बिजली सम्पदा की ऐतिहासिक लूट पर किसी भी नेता ने नहीं उठाई उंगली
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इस बार बिजली पर खूब बात हुई. बिजली को लेकर धार्मिक भेदभाव बरतने के आरोप लगे तो बिजली की 24 घंटे सप्लाई के भारी-भरकम सत्ताई दावे किए गए. बिजली मुद्दा रही, लेकिन बिजली का भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं बना. यथार्थ और तथ्य यही है कि प्रदेश का बिजली घोटाला सामने रख दिया जाए तो वह आजादी के बाद से आज तक के सभी घोटालों पर भारी पड़ जाएगा. लेकिन इस पर किसी ने कोई बात नहीं की. ऊर्जा सेक्टर में हुए घोटालों की अकूत कमाई से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने तो भरपूर फायदा उठाया ही, अपने सत्ता-काल में भारतीय जनता पार्टी ने भी ऊर्जा सेक्टर की धन-गंगा का पूरा आचमन किया था. खूबी यह है कि सारी पार्टियों ने एक-दूसरे के कार्यकाल में हुए घोटालों पर पर्दा डालने का काम किया है. सारे राजनीतिक दल चुनाव में एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल कर जनता को बेवकूफ बनाते रहे हैं, लेकिन असल में घपले-घोटालों में साझेदारी से लेकर पर्दादारी में सभी दलों में समझदारी है. इसीलिए मुलायम के कार्यकाल के घोटालों की जांच मायावती नहीं करतीं और मायावती के घोटालों पर अखिलेश कोई कार्रवाई नहीं करते. अब आगे जो आएगा वह अखिलेश काल के घोटालों को दबा देगा.
उत्तर प्रदेश में अब चुनाव बीत चुके हैं. अखबार प्रकाशित होने तक चुनाव परिणाम भी सामने आ जाएंगे. यही मौका है कि हम बिजली पर बयानबाजियों के बरक्स बिजली-घोटालों की कब्रगाह को उकेरते चलें और सियासत के असली प्रेत-चेहरों को समझते चलें. ‘चौथी दुनिया’ ने उत्तर प्रदेश के ऊर्जा घोटालों का पर्दाफाश करते रहने का सिलसिला चलाया है और अपने कई अंकों में घोटालों की अलग-अलग कहानियां प्रकाशित की हैं. इस बार हम यूपी के ऊर्जा घोटालों का समग्र अवलोकन आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि सनद रहे. इसके लिए हमने प्रमुख रूप से ऊर्जा सेक्टर के व्हिसिल ब्लोअर नंदलाल जायसवाल से विस्तृत बातचीत की. इसके अलावा ऊर्जा सेक्टर के कई ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों से भी ब्यौरा लिया जो ऊर्जा विभाग की उन शाखाओं में तैनात हैं, जहां घोटालों और वित्तीय अनियमितताओं की सूचनाएं रहती हैं. घोटालों की समेकित समीक्षा पेश करने के लिए ढेर सारे दस्तावेज भी खंगाले गए जो पक्के तौर पर घोटालों का पर्दाफाश करते हैं और इनमें से कई महत्वपूर्ण दस्तावेज ‘चौथी दुनिया’ के पास उपलब्ध हैं.
घोटालों में बसपा-सपा में भागीदारी भी थी और पर्दादारी भी
उत्तर प्रदेश के ऊर्जा सेक्टर में पिछले 10 वर्षों के दरम्यान हुए घपलों-घोटालों और उस पर सामने आए सरकारी रुख को देखें तो साफ-साफ लगेगा कि घोटालों को लेकर बसपा और सपा में स्पष्ट समझदारी रही है. इसी समझदारी का नतीजा है कि सपा सरकार में बसपा कार्यकाल के घोटाले दबे रह गए. 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने सत्ता में आने पर बसपा सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की बात कही थी, लेकिन सत्ता में आते ही मुख्यमंत्री बने
अखिलेश यादव मायावती के भ्रष्टाचार भूल गए और उन्हें अपनी बुआ बना लिया. गांव, गरीब, किसान-मजदूर, मध्य वर्ग का हित निरा खोखला राजनीतिक नारा साबित हुआ. प्रदेश की हालत बद से बदतर होती चली गई. जनता को एक रुपये प्रति यूनिट की दर से जो बिजली मिलनी चाहिए थी, वह घपलों-घोटालों के कारण अनापशनाप कीमतों पर मिली. विडंबना यह है कि बसपा और सपा, दोनों कहती है कि उनके कार्यकाल में 24 घंटे बिजली सप्लाई हुई. जबकि यह दावे फर्जी हैं.
ऊर्जा सेक्टर के कर्मचारियों से बात करें तो आपको बिजली की बदहाली का अंदाजा लगेगा. कर्मचारी ही कहते हैं कि भ्रष्टाचार और अराजकता का हाल यह है कि पांच रुपये का उपकरण खुलेआम 50 रुपये और पांच सौ रुपये में खरीदा जा रहा है. कोई पूछने वाला नहीं है. आखिरकार जनता की जेब से ही इसकी वसूली और भरपाई होती है. ऊर्जा सेक्टर के महत्वपूर्ण पदों पर तैनात अधिकारियों और कर्मचारियों की बेशुमार दौलत के बारे में कोई पूछने वाला नहीं है. खुलेआम कमीशनखोरी चल रही है, कोई पूछने वाला नहीं है. सत्ताधारी नेता से लेकर नौकरशाह तक सब केवल हिस्सा खाने वाले हैं.
