साल 2015 में देश में सौ स्मार्ट शहर बनाने की बात की गई. इसके लिए जोर-शोर से शहरों की पहचान की गई. पैसा भी आवंटित हुआ. ऐसा लगा मानो अब भारत में स्मार्ट शहर के आने से सबकुछ बदल जाएगा. लेकिन, इस स्कीम की असलियत क्या है? इस योजना के क्रियान्वयन की असलियत खुद संसद की शहरी विकास संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने ही बता दी है. इस समिति की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2015 में शुरू होने के बाद से स्मार्ट सिटी मिशन के लिए जारी की गई राशि में से 1.8 फीसदी से ज्यादा का उपयोग नहीं किया गया है.
यानी, 3 साल में इस मिशन के तहत आवंटित राशि में से 2 फीसदी पैसा भी खर्च नहीं किया जा सका है? अब सवाल यह है कि इसकी वजह क्या है और अगर इसी रफ्तार से काम होता रहा तो अगले कितने साल में हम 100 स्मार्ट सिटी बनते देख पाएंगे? ये सवाल अलग है कि उन स्मार्ट सिटी का रंगरूप कैसा होगा और किनके लिए होगा? स्मार्ट सिटी मिशन केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार की और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक महत्वाकांक्षी योजना है.
साल 2015 में शुरू किए गए इस योजना का मकसद 100 स्मार्ट शहर बनाना है, ताकि शहरी निवासियों के जीवन गुणवत्ता में सुधार लाकर भारत में शहरीकरण की गति को बढ़ाया जा सके. शहरों में निवेश और विकास को बढ़ावा देने के लिए प्रौद्योगिकी और डेटा आधारित समाधानों का उपयोग करके इस काम को अमल में लाने का प्रस्ताव इस योजना में दिया गया है. 2031 तक भारत की शहरी आबादी 600 मिलियन तक पहुंच जाएगी. जनसंख्या की ये वृद्धि ही इस योजना के पीछे का एक प्रमुख कारण है.
संसद में एक सवाल के जवाब
से पता चला कि स्मार्ट सिटी परियोजनाओं पर हुए खर्च का जो ब्योरा आया है, उससे केंद्र सरकार नाखुश है. स्वयं प्रधानमंत्री इन परियोजनाओं पर तेजी से कार्य करने के लिए जोर दे चुके हैं, लेकिन अब भी इक्का-दुक्का शहरों को छोड़कर किसी भी स्मार्ट सिटी शहर में ऐसी कोई परियोजना तैयार नहीं हुई है, जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हुई हो. जिन 20 शहरों को सबसे पहले स्मार्ट सिटी बनाने के लिए चुना गया था, वहां भी ऐसा कोई काम नहीं हुआ है, जिससे ये लगे कि सरकार सचमुच इस योजना को लेकर ईमानदार है. इस योजना को कई चरण में पूरा किया जाना है. इसके लिए कई चरण निर्धारित किए गए हैं.
पहले चरण में जिन शहरों का चयन हुआ है, उन्हें साल 2021 तक स्मार्ट सिटी में तब्दील करने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन, शहरी विकास संबंधी संसद की स्थायी समिति की एक ताजा रिपोर्ट की मानें तो 2015 में मिशन की शुरुआत के बाद से, इसके लिए आवंटित 9943.22 करोड़ रुपए में से केवल 182 करोड़ रुपए का उपयोग किया गया है, यानी केवल 1.8 फीसदी रुपए का ही इस्तेमाल अब तक हो पाया है. अब आप खुद सोचिए कि 2 फीसदी से भी कम खर्च में अब तक इन शहरों में क्या काम किया गया होगा? जबकि अन्य योजनाओं में इसके मुकाबले अपेक्षाकृत अधिक पैसा खर्च हुआ है. मसलन, सरकार की कुछ प्रमुख योजनाओं जैसे राष्ट्रीय शहरी जीविका मिशन ने सबसे ज्यादा राशि का उपयोग किया है, करीब 850 करोड़ रुपए यानी जारी राशि का 56 फीसदी इस्तेमाल हो चुका है.
संसद की ये समिति अपने रिपोर्ट में बताती है कि स्मार्ट सिटी मिशन में 3 वर्षों के बाद भी पहचान की गई परियोजनाओं में से अधिकांश अब भी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने के चरण में ही हैं. इसका एक प्रमुख कारण ये है कि 2020 तक भारत में 1.1 मिलियन शहरी योजनाकारों (अर्बन प्लानर) की कमी रहेगी. आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय ने समिति से कहा कि वर्तमान में 5500 शहर योजनाकार देश भर में काम कर रहे हैं और 600 राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और विभिन्न इंजीनियरिंग कॉलेजों से प्रत्येक वर्ष स्नातक स्तर की पढ़ाई कर रहे हैं. यूपीए सरकार के शहरी कार्यक्रम, जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) के दौरान भी क्षमताओं का अभाव एक कठिन समस्या थी. इसके अलावा, स्मार्ट सिटी मिशन के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी एक प्रमुख कारण है. शायद इस वजह से भी इस दिशा में ठोस काम नहीं हो पा रहा है.
यूपीए सरकार के दौरान भी इसी तरह की समस्याएं थीं. जेएनएनयूआरएम को भी इसी तरह कार्यान्वयन और वित्तीय सहायता स्तर पर कमी का सामना करना पड़ा था. 2014 तक, शहरी बुनियादी सुविधाओं के 37 फीसदी और बुनियादी शहरी सेवा परियोजनाओं की 52 फीसदी परियोजनाएं ही जेएनएनयूआरएम के तहत पूरी हो पाई थीं. अब, स्मार्ट सिटी मिशन से जुड़ी ऐसी खबरें आने के बाद सरकार की तरफ से सभी चुने गए स्मार्ट सिटी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की बैठक करने जा रहा है. ऐसी खबर है कि खुद प्रधानमंत्री भी इसे लेकर शीर्ष अधिकारियों के साथ बैठक कर सकते हैं.