गिरिजा कुमार माथुर को मैंने बचपन में अशोक नगर में देखा है।कवि पिता और उनकी वार्तालाप को सुना है। तो मुझे अतिरिक्त रूप से यहां शामिल होना अच्छा लग रहा है। उनके भांजे सहपाठी रहे आलोक माथुर के साथ रहते हुए भी अनेक जिक्र मेरी सुखद स्मृति का हिस्सा हैं।

हिन्दी काव्य की न‌ई कविता धारा के कवि गिरिजा कुमार माथुर अपनी कविताओं में समाज के रूप विद्रूप,भाव और अभाव के साथ साथ विशिष्ट प्रेमिल संसार उपस्थित करने के लिए सदैव जाने जाएंगे।उनका कविता जगत एक प्रबंधित काव्य जगत है जिसमें साहित्यिक कविता लिखने की परंपरा का निर्वाह किए जाने के साथ साथ नयी भाषा और नये छंद की स्थापना की पहल दिखाई देती है। सर्वविदित है कि उनके पहले प्रगतिवाद की लहर थी, फिर प्रयोगवाद ने आँखें खोलीं,जिसके अगुआ कवियों में मालवा के कवि गिरिजा कुमार का भी नाम आता है।
डा.नगेन्द्र की इस मान्यता के प्रकाश में कि

हिन्दी साहित्य में प्रयोग वाद नाम उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है जो कुछ नये भावबोधों,संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले शिल्पगत चमत्कारों को लाया। अज्ञेय का कथन सबसे ज्यादा मान्य हुआ कि प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है बल्कि वह साधन और दोहरा साधन है।सत्य को जानने का साधन।

इसी क्रम में स्वयं गिरिजाकुमार माथुर ने कहा कि प्रयोगों का लक्ष्य है व्यापक सामाजिक सत्य के खंड अनुभवों का साधारणीकरण करने में कविता को नवानुकूल माध्यम देना,जिसमें व्यक्ति द्वारा इस व्यापक सत्य का सर्वबोधगम्य प्रेषण संभव हो सके

इन स्थापनाओं
के प्रकाश में हम कह सकते हैं कि इनके निहितार्थ का अनुपालन अपनी कविताओं में गिरिजा कुमार माथुर ने भी किया।वह इन तीनों के विशिष्ट प्रयोक्ता ‌भी रहे। इससे आगे की राह भी उन्होंंने अपनाई। जब वह न‌ई कविता धारा में शामिल होकर उसे अपने प्रभावी कहन से स्थापित कर रहे थे तो उन्होंने
धूप के धान की भूमिका में स्पष्ट करते हुए लिखा भी-

नई कविता से हमारा अर्थ उस समस्त कविता से है जो पुरानी धारा की प्रतिक्रिया स्वरूप काव्य क्षितिज पर उदित हुई है कविता में वस्तु और शैली की हम कोई वर्णाश्रम व्यवस्था मानने के पक्ष में नहीं है शैली या विचार वस्तु के श्रेष्ठ तत्व चाहे काव्य के किसी निकाय से आए हो हमारे लिए अछूत नहीं हम यह मानते हैं कि श्रेष्ठ साहित्य पक्षधर नहीं होता वह विभिन्न और प्रत्यक्ष तथा विरोधी दिखाने वाले पक्ष या प्रवृत्तियों का समन्वय करता चलता है।

ऐसे ही अनेक विचार उनके कवि मानस में विचरण कर रहे थे।वह साम्राज्यवाद के विरोध का समय था और तब द्वितीय विश्व युद्ध की घटनाएं प्रतिक्रियाओं में यहां वहां आ रहीं थीं।1935 में सज्जाद ज़हीर और प्रेमचंद तरक्की पसंद विचार धारा को भारत में प्रवर्तित कर चुके थे।मार्क्स के विचारों का संवहन हो चला था। गिरिजा कुमार माथुर ने भी इस का अवगाहन किया,वह लिखते हैं

