झारखंड की राजधानी रांची से 35 किलोमीटर दूर स्थित है बेड़ो प्रखंड. यहां खस्सी टोली की जामटोली पहाड़ी की तलहटी के निचले क्षेत्रों में एक शख्स पिछले सात दशक से प्रकृति की प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझता आ रहा है. अपने अदम्य साहस, दृढ़ संकल्प, जीवन के प्रति असीम आस्था और प्रकृति से मिले व्यवहारिक ज्ञान के बल पर उन्होंने बंजर जमीन को खेती के लायक बनाया. अनपढ़ होने के बावजूद उन्होंने अपनी ग्रामीण तकनीक से जल प्रबंधन और वन संरक्षण को नया आयाम दिया. किसी पर्यावरणविद् तथा कृषि वैज्ञानिक जैसी गहरी सोच रखने वाला यह शख्स, इस क्षेत्र के हर व्यक्तिके लिए प्रेरणा का स्त्रोत बना हुआ है. वे किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. 84 वर्षीय पड़हा राजा सेमोन उरांव को पूरे क्षेत्र में सेमोन बाबा के नाम से जाना जाता है.
15 मई, 1932 को पड़हा राजा बेड़ा उरांव के घर जन्मे सिमोन ने होश संभालते ही अपने को गंभीर आर्थिक कठिनाइयों से घिरा पाया. महज दस वर्ष की उम्र में अपनी बंजर जमीन में सबसे पहले शकरकंद की खेती की. इसके बाद दूसरी फसलें लगानी शुरू की. फसल बेचने से मिले पैसों से उनका उत्साह बढ़ा. जामटोली पहाड़ी के निकट दूर-दूर तक ज़मीन पथरीली और बंजर थी. ऊंची-नीची इस भूमि पर खेती करना संभव नहीं था. सिमोन के परिवार वालों के पास कुल 11 एकड़ ज़मीन थी, वह भी उबड़-खाबड़, नदी-नालों और कटीली झाड़ियों से भरी पड़ी थी. जामटोली पहाड़ी में एक नाला बहता था, यहां संंकरे-गहरे नाले को झरिया नाला कहा जाता है. महज 15 वर्ष की उम्र में सिमोन ने झरिया नाला को बांधने का साहसिक निर्णय लिया.
अपने पिता की प्रेरणा से कुछ ग्रामीणों के साथ वह इस अभियान में जुटा. शुरूआत में कटीली झाड़ियों से घिरी पथरीली ज़मीन पर कुदाल चलाना मुश्किल साबित हुआ. कई दिनों के बाद सफलता हाथ लगी और एक छोटा बांध बनकर तैयार हुआ. लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन जैसे ही बरसात आई बांध टूटकर बह गया. सिमोन ने हार नहीं मानी और ग्रामीणों की मदद से दोबारा प्रयास किया और दूसरी जगह बांध बनाने का निर्णय लिया. लेकिन बांध बारिश के कारण फिर टूट गया. इस बार सिमोन ने फिर हिम्मत नहीं हारी और खड़बागड़ा नाले को ग्रामीणों की मदद से बांधा गया. बांध बनने के बाद उसमें 21 फीट पानी था.
उनके अथक प्रयास के बाद बांध के आसपास की ज़मीन खेती के लायक बनती गई. सिमोन ने बैल तथा भैंसे की मदद से जमीन को समतल बनाया. बंजर जमीन तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद सिमोन के प्रयास से आसपास लगभग सत्तर एकड़ जमीन खेती के लायक बनी. सिर्फ नेरपतरा के निकट 17 फीट गड्ढे में मिट्टी भरकर दस एकड़ जमीन को खेती के लायक बनाया.
