (भू.पू. विधायक) जिनके नेतृत्व में दिल्ली के सोशलिस्ट लगातार जूल्मों गैर बराबरी के खिलाफ़ सड़कों पर संघर्ष करते हुए जेलों में जाते रहते थे, वे जब घंटाघर की सभा में पहुँचते थे तो दूर से ही पता चल जाता था कि गुप्ता जी का दस्ता आ रहा है। गुप्ता जी के साथ बड़ी तादात में कार्यकर्त्ता होते थे, जोर-जोर से नारे लगाते रहते थे। उनके साथ आने वालों में प्रमुख रूप से मास्टर बालकिशन, शोभा कांत झा, सनद सेठ, सुदर्शन राही, डॉ॰ सलीमन, प्रेम सुन्दिर याल, रफीक अहमद, महबूब लारी, जी. राम विद्याशंकर सिंह, छोटे लाल कंजर मास्टर मदनमोहन दिवाकर जो कि उस समय के दिल्ली स्कूल शिक्षक संघ के सचिव होते थे। दिल्ली के शिक्षकों में उनका बड़ा नाम था। साथी मुकुन्द, भाई पारिख का भी निराला व्यक्तित्व था, लंबे-लंबे बाल सदैव साइकिल से चलते थे। साइकिल के पीछे स्टेंड पर बडा भारी सा कागज़ का बंडल जो रस्सी से बंधा होता था, जिसमें वो गरीबों के लिए संघर्ष करने के विरोध पत्र, कोर्ट में दायर याचिकाएं, भूख हड़ताल, अनशन वगैरह का ब्यौरा रखते थे। 20 मील साइकिल चलाकर पहुँचते थे। तेजेन्द्र वाजपेयी, रमेश शर्मा, ज्ञान गुप्ता, ब्रह्म कुमार, मामचंद रिवाडिया, गुप्ता जी के टोले में शामिल हो जाते थे।
सरदार थान सिंह जोश के साथ सरदार तेजा सिंह, गुरुदेव सिंह, जागीर सिंह तथा हरभजन आहूजा, हृदय रतन वाजपेयी, राम सिंह जेदिया नारा लगाते हुए पहुँचते थे। चाँदनी चौक की इस सभा में हमारे बुजुर्ग, ज्ञानी रतन सिंह उनके सुपुत्र जसवीर सिंह, सुभाष भटनागर, विजय प्रताप, रमाशंकर सिंह, सुरेन्द्र शील, रविन्द्र मिश्रा, ललित गौतम, रविन्द्रर मनचन्दा, प्रो॰ विनोद प्रसाद सिंह, प्रेम मायर, रघुवीर सक्सेना, ए.बी. आनंद, चंद्रशेखर मिश्रा, देशराज प्रेम, गुलशन खन्ना, गौरीशंकर मिश्रा, प्रो॰ हरभगवान मेंहदीरत्ता, के.पी; शोषित, नानकचंद अग्रवाल, प्रभु चौधरी, प्राण सब्बरवाल, रतिराम, रमेश अग्रवाल (सचिव, हिंद मजदूर सभा), सुशील शर्मा, एस.के. सक्सेना, विद्याशंकर सिन्हा, खेमचंद वर्मा सरदार चरणपाल सिंह, ठाकुर शोभा राम, प्रो॰ ईश्वरप्रसाद, ओ.पी. मालवीय (एडवोकेट) प्रो॰ प्रदीप बोस, डॉ॰ राजसिंह राणा, रतिराम, सुशील आनंद, सुशील भटनागर, डॉ॰ मान्धाता ओझा, बालकिशन यादव, ईशरत अली अंसारी, आर.एन. मेहरोत्रा, (भू.पू. हाई कोर्ट जज), संतोख सिंह एडवोकेट, सुखन लाल, (मजदूर नेता), सागर अहलवालिया, सुधीर गोयल, रजनी कांत मुद्गल, हीरालाल नानक चंद कटारिया, अशोक मलिक, राम बाबू, पं॰ रामानंद शर्मा, तीर्थ राज सिंह चौहान, रवि नैय्यर, पारसनाथ चौधरी, रमेशचंद धिन्डियाल, मनोहर लाल (वकील), शशिभूषण खन्डूरी, हीरालाल, रमाकांत पांडेय, ब्रजमोहन भारद्वाज पहुँचते थे।
साथी रघुवीर सिंह कपूर (भू.पू. सदस्य, दिल्ली नगर निगम) की विशेषता थी कि वे हमेशा अपने नाम का अलग से बैनर सभा में लगाते थे, और कई बार खुद ही नारा लगाते और उसका जबाव भी खुद देते थे। वो दिल्ली में संघर्ष करके जेल जाने वालों की टीम में सदैव शामिल रहते थे। इसी तरह हमारे साथी मदन लाल हिंद जी है, जो न केवल स्वयं जेल जाते थे, कई बार अपनी माता जी को भी प्रदर्शन में शामिल कर जेल ले जाते थे। घंटाघर की सभा में उस समय के नौजवान साथी महेन्द्र शर्मा (हिंदी मजदूर सभा के नेता) बाबू लाल शर्मा, (गाँधी पीस फाउन्डेशन), प्रो॰ रामारमन एक साथ पहुँचते थे। बाड़ा हिंदुराव से एक टोला, मौहम्मद इदरीश, रफीक अहमद, आसिफ अली, अब्दुल रशीद, ताहिर हुसैन, बरकत खान तथा अन्य साथियों के साथ आता था।