‘मार्क्सवाद के अध्ययन से मेरी ऑंखें खुल गयीं। मुझे स्पष्ट हुआ कि राजनीति की समझ के बिना यथार्थ की पहचान नहीं हो सकती। सत्ता का स्वरूप, राजनीति, समाज का आर्थिक आधार, ठोस यथार्थ, वर्ग चेतना, इतिहास की द्वन्द्वात्मकता, दमन और शोषण से मानवीय समता और स्वाधीनता का नया रास्ता नजर आने लगा। वस्तुत: मार्क्सवाद को मैंने अपने देश की जन परम्परा और सांस्कृतिक उत्स की मिट्टी में रोपकर आत्मसात कर लिया और एक नयी जीवन दृष्टि मुझे प्राप्त हुई। मुक्ति के यही मूल्य मेरी कविता को झंकृत और उद्दीप्त करते रहे हैं।’

इस प्रभाव में ही उनके संग्रह नाश और निर्माण , धूप के धान, शिला पंख चमकीले, साक्षी रहे वर्तमान, मैं वक्त के हूँ सामने संग्रहों में आए।

रोमान और छांदस राग से भरे भरे गिरिजा कुमार माथुर दर‌असल मनुष्य के जीवन की कविताएं ही लिखने के लिए बेचैन होते थे। उन्होंने जो कविताएं लिखीं वे ‌प्रकारांतर से नयी कविता के कक्ष में और पक्ष में ही खड़ीं हुईं।नये लेखन के
इस आंदोलन में
नयी कविता के इस पौधे को रोपने की और इस विरबे को जतन से रखने की एक जिम्मेदारी ली श्री गिरिजा ने। नयी कविता को उन्होंने प्रयोग और प्रगति धारा से यह भरोसा करते हुए अपना रास्ता माना कि यह कविता अभिव्यक्ति, संप्रेषण और उपलब्धि की दृष्टि से बहुत आगे का उपाय है।

अपने काव्य संग्रह धूप के धान की भूमिका में लिखते हैं।

“हिन्दी नयी कविता का सुकुमार पौधा अनजानी और अपरिचित मिट्टियों से रस लेकर बलबत्तर हुआ है उसकी शाखाएं फैली हैं और काव्य क्षेत्र में अब वह क्रमशः गरिमा तथा प्रतिष्ठा की ओर अग्रसर होगा।”

कविता के पाठ में आनंद मनोरंजन और विरेचन ही तलाश करने वाले पाठकों और रूपवादियों की दुनिया ने गिरिजा कुमार माथुर को भी नहीं सराहा इसलिए वह इस कविता के अलोकप्रिय होते देखने के लिए तैयार थे।

संग्रह की
इसी भूमिका में वह कालिदास और भर्तृहरि के एक कथन को भी उद्धर्त करते हैं जिसका आशय यही है कि मेरी कविता को भी कालांतर में कदाचित ही महत्व मिले।यह संशय हर कवि पर तारी रहता है कि उसकी कविताएं ध्यानाकर्षण कर सकेंगी या नहीं, चर्चित और पठित होंगी या नहीं।मगर गिरिजा कुमार माथुर की कविताओं ने सप्तक के कवियों के बीच भी स्थान अलग बनाया है।नव प्रगतिशील दौर में भी वह एक जरूरी कवि के रूप में उल्लेख का मान पाते रहेंगे। उसकी सबसे बड़ी और ठोस वजह है उनकी कविताओं में मौजूद मनुष्य के मन को सुंदर लगने वाले शाब्दिक दृश्य और मनुष्य के परिवेश मे उपस्थित यथार्थ के चुभते हुए विवरण।