डोंकटाड़ नाला तथा अंतबालू नामक स्थान पर बीस एवं सत्ताइस फीट गहरे नाले एवं गड्ढे नाले को सिमोन ने ऊपरी बंजर भूमि को काटकर अत्यंत परिश्रम से मिट्टी से भरा और लगभग 12 एकड़ जमीन खेती के लायक बनाई. खाबड़गढ़ा के निकट गहरे खड़नुमा जमीन में 23-23 फीट मिट्टी डाली और सात एकड़ भूमि को खेती के लायक बनाया. इस तरह बंजर भूमि को खेती के लायक बनाने का सिलसिला जारी रहा. मिट्टी संरक्षण विभाग ने अलग-अलग किस्तों में 14 हजार एवं 16 हजार रुपये ग्रामीणों को सहायता स्वरूप दिए गए.
जमीन तो खेती के लायक बनती गई लेकिन हर बरसात में बांध टूटते गए. उन्होंने ग्रामीणों के मनोबल को बढ़ाने का लगातार प्रयास किया. उन्होंने ग्रामीणों से कहा कि हार मानने से काम नहीं चलेगा. उनकी प्रेरणा और हिम्मत से ग्रामीण प्रभावित थे. बैर टोली, हरिहरपुर, जामटोली, खस्सी टोली के ग्रामीणों के साथ गांव में बैठक आयोजित की. ग्रामीणों ने यह विचार किया कि एक व्यक्तिअकेला इतना कुछ कर सकता है तो यदि सभी मिलकर साथ दें तो क्षेत्र में हरित क्रांति आ सकती है.
ग्रामीणों ने सोचा कि जहां दिन में बारिश होती है और दोपहर बाद बिलकुल सूख जाती है ऐसी बंजर जमीन के लिए यदि सिंचाई का उचित प्रबंध किया जाए तो यहां की उपज से सैकड़ों परिवारों को दो वक्त की रोटी मिल सकती है. बैठक में सिमोन उरांव के अलावा बैर टोली के सुका ताना भगत, पोगरो उरांव, तोता उरांव हरिहरपुर जामटोली के चेगे उरांव, बुधवा उरांव सहित दर्जनों लोगों ने बैठक में निर्णय लिया कि आसपास के खेतों को सालों भर पानी चाहिए तो चेक डैम से बड़े बांध की आवश्यकता होगी.
सिमोन उरांव के व्यक्तिगत प्रयास का फल था कि उससे प्रेरित होकर गांव वाले एकजुट हुए और 1961 में झरिया नाला के गायघाट के पास एक बांध का निर्माण कार्य शुरू हुआ. नौ वर्षों के अथक प्रयास के बाद यह बांध बनकर तैयार हुआ. यह कोई आसान काम नहीं था. तीन गांवों के तीन सौ ग्रामीणों ने इस बांध के निर्माण कार्य में श्रमदान किया. बांध के निर्माण के क्रम में वर्ष 1967 में जल के तेज बहाव से बांध क्षतिग्रस्त हुआ.
सिमोन उरांव ने पानी के अंदर रहकर बांध की मरम्मत की. तकरीबन 15 मिनट पानी के अंदर रहने की वजह से सिमोन का दम घुटने लगा लगा था. गांव वाले काफी चिंतित हो गए थे, लेकिन सिमोन की जान बच गई और वे सकुशल बाहर आ गए. लगभग 49 फीट ऊंचा बांध बनकर तैयार हो गया. लेकिन उनके पिता बांध से होने वाली सिंचाई नहीं देख पाए. 1970 में उनका निधन हो गया.
गायघाट के निर्माण में ग्रामीणों को कैथोलिक बैंक, कैनरा बैंक तथा प्रखंड मुख्यालय से ऋण भी लेना पड़ा. इसके बाद सिमोन उरांव ने खस्सी टोला के निकट छोटा झरिया नाला में 1975 में एक नए बांध का निर्माण किया. झरिया नाला बांध 27 फीट ऊंचा बांधा गया. सिमोन के प्रयास से ग्रामीणों ने झरिया नाला बांध में एकजुट होकर श्रमदान किया. सिमोन सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित कराने के लिए सदैव तत्पर रहते थे. सिमोन सरकार और ग्रामीणों के बीच सेतु का काम करते थे. सिमोन के प्रयास से ही 80 के दशक में हरिहरपुर जामटोली के निकट गायघाट बांध के ऊपरी इलाके में देशवाली बांध का निर्माण किया.
