पांच जनवरी 2021 के दिन हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है जिसका मै तहे-दिल से स्वागत करता हूँ ! वह फैसला है घरेलू काम करने वाली महिलाओं के (हाऊस वाईफ) विषय पर 2014 मे एक एक्सिडेंट में एक महिला की मृत्यु होने के बाद बीमा कंपनिको उसके परिजनों को कितना मुआवजा देना है ? इस बाबतका मामला था और वह निचले कोर्ट ने एक घरेलु काम करने वाली महिलाओं के हिसाब से कुछ चार-साडेचार हजार तय किया था ! जिसे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपस्थित करने के बाद पाँच जनवरी यानी आज से ग्यारह दिन पहले फैसला सुनाया है ! कि घरेलू काम करने वाली महिलाओं के काम का मूल्यांकन ऑफिस में काम करने वाले पुरुषों या महिलाओं से कहीं भी कम नहीं है!और उस निर्णय मे कुछ लाख रुपये देने के लिए बीमा कंपनिको आदेश दिया है !

क्योंकि हमारे देश में घरेलू काम करने वाली महिलाओं के काम कभी भी किमत तो छोडिये उसे महत्वपूर्ण भी नहीं माना जाता है ! अगर कोई महिला अपने परिचय में बताये कि वह घर काम करने वाली हाउस वाइफ है तो हर कोई उसे अनदेखा कर के आगे बढते हैं और वही परिचय में कोई महिला अपने परिचय में डॉक्टर,टीचर,या कुछ और नौकरी की कहे तो उसे गौर से लिया जाता है और बातें आगे बढती है !

वैसे भी हमारे देश के घरेलू काम करने वाली महिलाओं के भीतर भी एक कुंठा बोध होता है कि वह तो सिर्फ हाऊस वाईफ है ! तो उसमें कौन बडी बात है ? लेकिन घरेलू काम का स्वरूप देखे तो वह सतत करने वाली प्रक्रिया है ! जिसमें आराम करने के लिए बहुत ही कम गुंजाइश है ! और विलक्षण थकान वाले उबाऊ किस्म के काम होते हैं ! और वह रोज ही करने पडता है उदाहरण के लिए खाना बनाना,कपड़े धोने या घर की साफ-सफाई जैसे काम करने के लिए विशेष मेहनत और हुनर की जरूरत है पर इस बात का किसीकोभी ख्याल नहीं है और वह काम करने वाली महिलाओं को भी नहीं लगता है कि वह कोई विशेष कार्य कर रहे हैं !

साथियों मैंने यह काम 1979 से यानी हमारे शादी के बाद मुख्यतः संतान प्राप्ति के बाद लगभग दस साल किया है ! क्योंकि हमारी शादी आंतरजातिय शादी होने के कारण हमारे दोनों तरफ के नाते-रिश्तेदार नाराज होने के कारण हम बहिष्कृत थे ! और आज 16 जनवरी काही दिवस है 1979 के दिन हम लोग भंडारा मैरेज रजिस्टर कार्यालय में दो दोस्तों के साथ जाकर रजिस्टर मैरेज किये जिसमें डेढ रूपये का नोटिस का खर्च छोडकर और कोई भी खर्च नहीं किया था ! निमंत्रण पत्र,पार्टी,नये कपडे और गहनों का तो सवाल ही नहीं उठता है !

तो जब शादी की उस समय हम जेपिकी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के महाराष्ट्र में नई नई शुरुआत करने के काम में पूर्ण समय कार्यकर्ता थे ! और मेरी पत्नी केंद्रीय विद्यालय संगठन में टीचर थी !
1980 के फरवरी में हमें पुत्र हुआ तो मैडम जी को सिजेरियन ऑपरेशन करने के कारण उन्हें टोटली बेडरेस्ट सव्वा महिने के लिए कहा गया था ! और हमारे नाते-रिश्तेदार की मदद मिलने का सवाल ही नहीं उठता था और हमारी माली हालत में नौकर-चाकर रखने की कोई गुंजाइश नहीं थी !
अंत में मैंने निर्णय लिया कि नहीं तो भी हम संपूर्ण क्रांति की संकल्पना बोलते हुए कहा करते थे कि यह काम औरत का और वह काम पुरूषों का यह भेदभाव बिल्कुल नहीं रहेगा ! और यही असली क्रांती है वगैरा वगैरा तो जब शादी की है और बच्चे को पैदा किया है और पत्नी ऑपरेशन के बाद बेडरिडन है तो घर की साफ-सफाई से लेकर खाना बनाने और कपड़े धोने से लेकर मैडम जी के ऑपरेशन के बाद ड्रेसिंग और बच्चे को नहलाने से लेकर उसके टट्टी पेशाब साफ करने के काम की शुरुआत मजबुरी में मुझे करनी पडी!तब पता चला कि संपूर्ण क्रांति पर भाषण देने की बात कितनी आसान है ! और यह घरेलू काम कितना कठिन है !