नितांत ललित ललाम और छायावादी कविता लिखने के लिए प्रसिद्ध हो चुके
गिरिजा कुमार माथुर ने जब 1937 में अपनी धारा बदली तो उनके मन में धारा के बदलाव की वज़ह अंतर मन में इसलिए पैदा हो रही थी कि लीक से हटकर उनकी कविताओं में कुछ भी नहीं था।वही प्रकृति,वही पौराणिक कथाएं वही निरीहता।अपनी कवियोचित बेचैनी से नवोन्मेष नहीं हो पा रहा था।१९३७ में झांँसी के एक कार्यक्रम में जब युवा कवि गिरिजा कुमार माथुर ने कविता पाठ किया तो गोष्ठी के अध्यक्ष कवि और कर्मवीर के संपादक ,मालवा के ही श्री माखनलाल चतुर्वेदी की एक ऐसी ही व्यंग्योक्ति ने उन्हें झकझोर दिया था।, उस कविता में महादेवी वर्मा की कविता का इतना हावी प्रभाव था कि कविता महादेवी वर्मा की ही प्रतीत हो रही थी।तब तक कविता में उनका लेखन में उनका अभीष्ट सामाजिक परिवेश हो चुका था

उन्हें कविता के दायित्व समझ में आ ग‌ए थे कविता में भाव पक्ष को पिरोने के साथ साथ वह कविता की टेक्नीक को महत्त्वपूर्ण मानने लगे थे।उनका शुरूआती आत्मविश्वास बताता है कि वह एक जिम्मेदार कवि तो थे ही,अति विद्वान और सजग आलोचक भी थे।वह तार सप्तक के वक्तव्य में वह लिखते हैं,।

“विषय की मौलिकता का पक्षपाती होते हुए भी मेरा विश्वास है कि टेक्नीक के अभाव में कविता अधूरी रह जाती है।इसी कारण चित्र को अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं वातावरण के रंग उस में भरता रहा हूं।”

इसी वाक्य में वह संकेत है जो कवि की परिवेश के यथार्थ को प्रकट करने की कोशिश और प्रतिबद्धता दिखाता है,अभी तक जो कविता दृश्य में थी, उससे अलग नये तेवर की लेकिन सुकोमल और सुहानी रंगीन सी कविताएं गिरिजा जी लेकर आए।तारसप्तक की एक कविता का अंश है

आज हैं केसर रंग रंगे वन
रंजित शाम भी फागुन की खिली पीली कली सी
केसर के वसनों में छिपा तन
सोने की छांह सा
बोलती आंखों में
पहिले वसंत के फूल का रंग है।

सवैया सहित
अनेक छंदों के जानकार गिरिजाकुमार माथुर का पहला संकलन ‘मंजीर’ आया, उसमें गीत संकलित थे, और उसकी भूमिका निराला जी ने लिखी थी-

श्री गिरिजा कुमार माथुर निकलते ही
हिन्दी की निगाह खींच लेने वाले तारे हैं
काव्य के आकाश से उनका बहुत ही मधुर और रंगीन प्रकाश हिंदी के धरातल पर उतरा है। बोलने वाले तार की तरह मजबूत स्वर से मिले हुए अपने पहले ही झंकार से उन्होंने लोगों का दिल ले लिया।

यह भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी।उधर बाद में गिरिजा ने भी निराला जी को समर्पित एक कविता लिखी।
तुम कालिदास, तुलसी, रवीन्द्र
के अमर चरण चिन्हों पर रखकर
चरण चले
ओ महाकाय,रवि की अविलम्ब
विमल गति से
आजानु करों से घेर लिया
तुमने कविता का फुल्ल कमल।

यह कविता निराला के प्रिय छंद और शैली में है। जिसमें प्रगीति भी है।
गीत के प्रति लगाव और गीत का सत उनकी हर कविता में मिलता है,यानि पृथ्वी कल्प तक।यह उसी टेक्नीक की वजह से ही होता रहा जिसे उन्होंने महत्वपूर्ण माना था।ध्वनियों, और‌ उनके संगीत के साथ वह हमेशा रहे।नयी कविता का वितान भी उन्होंने इनके सहारे ही बुना था। एक तरफ वह मुक्त छंद लिख रहे थे तो दूसरी तरफ वह इसी नाद को,लय को और शब्दों के सम और विषम को साथ लेकर चलते थे। रचना प्रक्रिया पर उनका बहुत ध्यान था।वह गहन चिंतन से कविता रचते थे। विचार की तितली को अंदर से पकड़ कर लाते और कविता की टहनी पर बैठा देते ।यह विचार परिवेश से आते। परिवेश के उस आदमी से आते जो जीवन जगत के जंजाल में तो फंसा है लेकिन अपनी सोच को उदात्त नहीं कर पाता। यहां उनकी एक कविता

