नरेंद्र मोदी की सरकार ने रेल के किराये में ऐतिहासिक 14.2 फ़ीसद की वृद्धि कर दी. साथ ही यह भी ख़बरें आ रही हैं कि रक्षा क्षेत्र की तरह रेलवे में भी अब 100 फ़ीसद विदेशी पूंजी निवेश लाया जाएगा. रेल के किराये में इतनी ज़्यादा वृद्धि पहले कभी नहीं देखी गई. रेल के किराये में बढ़ोतरी का मतलब यह है कि वे सभी चीजें, जिनका रिश्ता रेलवे से है, अब महंगी हो जाएंगी. क्या हमारी चेतावनी सही साबित हुई है कि मोदी सरकार कांग्रेस की नीतियों को ही आगे बढ़ाने का काम करेगी. वही नीतियां, जिनमें ग़रीबों से पैसा छीनकर उद्योगपतियों को फ़ायदा पहुंचाया जाता है. वही नीतियां, जो देश के पांच फ़ीसद लोगों के लिए फ़ायदे और बाकी के लिए परेशानी का कारण हैं. भारतीय रेल की माली हालत खराब है, तो क्या उससे निपटने का रास्ता स़िर्फ यही है? या फिर मोदी सरकार यह आश्वासन देगी कि अब अगले पांच सालों तक रेल के किराये को बढ़ाया नहीं जाएगा.
महंगाई अचानक बढ़ती नज़र आ रही है. इस महंगाई ने अचानक उन लोगों को अचंभित किया है, जो यह माने बैठे थे कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे और महंगाई कम होगी. यह आशा गलत साबित हुई. नरेंद्र मोदी जी ने पहला बयान दिया कि देश की आर्थिक स्थिति पटरी पर लाने के लिए कड़े ़फैसले करने होंगे. इस बयान ने संकेत दिया कि देश के लोगों की मुसीबत बढ़ने वाली है और घटने का कोई चिन्ह दिखाई नहीं दे रहा है. जब हम कहते हैं कि देश के लोगों की मुसीबत बढ़ने वाली है, तो इसका मतलब उन बीस प्रतिशत लोगों से नहीं होता है, जिनके हाथ में पैसा केंद्रित है, क्योंकि सब्जी, दाल, चावल, तेल, घी कितना भी महंगा मिले, उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता. गैस की क़ीमतें कितनी भी बढ़ जाएं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता. पेट्रोल और डीजल की बढ़ती क़ीमतों का उन पर असर नहीं होता. असर होता है उन अस्सी प्रतिशत लोगों के ऊपर, जो महीने में एक हज़ार रुपये से लेकर तीस हज़ार रुपये तक कमाते हैं. इस कमाने में पूरे घर का योगदान होता है. बच्चों की पढ़ाई इसी वर्ग की चिंता है. स्वास्थ्य इसी वर्ग की चिंता है. महंगाई भी इसी वर्ग की चिंता है. इसलिए जब भी सरकार बयान देती है या प्रधानमंत्री बयान देते हैं, तो उसका मतलब होता है कि जिनके हाथों में पैसा है या जो श्रीमंत वर्ग है, उसके अलावा जितने भी लोग हैं, उनकी परेशानियां बढ़ने वाली हैं, उनकी मुसीबतें बढ़ने वाली हैं.
प्रधानमंत्री के बयान को सात दिन भी नहीं बीते थे कि देश के वित्त मंत्री ने बयान दिया कि हम अनाज का, दालों का आयात करेंगे. अगर देश में महंगाई कम नहीं होती है, तो हम विदेश से मंगाएंगे. यह बयान पिछले कृषि मंत्री शरद पवार जी की याद दिला गया. शरद पवार ने हमेशा यह कहकर कि हम इस वस्तु का आयात करेंगे या इस वस्तु की क़ीमत बढ़ने वाली है या कमी होने वाली है, महंगाई को बढ़ाया. यह शायद अफ़सोस की बात मान सकते हैं कि अरुण जेटली शरद पवार के पदचिन्हों पर चल पड़े हैं. इस सरकार में एक और वाक्य बड़ी तेजी से चल रहा है, हम नज़र रखे हुए हैं. महंगाई के ऊपर अरुण जेटली नज़र रखे हुए हैं, इराक के ऊपर सुषमा स्वराज नज़र रखे हुए हैं, देश में बढ़ रही समस्याओं के ऊपर अलग-अलग मंत्री नज़र रखे हुए हैं. लेकिन, हल कहां हैं?
नरेंद्र मोदी की सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि देश के लोगों ने जिस विश्वास के साथ अपना वोट देकर सरकार बनवाई, वे ग़रीब लोग हैं, वे श्रीमंत लोग नहीं हैं. ये वही एक हज़ार से लेकर तीस हज़ार रुपये की तनख्वाह पाने वाले लोग हैं, जिन्होंने इस आशा में कि उनकी समस्याओं का तत्काल हल निकलेगा और उन्हें बेरोज़गारी एवं भ्रष्टाचार से कुछ मुक्ति मिलेगी. लेकिन, उनकी आशाओं पर तुषारापात हो रहा है. इस वर्ग में इतनी जल्दी निराशा नहीं पनपेगी, लेकिन एक अविश्वास पैदा हो सकता है कि सरकार उनकी समस्याओं को लेकर गंभीर नहीं है. अब इस अविश्वास से निपटने का क्या तरीका हो सकता है? इस अविश्वास को पुन: विश्वास में बदलने के लिए मोदी सरकार को ज़रूर कुछ न कुछ करना पड़ सकता है.