इसी तरह आटा मलना रोटियाँ सेंकने और खाने के लिए अन्य व्यंजन बनाने की मेहनत और हुनर की किमत तबतक पता ही नहीं थी लेकिन जब खुद को करने की नौबत आ गई तब हर एक काम का मूल्य पता चलने लगा था और वह काम अथक दस साल किया है ! और इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय के पांच जनवरी के घरेलू काम करने वाली महिलाओं के काम का मूल्यांकन ऑफिस में काम करने वाले लोगों से कही भी कम नहीं है ! यह बात मुझे आजसे चालीस साल पहले ही कदम कदम पर पता चला है ! और इसीलिए मै इस निर्णय का हृदय से स्वागत करता हूँ और सर्वोच्च न्यायालय के उन दोनों न्यायाधीशों को ऐसा निर्णय देने के लिए विशेष रूप से धन्यवाद देता हूँ !

काफी मित्र पूछते थे कि तुम्हें कोई कुंठा या तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो ऐसा लगता है ? और आज पिछे मुडकर देखने के बाद लगता है कि बिल्कुल भी नहीं हालांकि तब भी मुझे नहीं लगता था कि मै कुछ नहीं कर रहा हूँ !
कभी कोई पूछता था कि आप क्या करते हो तो मैंने बगैर हिचकते हुए कहा कि मै हाऊस हजबंड हूँ !
आखिरकार महात्मा गाँधी के जीवन को देख कर मेरे जैसे आदमी को उनके दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत के सभी आश्रमों की जीवन शैली में कोईकाम ऐसा नहीं है कि यह काम औरत का वह काम पुरूषों का या वकील,संपादक,लेखक इत्यादि फर्क नहीं दिखाई देता है ! सभी काम यानी पाखाना साफ करने से लेकर खाना बनाने और कपड़े धोने से लेकर आश्रम की साफ-सफाई ,खेती बाडी से लेकर चप्पलें बनाने से लेकर बढई,घर बनाने से लेकर छापखाना और लेखन करने से लेकर आश्रम में रह रहे बच्चों की पढ़ाई से लेकर ऊनके देखभाल तक

जैसे काम करने के लिए विशेष रूप से कभी कोई भेदभाव नहीं दिखाई देता है ! और भारत की जातीव्यवस्था पर इससे अधिक प्रभावी प्रयोग और क्या हो सकता है क्या ?
हमारे देश के जाति गत चरित्र को देखे तो वह सतत हर कदम पर पता चलता है कि फलाँ फलाँ काम इस जाति का है और वह उस जाति का काम है !
मेरी समझ से महात्मा गांधी भारत के पहले व्यक्ति है जिन्होंने अपने सभी आश्रमों की जीवन शैली में कोई भी काम जाँत और लिंग के उपर आधार पर नहीं है ! और जातितोडने वाले नारों से ज्यादा दैनंदिन जीवन शैली में कोई ऐसा नहीं है कि वह काम एक खास किस्म के जाति का आदमी या औरत ही करेंगे !