आदमी का अनुपात का जिक्र उचित है। जिसमें प्रयोग वाद के खांचे का व्यक्ति है जो नयी कविता के व्यक्ति अलग दिखाई देकर भी परिवेश का एक प्रतिनिधि है। उसके अस्तित्व की एक अलग महत्ता है जिसे लक्षित कर कवि ने मनुष्य और मनुष्य के बीच राग द्वेष से दूर होने की कामना की है।

कितनी ही पृथ्वियाँ
कितनी ही भूमियां
कितनी ही सृष्टियां
यह है अनुपात
आदमी का विराट से
इस पर भी आदमी ईर्ष्या,अहं,स्वार्थ,घृणा, अविश्वास लीन
संख्यातीत शंख सी दीवारें उठाता है
अपने को दूजे का स्वामी बताता है
देशों की कौन कहे
एक कमरे में
दो दुनिया रचाता है।

गिरिजा कुमार माथुर की कविताओं का व्यक्ति एक उलझन महसूस करता है।संशय और असमंजस के साथ वह अपनी विवशता से थका हुआ महसूस करते हुए कह रहा है।वह असहाय है लेकिन उसकी संवेदना गहरी है।

चारों तरफ शोर है
चारों तरफ भरा पूरा है।
चारों तरफ मुर्दनी है
भीड़ें और कूड़ा है
हर सुविधा एक ठप्पेदार अजनबी उगाती है
हर व्यस्तता और अधिक
अकेला कर जाती है

हम क्या करें
भीड़ और अकेले पन से कैसे छूटें।

(दो पाटों की दुनिया)

कवि के पास हमेशा लिखने के पक्ष में और उचित लिखने के पक्ष में तर्क होते हैं। कुछ कारण होते हैं इन कारणों को एक कवि बेहतर जानता है। और गिरिजा कुमार माथुर तो बार बार लिखते भी हैं।
मौलिक और अनुभव जनित लिखने के लिए वह हमेशा निष्ठ थे। इसलिए वह तार सप्तक के वक्तव्य में लिखते हैं कि

“स्वयं परीक्षित अनुभव की बौद्धिक ईमानदारी का साहित्यिक अधिकार कवि को है।यदि लेखक किन्हीं साहित्येतर दबाव में आकर स्वानुभव साक्ष्य विहीन सत्य को स्वीकार करता है तो वह कविता नहीं एक गैर ईमानदार,पद्यवस्तु की रचना ही करेगा।”

उन्होंने इस कथन का यथासंभव अपने सृजन में अनुकरण किया है। इस लिहाज से -दो‌ पाटों की दुनिया -कविता के चारों पद
एक वास्तविक उलझन को व्यंजित कर रहे हैं। अंत में -कैसे छूटें -में एक उलझन है। हालांकि प्रगतिशील लेखकों का तबका यहां समाधान रहित दशा चित्रण का अक्स देखते रहे हैं जैसा कि श्रीकांत वर्मा ने कहीं पर इसे दूर तक चलने वाली कविता नहीं कहा था। परंतु मैं ऐसी कविताएं भी जिनमें सिनेमाई बिंब हैं को एक आवश्यक कविता माने जाने के पक्ष में हूं, आखिर यह भी एक
चित्र प्रस्तुत करती है।

दो काली आँखों सी चमकीली
एक रेडियम घड़ी
सुप्त कोने में चलती
सूनेपन के हल्के स्वर सी
उन्हीं रेडियम के अंकों की लघु छाया पर
दो छांहों का चुपचाप मिलन था।

