2019 का लोकसभा चुनाव करीब आते ही लोगों पर उन्माद का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है. इलाके में राजनीतिक, जातीय व धार्मिक उन्माद से माहौल तनावग्रस्त होने लगा है. सरकार, प्रशासन अथवा स्थानीय स्तर पर कोई ऐसी सार्थक पहल नहीं की जा रही है, जिससे उन्मादी माहौल पर विराम लगाया जा सके.
हाल में घटित कुछ घटनाओं को अगर चुनावी नजरिए से देखें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि अब दलगत व जातिगत के साथ धार्मिक भावनाएं भी चुनावी माहौल का अहम हिस्सा बनने लगी हैं. सीतामढ़ी जिले में एक साल के भीतर घटित कुछ घटनाओं को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है. इन घटनाओं में सामाजिक विद्वेष से लेकर धार्मिक भावनाओं को आहत करने तक का मामला सामने आ चुका है.
अप्रैल 2017 में सीतामढ़ी जिले के डुमरा प्रखंड अंतर्गत बेरबास गांव में तब माहौल खराब हो गया था, जब कुछ शरारती तत्वों ने धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला एक पोस्ट सोशल मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक किया. जून में नानपुर प्रखंड के बनौल में धार्मिक मामलों को लेकर विवाद बढ़ा था. इसी माह शहर के जानकी स्थान में विश्व कप के फाइनल में भारत की हार पर कुछ लोगों द्वारा जश्न मनाया गया. आतिशबाजी कर देश विरोधी नारे भी लगाए गए, जिसको लेकर दो पक्षों के बीच तनाव का माहौल बना. ऋृाल 2017 में ही दुर्गापूजा व मुहर्रम के दौरान सीतामढ़ी जिले के बाजपट्टी, नानपुर व बैरगनिया प्रखंड के अलावा शहर के जानकी स्थान में साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ा था.
मार्च 2018 में पुपरी व अप्रैल में पुन: शहर के जानकी स्थान में दो पक्षों के बीच तनाव बढ़ा था. उक्त तमाम घटनाओं पर काबू पाने के लिए जिले के आला अधिकारियों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी. डीएम राजीव रौशन व एसपी हरि प्रसाद एस द्वारा संयुक्त रूप से घटना की सूचना पर त्वरित कार्रवाई के कारण बड़ी घटना टलसकी. मगर उक्त तमाम स्थानों पर उत्पन्न सामाजिक विद्वेष की चिंगारी अब तक सुलग रही है. सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय कुछ लोगों की मानें तो उक्त मामलों में प्रशासन ने त्वरित कार्रवाई करते हुए दोषियों के अलावा निर्दोष लोगों को भी गिरफ्तार कर लिया.
निर्दोष लोगों को भी कानूनी पचड़ों का सामना करना पड़ा. अब तक इन मामलों में समुचित पहल नहीं की गई है. इसे लेकर भी लोगों में रोष व्याप्त है. इधर 2 अप्रैल 2018 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एससी-एसटी एक्ट में संशोधन किए जाने की जानकारी के बाद आहूत भारत बंद के दौरान सामाजिक विद्वेष और भी बढ़ा है. अभी यह विवाद थमा भी नहीं था कि 10 अप्रैल को पुन: भारत बंद की घोषणा ने रही-सही उम्मीद भी खत्म कर दी. यह अलग बात है कि 10 अप्रैल को भारत बंद के दौरान सीतामढ़ी जिले में कोई अप्रिय घटना नहीं हुई.
लोगों का कहना है कि जब भी जिले में कोई घटना होती है, तब अफवाह जोर पकड़ने लगता है. प्रशासनिक अधिकारी मौके पर पहुंच कर मामले को शांत तो कर देते हैं, लेकिन सामाजिक सद्भावना कायम करने के स्थायी प्रयास नहीं किए जाते हैं. राजनीतिक दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका भी इन तनावग्रस्त क्षेत्रों में संदिग्ध रही है. वहीं सामाजिक कार्यकर्ता यह कह कर अपना पल्लू झाड़ लेते हैं कि घटना राजनीति से प्रेरित है, इसलिए ऐसे मामलों में पड़ना मुनासिब नहीं है.
नतीजतन दलगत और जातिगत के साथ बढ़ते धार्मिक उन्माद को रोकने के लिए किसी भी स्तर से पहल की गुंजाइश नजर नहीं आ रही है. जिले के आला अधिकारियों को आमलोगों के बीच विश्वास कायम रखने के लिए बेहतर संबंध स्थापित करना चाहिए. किसी भी उन्मादी माहौल के लिए दोषी व्यक्ति पर समुचित कार्रवाई करनी चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो समाज में शांति बहाल रख पाना मुश्किल होगा. उन्माद का यह संक्रामक बुखार समाज के लिए घातक साबित हो सकता है.