चार लाख रुपये की लागत से बना यह बांध लघु सिंचाई योजना से निर्मित है. यह इस क्षेत्र में सिमोन के प्रयास से बना तीसरा बड़ा बांध है. बांधों के निर्माण में लुइसा उरांव, हौवा उरांव, कमली उरांव, जोसेफ मिंज, बुधबा बुन्नु उरांव, किशनु तथा गइंद्रा उरांव की लगभग आठ एकड़ जमीन डूबी. वन विकास समिति के माध्यम से सिमोन उरांव ने ग्रामीणों की डूबी जमीन के एवज में उन्हें दूसरी जगह जमीन मुहैया करा दी. गायघाट के ग्रामीणों की मदद से सिमोन ने साढ़े पांच हजार फीट लंबी कच्ची नहर निकाली. सिमोन के प्रयास से ही सिचाई विभाग द्वारा लगभग 1500 फीट लंबी नहर का पक्कीकरण कराया गया.
वर्ष 1977-78 के भीषण अकाल के कारण ग्रामीणों की हालत आर्थिक रूप से बहुत गंभीर हो गई थी. गाल के जानवरों के लिए भी चारा उपलब्ध नहीं हो पा रहा था. किसी के खेत में एक मन धान भी नहीं उपज पाया था. ग्रामीण पलायन करने के बारे में सोच रहे थे. सिमोन उरांव ने लोगों को यह कहते सुना कि हम अपने मवेशियों को आपके पास छोड़कर जा रहे हैं, सिमोन ने एक तरकीब निकाली. उसने कृषि वन विकास समिति के माध्यम से प्रखंड कार्यालय से पंप खाद, बीज, किर्लोस्कर मशीनें खुरहा टोली के ग्रामीणों को दे दी तथा ग्रामीणों को सामूहिक रूप से गेहूं की खेती करने का निर्देश दिया. इस वर्ष लगभग 250 एकड़ भूमि में ग्रामीणों ने एकजुट होकर गेहूं लगाया. इसका नतीजा साकरात्मक रहा. 150-150 मन गेहूं का उत्पादन किया गया.
आज सिमोन के प्रयास से सात गांवों की लगभग तीन सौ एकड़ भूमि में सिंचाई हो रही है. सिमोन उरांव झारखंड के संभवत: पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने चिपको आंदोलन से पहले जंगल बचाओ अभियान चलाया. सिमोन उरांव को हरियाली तथा जंगलों से बहुत गहरा लगाव है. सिमोन ने अपनी कृषि वन विकास समिति तथा ग्रामीणों की मदद से 258 एकड़ जंगल की वैज्ञानिक तरीके से रक्षा की. उन्होंने 1967-68 में रेतीली जमीन में खरवागढ़ तथा रूगड़ीटांड में सरई के बीज डालकर जंगल लगाया.
सिमोन वर्तमान में सब्जी उत्पादन में व्यस्त हैं. उन्होंने मधुमक्खी पालन और सब्जी उत्पादन के नए तौर तरीकों के साथ युवाओं के स्वरोजगार के लिए अवसर पैदा किए हैं. पड़हा के माध्यम से सिमोन उरांव ने सिर्फ बेड़ो प्रखंड ही नहीं बल्कि कर्रा लापुंग और रातु प्रखंड के कई गांवों में शांति बहाल करने, गांव के झगड़े गांव में ही पड़हा के माध्यम से सुलझाने तथा दूसरों की सहायता करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
देश-विदेश से अनेक सामाजिक कार्यकर्ता और अनुसंधानकर्ता, सरकारी पदाधिकारी इनके कामों को देखने आते हैं. सिमोन उरांव को झारखंड में असीम संभावना दिखाई देती है. 84 वर्ष की उम्र मेंभी उनमें युवाओं जैसी ऊर्जा और फूर्ति है. उन्होंने देश और व्यवहारिक ज्ञान की बल पर एक मिसाल कायम की है.