रेडियम की छाया।)तार सप्तक

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कविताओं में आंचलिकता को रचने की प्रमुख प्रवृत्ति के लिए प्रसिद्ध कवि गिरिजा कुमार माथुर ने अपने तीसरे कविता संग्रह धूप के धान की कुछ कविताओं में सामाजिक परिवेश को केंद्र में रखकर यथार्थ को भी व्यक्त किया है।
एक जोरदार पक्षधरता के साथ वह अनेक कविताओं में यथार्थ की दस्तक देते हैं यहां वे अपनी रूमानी सी गीतात्मक कविताओं में यथार्थ और प्रणय के समन्वय वाली कविताओं के अलावा मानवतावादी बहिर्मुखी भाव धारा संबंधी कविताओं के प्रतिदर्श लेकर सामने आते हैं ,और ऐसी ही विचार धारा के पैरोकार कवि मुक्तिबोध और भारत भूषण अग्रवाल की पंक्ति में आकर बैठते हैं। इस क्रम में “एशिया का जागरण” कविता के पदों पर ध्यान जाता है।

मेरी मानवता पर रक्खा
गिरि- सा सत्ता का सिंहासन ।

मेरी आत्मा पर बैठा है विषधर सा सामंती शासन
मेरी छाती पर रखा हुआ साम्राज्यवाद का रक्त कलश
मेरी धरती पर फैला है मन्वंतर बनकर मृत्यु दिवस।

वे रक्त यंत्र उत्पीड़न के
तेरे तुझको ही काल बने
जो जाल बिछाए थे तू ने
तुझको डसने को व्याल बने

घर नगर ग्राम वन सिंधु बीच
मेरी धरती ललकार रही
मानवता की यह क्रुद्ध आग
दिशि दिशि से तुझे पुकार रही।

मानवता की क्रुद्ध आग एक जबरदस्त बिंब है जो माथुर की समूची कवि चेतना में शायद ही कहीं और आया हो।नयी कविता के मूल पाठ में अबूझी वस्तुओं को आसन देना भी एक उद्देश्य रहा।

इसी तरह पहिये कविता में पहिये के प्रतीक के ‌सहारे वह बड़ी बात सामने लाते हैं

ये शक्तिवान मेहनत की बाहों के प्रतीक उन रूखे भारी हाथों के गतिमान चित्र गढ़ते जाते हैं जो सामाजिक मूरत को जीवन की मिट्टी को संवार
सच्चे कर देते हैं सपने
लेते हैं स्वर्ग उतार विचारों के नभ से।

ऐसे ही आग के फूल, धारा दीप, ‘नींव रखने वालों का गीत’ मानवतावादी भाव धारा की स्पष्ट परिचारिका है यद्यपि कुछ कविताओं में यही यथार्थ रोमांस में घुला मिला है।
यार सप्तक के बाद से तो
यह तय है कि रचनाओं में समसामयिक यथार्थ को साथ लेकर चलने की टेक रही । इन कविताओं में ऐसा माना गया है व्यक्ति की निराशा, कुंठा ,वेदना आदि से उत्पन्न कम ही सही पर आलस्य, थकान और हताशा के चित्र भी आए हैं ,जो सामाजिक परिवेश का तब का यथार्थ था ,और वे इसके प्रस्तोता थे ।
सामाजिक परिवेश के एक बड़े और उपेक्षित आदिवासी वर्ग पर उन्होंने भवानी प्रसाद मिश्र की सतपुड़ा के घने जंगल के छंद पर रची गई प्रसिद्ध ढाकबनी कविता में लिखा है-

बीच पेड़ों की कटान में है पढ़े दो चार छप्पर

हाड़िया ,मचियां, लठौते, के लट्ठ गूदड़ बैल बक्खर।

राख ,गोबर ,चरी, ओंगन ,लेज रस्सी हल कुल्हाड़ी
सूत की मोटी फतोही,चका, हंसिया और गाड़ी
धुंआ कंडों का सुलगता।