सभा की अध्यक्षता, ब्रजमोहन तूफान, अथवा रूप नारायण जी करते थे। उस समय के कई राष्ट्रीय नेता भी भाषण देने के लिए समय-समय पर आते रहते थे। मधु दण्डवते, सुरेन्द्र मोहन, राजेन्द्र सच्चर भी भाग लेते थे, डी.डी. वशिष्ठ, सूरजभान गुप्ता, सावलदास गुप्ता तथा दिल्ली के बाहर से उस दिन आए हुए सोशलिस्ट नेता 9 अगस्त की महत्ता पर प्रकाश डालते थे। सभा में उपस्थित, साथियों को तूफान साहब के भाषण का इंतज़ार रहता था, अंत में तूफान साहब के, तूफानी भाषण में बीच-बीच में जोर से नारे लगने शुरू हो जाते थे। घंटाघर के आसपास के नागरिक भी भाषण सुनने के लिए खड़े हो जाते थे। सभा स्थल पर एक आकर्षण का केंद्र सरदार पूर्णसिंह होते थे। जो हमेशा लाल रंग की पगड़ी पहनते थे, एक लंबा कुर्ता, जो कि काले रंग का होता था तथा उस पर लाल तथा सफेद पेंट से स्थायी रूप से पुलिस जुल्म के खिलाफ़ सामने आगे-पीछे लिखा रहता था तथा उनके हाथ के डंडे में लाल रंग का झण्डा लहराता रहता था। बड़ी मुस्तैदी से खड़े रहते थे। उस वक्त के जोश और मंजर को कभी भूलाया नहीं जा सकता।
सभा की समाप्ति पर देर तक नारे लगते रहते थे । सभा समाप्त होने पर सामने ही घंटाघर पर एक चाय का ठेला, आशाराम चाय वालों का खड़ा होता था। उनकी चाय के चर्चे उस समय दिल्ली में मशूहर थे। 24 घंटे वहाँ पर कार्य चलता था । पुलिस वालों को वो आधे पैसे में चाय देते थे, ठेले पर एक समय में 20 गिलास चाय एक साथ तैयार होती थी। एक आदमी, अंगीठी पर चाय का पानी उबालता था, एक गिलास में चीनी डालता था, एक आदमी बड़े से लौटे से दूध गिलासों में डालता था, एक आदमी चाय को मिलाकर ग्राहकों को देता था, सभी साथी चाय के ठेले पर पहुँच जाते थे । उस समय रस तथा मट्ठी भी बिकती थी, कुन्दर लाल जोड़ला जी दिल्ली के ऐसे समाजवादी नेता थे जो नारे लगाने में भी अव्वल रहते थे तथा चाय, मट्ठी रस का भुगतान भी वही करते थे, और साथ ही घंटे वाले की दुकान से बर्फी भी मंगवाते थे। सिद्दकी की बिल्डिंग बाडे के पार्टी के आफिस में जितनी बार मीटिंग होती थी, वे खुशी-खुशी दावत देते रहते थे।
अब से लगभग 20 वर्ष पूर्व तक यह सिलसिला चलता रहा। परंतु दिल्ली प्रदेश कांग्रेस को एकाएक 9 अगस्त की याद आई, सोशलिस्टों के भाषणों को कई स्थानीय कांग्रेसी भी सुनते थे। हो सकता है कि उन्हीं के कहने पर जिला कांग्रेस कमेटी ने घंटा घर चाँदनी चौक पर शामियाने, सोफे, कुर्सी लगाकर तेज़ आवाज़ में बजने वाले लाउड स्पीकर में देशभक्ति के गाने बजाकर 9 अगस्त को मनाना शुरू कर दिया। घंटाघर का माहौल बदल गया था। मैंने ही एक दिन, तूफान साहब, सूरजमान गुप्ता तथा रूपनारायण जी, सांवलदास गुप्ता जी को सुझाव दिया कि क्या हम सभा के स्थान को बदलकर अपने सबसे आदर्श पुरुष महात्मा गाँधी की समाधि से शुरू करके कुछ ही दूरी पर फिरोज कोटला के पिछवाड़े गुलाब वाटिका में, आचार्य नरेन्द्र देव की मूर्ति स्थल पर नहीं मना सकते? हमारे नेताओं को यह सुझाव पसंद आया। अगले वर्ष से यह राजघाट से शुरू होकर आचार्य नरेन्द्र देव की मूर्ति स्थल पर सभा के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
