यकीनन ! दुनिया और समाज के लिए सिर्फ एक बंदा ही काफी है। फिर वह चाहे महात्मा गांधी हों, नरेंद्र मोदी हों या किसी छोटी सी जगह का एक सामान्य सा वकील । कोई मूर्ख महात्मा गांधी से नरेन्द्र मोदी की तुलना न समझ बैठे। संदर्भ सबके अलग अलग हुआ करते हैं। लेकिन यहां हम जिस संदर्भ और व्यक्ति की बात कर रहे हैं वह एक वकील हैं पीसी सोलंकी। जोधपुर कोर्ट के सामान्य से वकील। जब किसी सामान्य से व्यक्ति का मन कुछ ठान लेता है तो वह क्या क्या नहीं कर सकता। यही कहानी है एक फिल्म की , जिसका नाम है ‘सिर्फ एक बंदा ही काफी है’।
इस बार ‘सत्य हिंदी’ के कार्यक्रम ‘सिनेमा संवाद’ में मनोज वाजपेई के बहाने इस फिल्म पर चर्चा हुई । कोई भी और कैसी भी चर्चा तब मन को भाती है जब वह आपके मन के अनुकूल होती है। जिस किसी ने इस फिल्म को देखा होगा वह इस चर्चा को रोचकता से देखेगा और सुनेगा। इस चर्चा में अच्छी बात यह हुई कि अमिताभ ने फिल्म निर्माण से जुड़े दो महत्वपूर्ण लोगों को आमंत्रित किया था। एक तो फिल्म के कहानीकार दीपक किंगरानी, जिनकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है । और दूसरे सुपर्ण एस वर्मा । तथाकथित संत आसाराम की घटना के केंद्र में कोई यह न समझ बैठे कि यह आसाराम के ऊपर बनी फिल्म है । न, कतई नहीं। यह फिल्म है उस लड़की की है जिसने आसाराम के कुकर्मों के खिलाफ डट कर इस केस को लड़ा और उस वकील की है जिसने एक बार ठान लिया तो ठान लिया। देश का सबसे हाई प्रोफाइल और डरावना केस । बड़े बड़े वकीलों को खरीदने की उसकी ताकत। जिंदगी के खतरे लेकिन इन सबके खिलाफ एक जिद । सब कुछ हुआ। हमले भी हुए। पर बड़े बड़े वकील राम जेठमलानी, सुब्रमण्यम स्वामी और सलमान खुर्शीद जैसे वकीलों के सामने उसकी जिद ही काम आई । इस जिद का प्रस्फुटन कहां होता है जब वकील से पूछा जाता है कि फीस क्या लेंगे तब वह वकील हल्की सी मुस्कान से कहता है – बच्ची की हंसी । क्या ऐसा आज के हमारे समाज में संभव है। लगता तो नहीं। इसीलिए उस वकील को सलाम, जो जेठमलानी, स्वामी और खुर्शीद के सामने डट कर खड़ा रहा, क्षण भर को घबराया नहीं और अंततः जीता।
अमिताभ ने इस फिल्म पर चर्चा करवा कर एक खूबसूरत काम यह किया है कि आने वाले समय में इसे एक मिसाल समझा जाएगा । आज के इस नासमझ आने वाले समय में अच्छे विषयों का चुनाव और उन पर सटीक टिप्पणियां करने वाले लोग आसानी से उपलब्ध नहीं होते । संयोग से अमिताभ की मित्रता अजय ब्रह्मात्मज जैसे फिल्म समीक्षकों से है जिन्हें सुनना भाता है । ये वैसे ही हैं जैसे विनोद शर्मा, नीरजा चौधरी, अभय दुबे, आलोक जोशी , शीतल पी सिंह आदि । और भी कई प्रबुद्ध हैं । ये लोग जब भी आएं तो इनको सुनने की इच्छा होती है। यह सच है कि मुझे आजकल यूट्यूब पर होने वाली राजनीतिक चर्चाओं से बेहद चिढ़ है और उसके कारण भी हैं । फिर भी इन लोगों की