भोंकता कुत्ता शिकारी ।
है यहां की जिंदगी पर
शाप नलका स्याह भारी
भूख की मनहूस छाया
जबकि भोजन सामने हो
आदमी हो ठीकरे सा।

नल नामक राजा की दंतकथा से यहां का ग्राम्य चित्र आकर्षक और यथार्थ पूर्ण है। गिरिजा कुमार माथुर चूंकि
कार्ल मार्क्स की समाजवादी विचारधारा सेभी प्रभावित थे तो उनकी अनेक कविताओं में शोषण ,अनाचार या अत्याचार संबंधी उक्तियां मिलती हैं। जिनमें मानवता और प्रेम के विचार केन्द्र में हैं।हम जानते हैं कि प्रयोग शील कविता ने परंपरा से विद्रोह के रूप में प्रयोग तथा अन्वेषण का मार्ग स्वीकार किया था और नई कविता ने एक कदम और आगे रखकर मनुष्य की सहायता की। इसमें विज्ञान और मनोविज्ञान आती है ‌। प्रकृति आती है।

एक कविता में गिरिजा कुमार माथुर की वैज्ञानिक सोच की मिसाल देखिए ।

एटम और उदजन बम है
नव गामी महलों के कर में
चाह रहे जो सृष्टि धरा को
केवल हिरोशिमा कर देना ।

एक सजीव का दूसरे सजीव से संवेगात्मक और संवेदनात्मक व्यवहार ही सामाजिक होने का आधार है। जिसमें सहयोग और समायोजन की आवश्यकता होती है। एक कवि अपनी तरह से इनके हवाले से अपने संदेश देता है,।कभी इनको केवल चित्रित करता है।तो कभी इनके लिए प्रश्न करता है।

मिट्टी के सितारे शीर्षक से कविता की पहली रूबाई देखिए।

कल से कुछ हम बन गए आज अन जाने हैं
सब द्वार बंद टूटे संबंध पुराने हैं
हम सोच रहे हैं कैसा नया समाज बना
जब अपने ही घर में हम हुए बिराने हैं।

और अंतिम रुबाई में तेवर अलग हैं

दीपक तेरे नीचे गिर रहा अंधेरा है
सोने की चमक तले अनीति का डेरा है तू इंसानी जीवन की रात मिटा वरना
इंसान स्वयं बनकर आ रहा सवेरा है।

परिवेश के एक आम आदमी में आकांक्षा लालसा और दंभ भी होते हैं देखिए
मेरे मन में आकांक्षाओं का ढंका मौन
निचोड़ी हुई लालसाएं
झींखता दंभ
खुमारी उतरे पर टूटते बदन वाली
प्रेरणा ज्वलन

कविताओं के अतिरिक्त गिरिजा जी ने कई ऐसे पद्य नाटक भी लिखे हैं
उनमें से अगर हम प्रगतिशील दृष्टि से देखें तो ।कल्पांतर ,दंगा व्यक्ति मुक्त और पृथ्वी कल्प ऐसे पद्य नाटक हैं जो समसामयिक जीवन की समस्याओं से संबंधित हैं। पृथ्वी कल्प में उन्होंने हिंदी कविता में पहली बार वैज्ञानिक चेतना का समावेश करके रचना की। दंगा कविता में भारत विभाजन के समय के सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि है ।और कल्पांतर में अंतरराष्ट्रीय पृष्ठभूमि पर अनिरुद्ध अणु युद्ध की समस्या का जिक्र है । ऐसी विषय वस्तुओं के लिए ऐसे उपमानों के साथ कविताएं लिखकर उन्होंने नयी कविता का अच्छा संसार रचा

इसीलिए डॉक्टर नगेंद्र ने कहा है कि गिरिजाकुमार माथुर “नए कवियों में अग्रणी है इसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता नई कविता में जो स्थाई काव्य तत्व है उसका भी प्रतिनिधित्व करते हैं नई कविता का मार्ग प्रशस्त करते हुए उन्होंने उसमें स्वकीयता,स्वायत्तता और सापेक्ष स्वतंत्रता की स्थापना की है।