नये स्थल पर प्रोग्राम शुरू करने पर काफी बदलाव आ चुका है। आवागमन तथा संपर्क के साधन भी विकसित हो गए हैं। इस बीच दिल्ली के सोशलिस्ट नौजवानों की एक नयी पीढ़ी भी तैयार हो चुकी है । अब भी इसके आयोजन में पिछले कुछ पुराने साथी डॉ॰ भगवान सिंह, श्याम गंभीर, विजय प्रताप, सुभाष भटनागर, मंजू मोहन, रविन्द्र मनचंदा, थान सिंह जोश तथा प्रेम सिंह, केदारनाथ के अतिरिक्त भगवानदास जाटव, धर्मवीर रवारी, निरंजन महत्तो, नीरज, फैजल, अन्जूम, आमिर खान, पृथ्वीराज चौहान, राकेश कुमार (सदस्य दिल्ली नगर निगम) केदारनाथ इत्यादि बढ़ चढ़ के भाग ले रहे हैं। इस वक़्त इसके प्रमुख आयोजक राकेश कुमार है, फूलमाला, बैनर, खाने पीने व्यवस्था उन्हीं की टीम करती है। सुबह राजघाट पर महात्मा गाँधी की समाधि पर परिक्रमा करके जुलूस हाथ में 9 अगस्त का बैनर लेकर नारे लगाता हुआ मूर्ति स्थल पर पहुँच कर सभा में परिवर्तित हो जाता। वहाँ पर हमारे वरिष्ठ नेता विशेषकर रूपनारायण, ब्रजमोहन तूफान, सुरेन्द्र मोहन, सूरजभान गुप्ता, प्रो॰ आर.के. मिश्र (एम्स), चंद्रभाल त्रिपाठी, प्रो॰ सत्यमित्र देव आदि सम्बोधित करते रहे हैं।
दिल्ली में उस समय बाहर से आये हुए सोशलिस्ट नेता साथी भी समय-समय पर आकर इसमें भाग लेकर 9 अगस्त का इतिहास बताते थे। परंतु समय गतिमान है। अब इस कार्य को मदन लाल हिंद, थान सिंह जोश, डॉ॰ भगवान सिंह, विजय प्रताप, जयशंकर (पत्रकार), अरविंद मोहन (पत्रकार) सुभाष भटनागर, श्याम गंभीर, रेणु गंभीर, डॉ॰ प्रेम सिह, अरुण त्रिपाठी, मंजू मोहन, इत्यादि करते है।
हमारे साथी प्रो॰ हरीश खन्ना (भू.पू. विधायक), प्रो॰ विनय भारद्वाज, प्रो॰ शशिशेखर सिंह, प्रो॰ अमर नाथ, प्रो॰ अनिल ठाकुर, प्रो॰ वीरेन्द्र तोमर, प्रो॰ द्विजेन्द्र कालिया, चिन्मयी समल, अख्तर हुसैन, अरशद कुरैसी, कमरे आलम, राजेन्द्र रवि, अतुल कुमार, भाषकर शर्मा, मरहूम डॉ॰ मोहम्मद यूनुश, अरमान अंसारी, किरण अरोड़ा, अनिल नौरिया, रजनी, प्रो॰ अनुपम, के.पी.सिंह, अभय सिन्हा, अमृत लाल रावल, रमेश शर्मा (गाँधी पीस फाउंडेशन) मरहूम शंशाक अत्रे, डॉ॰ जितेन्द्र शर्मा, बीबग्लानी मिंग, चिन्मयी संभल, लाखन सिंह, अरशद कुरेशी, दलीप तलवार (तुफान साहब का भान्जा) किश्न पासवान, प्रो॰ अशोक सिंह, अमर सिंह ‘अमर’, साथी महेश राजवीर पंवार (गाँव बेरसराय) रोहताश सिंह मान (गाँव अलीपुर, चौधरी मेहर सिंह (गाँव बवाना) उम्मेद सिंह खत्री (गाँव टिकरी खूर्द) बड़े उत्साह से भाग लेते हैं। इस आयोजन को सफल बनाने में संजय कनौजिया, तुलसी शर्मा, कृष्ण कुमार भदौरिया विशेष भूमिका निभाते हैं। एडवोकेट पुरुषोत्तम हितैषी अपनी शायरी से समा बांधे रखते हैं तथा बहुत सारे ऐसे साथी जिनका नाम मुझे याद नहीं आ पा रहा कैसा भी मौसम हो इसमें भाग अवश्य लेते है।
मेरा पूरा विश्वास है कि दिल्ली के सोशलिस्टों की यह परंपरा जैसी अब तक निर्बाध गति से चलती रही है, वैसे ही आगे भी चलती रहेगी।
नोट : याददाश्त की कमज़ोरी के कारण बहुत सारे साथियों के नाम छूट गए हैं। जितने नाम बताये है, उससे बहुत बड़ी संख्या में हमारे नेताओं और साथियों ने इसमें समय-समय पर भाग लिया है।