आप्पासाहब पटवर्धन कोकणस्थ ब्राह्मण ने मरा हुआ बैल या गाय के चमडे को निकालने का काम करने की कृति कोई साधारण कृती नहीं है और वह पाँच हजार साल पहले से चली आ रही उचनिच पर आधारित समाज व्यवस्था पर गहरी चोट है लेकिन बिल्कुल ही अहिंसा की पक्षधर इसमें किसी भी तरह के जोर जबरदस्ती का सवाल ही नहीं उठता ! और यह बात आजसे सौ साल पहले के कोंकण विभाग मे ! डॉ बाबा साहब अंबेडकर जी को भी प्रतिज्ञा दिलानी पड़ी थी कि अब दलित किसी भी तरह के मरे हुए प्राणियों की चमड़ी नहीं निकालना! और यह बात उनकी शत-प्रतिशत सही थी कि दलितों को अछूत घोषित करने के लिए विशेष रूप से उनके हिस्से में परंपरा से जो भी काम चले आरहे थे वह लगभग सभी गंदगी साफ करने से लेकर मरे हुए प्राणियों को उठाने से लेकर चमड़ी के काम करने के कारण अस्पृश्यता का जन्म हुआ है और वह तोड़ने के लिए बाबा साहब ने विशेष घोषणाओ को जन्म दिया है ! उसके पीछे की पूरी बात समझनेके लिए विशेष रूप से उसकी जाँत मे पैदा हुए बगैर हर किसी को संभव नहीं है !


और यह प्रयोग महात्मा गाँधी के अलावा उनके अनुयायियों में जैसे आप्पा साहब पटवर्धन, आचार्य विनोबा भावे , ठक्कर बाप्पा इत्यादि लोगों के नाम लिया जा सकता है!
हालाँकि दक्षिण अफ्रीका में जब वह थे शायद कस्तूरबा गाँधी जी के डिलीवरी के काम में गांधी जी के हाथों ही मदद हुई है और वह काम उनके अन्य कामों की तुलना मे अनदेखी किया गया है ! उनके अफ्रीका में रह रहे भारतीयों की मुक्ति के लिए काफी लिखा बोला जाता है ! और वैसे ही भारत के स्वाधीनता संग्राम से लेकर अन्य रचनात्मक कामो पर हजारों पन्नों की किताबें मौजूद है लेकिन चंपारण के आश्रम से लेकर आखिरी आश्रम सेवाग्राम तक आश्रम की दैनंदिन जीवन शैली में कोई ऐसा काम नहीं है कि वह कोई काम नहीं कर रहे थे ! परचुरे शास्त्री जैसे महारोगी के जख्म धोने से लेकर पाखाना साफ करने से लेकर खाना बनाने और कपड़े धोने से लेकर कपड़े बुनने की है और खेती तथा अन्य सभी तरह के श्रमिकों के काम करने का प्रयास

मुझे लगता है कि कार्ल मार्क्स ने श्रमिक शोषणकारी व्यवस्था पर बहुत ही बेहतरीन और शास्त्रीय मीमांसा की है और आज भी वह विश्लेषण अपनी जगह पर कायम है !
लेकिन व्यक्तिगत जीवन में श्रम का क्या स्थान है ? हमारे खुद के लिए कोई भी जरूरी काम करने वाले लोगों को क्या हो रहा है ? और वह भी एक मनुष्य या महिलाओं के नाते यह सूक्ष्म चिंतन और प्रत्यक्ष उदाहरण आप सिर्फ महात्मा गाँधी जी के जीवन का बेहतरीन समय इसी तरह के प्रयोग करने मे ही गया है और इसीलिए उन्होंने अपने आत्मकथा का टाइटल सत्य के प्रयोग दिया होगा !

तो मुख्य बात है कि स्त्री के लिए विशेष रूप से नियत काम के मूल्य निर्धारण जो शायद भारत के इतिहास में प्रथम बार और वह भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किया जाना इतनी निराशाजनक स्थितियों में एक आशा की किरण लगती है ! हालाकि गत छह साल से भी ज्यादा समय से भारत की सभी संविधानिक संस्थाओं कि स्थिति बहुत ही संगीन दौर से गुजर रही है ! लेकिन जमाते उल उलेमाओं की केस से लेकर लव-जेहाद और अबकी यह घरेलू काम करने वाली महिलाओं के काम का मूल्यांकन ऑफिस में काम करने वाले लोगों की बराबरी में करने के लिए विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का हृदय से स्वागत करता हूँ और सर्वोच्च न्यायालय के उन दोनों न्यायाधीशों को ऐसा निर्णय देने के लिए विशेष रूप से धन्यवाद


डॉ सुरेश खैरनार,नागपुर

 

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