ऐसी कविताओं के लिए जिनमें सामाजिक परिवेश गत यथार्थ केंद्र में हो हमें उनके कविता संग्रह “मुझे और अभी कहना है।
की कविताओं से भी गुजरना होगा।वह अपने रूप विधान की क्षमता के साथ साथ मौलिक और कल्पनाशीलता के लिए जाने जाते हैं।

एक जगह पर डॉ रामविलास शर्मा का कहना है कि *तार सप्तक की अधिकांश कविता में रेशमी सपने देखने के बाद गिरिजाकुमार विंध्य के ऊंचे टीलों, झाड़ झंखाड़ के बीच अपना गाँव, गैस की रोशनी में तंबाकू पीते किसानों को देख रहे थे ।और पनचक्की का स्वर सुनते थे उनका यथार्थ बोध विंध्य टीलों और पठारों के भूगोल से संबद्ध था ।इसके साथ अब उनकी राजनीतिक चेतना में निखार आ गया था ।भारत की गुलामी पर व्यथित होकर वह लिखते हैं
आज दुनिया के करोड़ों आदमी
सह रहे हैं धूप सर्दी और नमी
जिंदगी का एक भी साधन नहीं
उम्र तपती धूप है सावन नहीं

जिस तरह रघुवीर सहाय का हरचरना और धूमिल का मोचीराम एक आम आदमी का किरदार है ।
उसी प्रकार गिरिजाकुमार माथुर का भी एक शोषित और दीन हीन किरदार है जिसका नाम है राम भरोसे ।
एक कविता में वे कहते हैं

राम भरोसे ।चले गांव से ।शहर भटकते काम ढूंढते ।रोजी धंधे वहां न अब तक। सरक रहे देहात शहर तक ।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि वह संघर्ष को अपनी कविता में केंद्रित कर सके हैं ।लोकतंत्र में उनका गहरा भरोसा है ।आपातकाल के विरुद्ध ,’इतिहास की कालहीन कसौटी ‘कविताएं इस भरोसे के खातिर अच्छी कविताएं हैं!
वह फासीवाद और तानाशाही का मुखर प्रतिरोध करते हैं ।

बंद होगा अगर मन
आग बन जाएगा
रोका हुआ हर शब्द
चिराग बन जाएगा

कवि तो सदैव व्यवस्था विरोधी होता ही है ।ऐसी व्यवस्था जिसमें असहमतियों को अवसर ना दिया जाए ।तानाशाही और दमनकारी होती है वह लिखते हैं

कैसा भयानक होगा वह समाज
आदमी जहां सोच नहीं पाता हो

प्रेम का उद्दाम अभिव्यंजित करने और लय,छंद ध्वनियों का विशेष ध्यान रखने वाले श्री माथुर यथार्थ का एक छोर कभी नहीं छोड़ते हैं ।प्रेम संवेदनाओं से भरी उनकी अनेक कविताएं हैं ।उनका अपना सौंदर्य बोध है अपनी मनोवैज्ञानिक समझ है। 15 अगस्त शीर्षक की कविता यद्यपि एक राष्ट्रप्रेम की कविता है तथापि इस कविता के यथार्थ को चर्चा में छोड़ा नहीं जा सकता ।

कविता का अंश देखिए

प्रश्नचिन्ह बन खड़ी हो गई यह सिमटी सीमाएं

आज पुराने सिंहासन की टूट रही प्रतिमाएं

उठता है तूफान
इंदु तुम दीप्तिमान रहना

उनकी अति चर्चित कविता छाया मत छूना मन में उनका यह पद जरूर अनेक लोगों के जीवन का एक यथार्थ तो होगा

मान है ना सरमाया
जितना ही दौड़ा तू उतना है भरमाया प्रभुता की शरण बिंब केवल मृगतृष्णा है हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।

जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन छाया मत छूना मन।
यह एक दूसरा यथार्थ है जिसको अपनाने की कवि सलाह दे रहा है

माथुर की कविताओं को समग्र रूप में कहीं-कहीं व्यक्तिवादी या अस्तित्ववादी धारा में आंका गया है ।लेकिन यह दृष्टिकोण का फ़र्क भी हो सकता है ।हो भी सकता है कि उन पर स्थित वादी कवि की या प्रयोगवाद से आगे नहीं पहुंचने वाले कवि का तमगा मिले लेकिन यह साथ में कहना ही होगा कि वह बाहर जगत पर दृष्टि रखने वाले एक यथार्थ निरूपित करने वाले कवि भी रहे आए ।जैसे वह कहते हैं

कौन थकान हरे जीवन की
बीत गया संगीत प्यार का
रूठ गई कविता भी मन की ।।

क्या यह केवल एक व्यक्ति का जीवन है क्या यह सामाजिक परिवेश के अधिकांश व्यक्तियों की दिक्कत दुश्वारी निराशा ,कुंठा या बेबसी नहीं है ।और क्या इस स्थिति के लिए हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएं जिम्मेदार नहीं हो सकतीं।अवसाद केवल स्वभाव नहीं होता ।यह एक जहरीला फल होता है उस वृक्ष का जिसे हमारे समाज ने कभी लगा दिया था।

हम जानते हैं गिरिजाकुमार माथुर साहित्य की विधा, विचार, परंपरा परिवर्तन के संक्रमण काल में खड़े एक निर्धारिक कवि रहे हैं ।वह ना तो छाया वादियों की तरह केवल पौराणिक और प्राकृतिक वस्तुओं का सहारा लेकर निर्णय और रोमांस लिखते रहे और ना प्रयोग वादियों की तरह केवल लिखकर लकीर तोड़ने के लिए तनिक सा परिवर्तनकारी लिखते रहे ।बल्कि गिरिजाकुमार आधुनिक और नए नए भारत के स्वप्निल कवि के रूप में विज्ञान और ज्ञान के साथ संवेदनाओं को नए नए छंदों में नई नई भाषा के साथ एक नई कविता को स्थापित कर रहे थे।वह उन कम बड़े लेखकों में से एक और केवल एक हैं जिन्होंने साहित्य के इतने वादों और विधाओं की मुख्य धारा में रहकर एक गंभीर और स्थायी रचनाओं को हिन्दी साहित्य के लिए अवदान दिया। पहरूए सावधान रहना ,आदमी का अनुपात,भावांतर , हम होंगे कामयाब,छाया मत छूना मन,

वह हमेशा एक नया कवि के इस उद्घोष के लिए याद किए जाते रहेंगे जिसमें उन्होंने कहा है कि

जो अंधेरी रात में भभके अचानक
पास आता
अग्निध्वज हूं।

न‌ई कविता पुस्तक के लेखक डॉ अजय अनुरागी के इस अनुच्छेद के द्वारा हम भी यह कहना चाहते हैं कि

बहु सोपानों के शरणार्थी होने के बावजूद गिरिजाकुमार माथुर एक दुर्बोध या जटिल कवि नहीं है ऐसे में संभवतः उनकी कविता में प्रवेश करने के लिए किसी भी शोध प्रबंध की अपेक्षा स्वयं उनकी कविता ही बेहतर विकल्प सिद्ध हो सकती है।

मुझे भी लगता है कि गिरिजा कुमार माथुर की कविताओं को पढ़ना हमेशा समकालीन कविता को पढ़ने की श्रेणी में आएगा।
अंत में उनकी ही यह कविता जो नयी दीवाली शीर्षक से है।

इस लौ में दारिद्रय जले
ज्यों जले अंधेरा रात का
जन जन का जीवन खिले
ज्यों पहला फूल प्रभात का

इति।

ब्रज श्रीवास्तव

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