नरेंद्र मोदी की सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि देश के लोगों ने जिस विश्वास के साथ अपना वोट देकर सरकार बनवाई, वे ग़रीब लोग हैं, वे श्रीमंत लोग नहीं हैं. ये वही एक हज़ार से लेकर तीस हज़ार रुपये की तनख्वाह पाने वाले लोग हैं, जिन्होंने इस आशा में कि उनकी समस्याओं का तत्काल हल निकलेगा और उन्हें बेरोज़गारी एवं भ्रष्टाचार से कुछ मुक्ति मिलेगी. लेकिन, उनकी आशाओं पर तुषारापात हो रहा है. इस वर्ग में इतनी जल्दी निराशा नहीं पनपेगी, लेकिन एक अविश्वास पैदा हो सकता है कि सरकार उनकी समस्याओं को लेकर गंभीर नहीं है.
हमें यह विश्वास रखना चाहिए कि लोगों का विश्वास दोबारा अर्जित करने के लिए नकली समस्याएं नहीं बनाई जाएंगी. श्री मनमोहन सिंह के समय में चली आर्थिक नीतियों ने देश में इतनी आर्थिक समस्याएं पैदा कीं, क्या उन्हीं आर्थिक नीतियों पर चलकर इन समस्याओं का सामना किया जा सकता है? इस सवाल का जवाब न चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने दिया और न अब दे रहे हैं. इसका मतलब है कि ये नीतियां देश की स्थितियों को संभालने के लिए नहीं, बल्कि नई विदेशी कंपनियों के इशारे पर बनी हुई नीतियां हैं. ये नीतियां सोच-समझ कर बनाई गई हैं, जिनके दायरे से इस देश के सत्तर-अस्सी प्रतिशत लोगों को बाहर कर दिया गया है.
महंगाई, बेरोज़गारी व भ्रष्टाचार का स़िर्फ और स़िर्फ एक जवाब है, वह जवाब है देश के गांवों का औद्योगिकीकरण. कच्चा माल शहर में पैदा नहीं होता, गांव में पैदा होता है. गांव के कच्चे माल को पक्के माल में बदलने का काम गांव में ही होना चाहिए. इस ़फैसले को लिए बिना न महंगाई का मुक़ाबला हो सकता है, न भ्रष्टाचार का और न बेरोज़गारी का. ऐसा नहीं है कि यह बात सरकारें जानती नहीं हैं, लेकिन सरकारें इसे करना नहीं चाहतीं. क्योंकि, अगर वे ऐसा करेंगी, तो इस बदले हुए देश में लोग जागरूक हो जाएंगे और फौरन पकड़ लेंगे कि कमजोरी कहां है या गड़बड़ी कहां है. और, इसीलिए कोई भी सरकार आने वाले पैसों से कुछ प्रतिशत लोगों को धनी होने से रोकना नहीं चाहती. एक सत्तारूढ़ क्लब है, जिसमें सांसद चाहे पक्ष के हों या विपक्ष के, उद्योगपति, कुछ पत्रकार, कुछ ब्यूरोक्रेट, इन सबको मिलाकर एक रूलिंग क्लब बनता है. चाहे किसी की सत्ता हो, यही लोग राज करते हुए दिखाई देते हैं. इनका महत्व कभी कम नहीं होता, इसलिए ये सारे लोग व्यवस्था को बदलना ही नहीं चाहते हैं.
और, जब व्यवस्था बदलने का शब्द आता है, तो उस शब्द का एक ही मतलब होता है कि इस देश में शहर आधारित उद्योगों के साथ-साथ गांव आधारित उद्योग भी लगें और ग्रामीण कच्चे माल के आधार पर एक बड़ी औद्योगिक योजना बनाई जाए, जिसमें प्रोडक्शन, फिनिशिंग और मार्केटिंग की व्यवस्था हो. जब तक सरकार और राजनीतिक पार्टियां इसे अपना आदर्श नहीं मानतीं, तब तक यह बिल्कुल नहीं मानना चाहिए कि इस देश से महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी के ख़त्म होने की आशा या दिशा में एक क़दम भी आगे बढ़ा जा सकता है. अभी तो श्री नरेंद्र मोदी से यह अपील की जा सकती है कि वह लोगों की इच्छाएं पूरी करने और लोगों की समस्याएं हल करने में अपनी क्षमता, अपनी ताकत लगाएं. ताकि लोग, जिन्होंने उन्हें विश्वास दिया है, वे अविश्वास के झूले में न झूलने लगें.