टीका टिप्पणी पसंद आती है वजह कि इनकी बातों और तर्कों में दम होता है। मैं अपने सभी मित्रों से अपील करूंगा कि यह फिल्म जरूर देखें और पहले या बाद में ‘सिनेमा संवाद’ की यह चर्चा भी सुनें। मनोज वाजपेई की धारदार एक्टिंग के लिए भी। मनोज वाजपेई के लिए अजय ब्रह्मात्मज ने एक बढ़िया बात कही कि वे आत्महंता हैं। खुद को मारते हैं फिर फिर उठते हैं। अमिताभ को शायद याद हो कि नब्बे के दशक में मनोज वाजपेई अरुण पाण्डेय के यहां आया करते थे और हम वहीं उनसे मिला करते थे।
पिछले हफ्ते ‘अभय दुबे शो’ नहीं आया। लगा रविवार सूना रह गया। नयी संसद का उद्घाटन था। चिल्लपों ज्यादा थी। संदेश मिला कि आज शो नहीं आएगा संतोष सर दिल्ली से बाहर हैं । लग तो हमें रहा था फिर भी हमने मजाक किया मोदी से डर कर चले गये ? बच्ची से मजाक था। बहरहाल, इस बार संतोष जी ने सवालों की झड़ी नहीं लगाई इसलिए क्रमवार जवाब भी अच्छे लगे। जानकारियां भी मिलीं। मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार का क्या आलम है। एक रिश्तेदार की बात से उन्होंने बताया कि मंत्री के यहां प्रवेश का पासपोर्ट क्या होता है। एक जानकारी और मिली कि संसद में एक भित्ति चित्र है जिसमें ‘अखंड भारत’ का नक्शा है । इसमें आस पास के देश समाहित हैं। अभय दुबे ने स्पष्ट और जोर देकर कहा कि इनकी बुरी गत बनेगी। समझ लीजिए किसकी । अभय जी ही अक्सर कहते हैं कि ये लोग एक आज्ञापालक समाज बनाना चाहते हैं। बस इसीलिए इनकी बुरी गत बनेगी। दुनिया का एकदम अलग और अनोखा समाज है भारत। उसे आज्ञापालक बनाने की धृष्टता कोई मूर्ख ही कर सकता है।
‘वायर’ ने ‘कड़वी कॉफी’ के नाम से एक नया और जानकारी परक कार्यक्रम शुरु किया है। इसका संचालन अपूर्वानंद कर रहे हैं। इस प्लेटफार्म पर कई अच्छी रिपोर्ट आती रहती हैं जैसे ‘न्यूज लॉन्ड्री’ पर आती हैं।
कल मैंने लिखा था कि कोई एक जबरदस्त आंदोलन इस सत्ता के चुनाव तक जारी रहना चाहिए। पहलवानों का आंदोलन दम तोड़ता दिख रहा है। लड़कियां अपनी अपनी नौकरी पर चली गई हैं। समझ नहीं आता जो लड़कियां अपने सम्मान और जीवन की कमाई को गंगा में प्रवाहित करने निकल पड़ी थीं वे नौकरियों की तिलांजलि नहीं दे सकतीं ? वे जिस मुकाम पर आज हैं वहां सैकड़ों नौकरियां उनके कदमों में न्योछावर होंगी। पर आंदोलन खत्म तो इस क्रूर सत्ता की बन आई समझिए। फिलहाल जो संदेश जा रहा है वह कतई उचित नहीं है।
एक बार फिर कल की बात कि जब तक असंगठित क्षेत्र नहीं जागता बित्ता भर भी फर्क नहीं पड़ने वाला। कर्नाटक का उदाहरण न दें, कृपया। कितनी ही बहस मुबाहिसें कर लें। सोशल मीडिया पर कितनी ही चर्चाएं हो जाएं। हमारे एक मित्र जगदीश्वर चतुर्वेदी ने आज फेसबुक पर लिखा – ‘दिल्ली में थिंकरों का जमघट है, जनता में वैचारिक चेतना गायब है’ । सोचिए!
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