छत्तीसगढ़ में भाजपा तगडी सत्ताविरोधी लहर झेल रही है और ऐसा होना जायज भी है. ये हम नहीं कह रहे बल्कि मतदाता खुद कह रहे हैं. इतना ही नहीं भ्रष्टाचार ने भी मतदाताओं का दिल भाजपा सरकार के प्रति खराब कर रखा है. यही वजह है कि सीएम रमन सिंह की लोकप्रिय छवि के बाद भी वे चुनाव हारते नजर आ रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों है, इसके लिए एक नजर छत्तीसगढ के इतिहास पर डालें तो यहां डेढ सौ सालों का भूख से मौतों का इतिहास रहा है
. डॉ. रमन सिंह ने जब यहां की जनता को एक रुपए किलो में चावल दिए, तो जनता ने इन्हें सिर-आंखों पर बैठाया. लोग इन्हें चावल वाले बाबा के नाम से ही जानने लगे. डॉ. रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में विकास भी किया, लेकिन जितना विकास वास्तविक रूप में हुआ, इससे कहीं ज्यादा इन्होंने और इनकी सरकार ने अपने फायदे के लिए काम किया. अरबों रुपए खर्च करके नया रायपुर बसाना इनके अब तक के निर्णयों में सबसे गलत साबित हुआ.
इस नए रायपुर में पसरा सन्नाटा इसकी असफलता की कहानी खुद बयां करता है. इन्होंने सड़कें भी बनाईं, लेकिन नक्सलवाद को काबू करने में इस कदर नाकाम रहे कि जिस सड़क की कवरेज करने गए दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युतानंद साहू को नक्सलियों ने गोलियों से भून डाला, इस सड़क निर्माण के क्रम में अब तक 76 जवान शहीद हो चुके हैं. वो सड़क केवल कंक्रीट से नहीं, बल्कि जवानों के खून से भी बनी है.
इसी तरह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने में रमन सरकार बुरी तरह असफल रही है. बस्तर में भले ही स्कूलों की इमारतें खड़ी कर दी गईं, लेकिन इनमें शिक्षक ही नहीं हैं, क्योंकि इन नक्सली इलाकों में वे जाना नहीं चाहते. इसी तरह, शहरों में लोग डेंगू से मर रहे हैं और सरकार कुछ नहीं कर पा रही है.
न बच्चों के खेलने के लिए मैदान बचे हैं, न गायों के चरने के लिए गौचर भूमि बची है. एक सोशल एक्टिविस्ट कहते हैं कि जब मप्र और छत्तीसगढ़ एक राज्य था, तब हर गांव में रेवेन्यू लैंड की सात फीसदी जमीन गौचर भूमि होती थी, आज यह अनुपात दो फीसदी पर चला गया है. इसमें भी कमाल की बात यह है कि कुछ समय पहले सरकार ने राजपत्र में एक नई बात छापी है कि अब राजस्व भूमि के अनुपात में दो फीसदी गौचर जमीन कहीं भी हो सकती है.
यानि कि कई गांवों की गौचर भूमि किसी एक जगह पर हो सकेगी. ऐसी घोषणा करते हुए शायद सरकार ने यह सोच लिया कि गाएं घास चरने के लिए किसी दूसरे गांव में जाएंगी. छत्तीसगढ़ की गाएं ज्यादा दुधारू नहीं होतीं, पर गौचर भूमि होने के कारण वे किसानों पर बोझ नहीं थीं.
सरकार के ऐसे मखौल इड़ाते नियम कब तक किसान के सब्र का इम्तहान लेंगे. इसी तरह, जंगलों से भटककर खेतों में आने वाली हाथियों द्वारा फसल बर्बाद करने की खबरें हर दिन अखबारों का हिस्सा बन रही हैं, लेकिन सरकार इस बात से निश्चिंत नजर आती है कि किसान की कड़ी मेहनत से इगाई फसल को बर्बाद होने से रोकने के लिए कोई ठोस कदम इठाना चाहिए. किसानों की ये ऐसी समस्याएं हैं, जो चुनावी समय में नेताओं के मुद्दों से सिरे से गायब हैं.
सरकार भूल रही है कि किसानों के अंदर सुलग रहा गुस्सा यदि बाहर आया, तो इनके लिए सत्ता में वापसी का रास्ता बंद हो जाएगा. इसके अलावा, भ्रष्टाचार, बुरी तरह हावी ब्यूरोक्रेसी आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिनपर आम आदमी का गुस्सा मानो फूटने को तैयार है.