देसी कोयला छोड़, क्यों मंगाया विदेश से बेशक़ीमती कोयला?
केंद्र सरकार ने सस्ता कोयला उपलब्ध कराने के लिए नजदीकी कोल ब्लॉक्स आवंटित किए तो उत्तर प्रदेश सरकार ने विदेश से कोयला आयात करने केा संदेहास्पद फैसला ले लिया. ऊर्जा महकमे के वित्तीय समीक्षक कहते हैं कि नजदीकी कोल ब्लॉक्स से कोयला मंगाने से कोयले की उपलब्धता नियमित रहने के साथ-साथ उसकी कीमत भी कम पड़ती और इससे बिजली की कीमत भी काबू में रहती. आकलन था कि इससे प्रतिवर्ष बिजली की लागत पर 300 करोड़ से अधिक बचता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पहले भी बसपा के कार्यकाल में वर्ष 2009 से 2012 तक तीन लाख मिट्रिक टन से अधिक कोयले की खरीददारी इंडोनेशिया से की गई थी, वह भी दस गुना अधिक कीमत पर.
व्यवहारिक दृष्टिकोण से इंडोनेशिया से कोयला मंगाना उचित नहीं था. इंडोनेशिया से आयातित कोयला पहले देश के तटीय (बंदरगाह वाले) राज्यों में पहुंचता था और वहां से वह रेल और सड़क मार्ग से यूपी पहुंचता था. स्पष्ट है कि विदेश से कोयला आयात करने से लेकर उत्तर प्रदेश तक होने वाली उसकी ढुलाई (ट्रांसपोर्टेशन) में भीषण कमाई की गई. ऊर्जा विभाग के तकनीकी विशेषज्ञ कहते हैं कि यूपी में काम कर रही मशीनों के लिए ‘सी’ और ‘एफ’ ग्रेड के कोयले की जरूरत होती है, जबकि आयातित कोयला बिल्कुल ही अलग किस्म और कैलोरिफिक वैल्यू का था. समझा जा सकता है कि आयातित कोयले को भारतीय मशीन के मुताबिक माकूल करने की जब यहां मिक्सिंग मशीन ही उपलब्ध नहीं थी तो उस कोयले का इस्तेमाल कैसे किया गया होगा? यह अलग किस्म का कोयला घोटाला है, जिसकी जांच हो तो उसकी गहराई की कुछ थाह मिले.
सीबीआई जांच पर जब केंद्र ही कुंडली मार कर बैठ गई
पांच हजार करोड़ रुपये अधिक का घोटाला उजागर होने के कारण दबाव में आई मायावती सरकार ने घोटाले की सीबीआई जांच के लिए दो मार्च 2008 में अधिसूचना जारी की थी. इसके बावजूद जांच नहीं हुई. दरअसल उस घोटाले का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी सरकार के कार्यकाल का भी था, लिहाजा प्रदेश से लेकर केंद्र तक एक हो गए और सीबीआई जांच की अधिसूचना के बावजूद उसकी जांच नहीं होने दी. तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी. सपा के साथ कांग्रेस का प्रेम-सम्बन्ध काफी पहले से चल रहा है. केंद्र का दबाव इस हद तक था कि सीबीआई ने ही कह दिया कि उसके पास इस घोटाले की जांच करने की क्षमता नहीं है. सीबीआई के इस कथन के दस्तावेज ‘चौथी दुनिया’ के पास हैं. सीबीआई ने अदालत के समक्ष यह भी झूठा बयान दिया कि उक्त घोटाले से कोई गैर-देशीय सूत्र नहीं जुड़ता. यह सीबीआई का सफेद झूठ था.
उक्त घोटाला दक्षिण कोरिया की कंपनी के साथ मिल कर किया गया था और इस बारे में उत्तर प्रदेश राज्य सतर्कता अधिष्ठान ने पहले ही कह दिया था कि घोटाले में अंतरराष्ट्रीय लिप्तता है और इसकी केंद्रीय जांच एजेंसी से निष्पक्ष जांच होनी चाहिए. कोरियाई कंपनी को 220 करोड़ रुपये के फर्जी भुगतान का दस्तावेज भी बरामद हो गया था. इसके बावजूद जांच नहीं होने दी गई. हैरत की बात यह है कि हजारों करोड़ के घोटाल में लिप्त रहने के आरोपी उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष राजेश अवस्थी को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने तत्काल बर्खास्त करने का आदेश दिया था. उल्लेखनीय है कि मायावती के कार्यकाल के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव ने अपने कई सार्वजनिक बयानों में यह माना था कि ऊर्जा क्षेत्र में मायावती सरकार 25 हजार करोड़ रुपये का घाटा छोड़कर गई हैं. लेकिन इस घाटे की वजह जानने या उसकी उगाही करने की अखिलेश सरकार ने कभी जरूरत महसूस नहीं की.
अकेले जेपी समूह को र्ेंायदा पहुंचाने के लिए ही प्रदेश सरकार को 30 हजार करोड़ रुपये की चपत लगाई जा चुकी है. इसी वजह से राज्य विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष राजेश अवस्थी को बर्खास्त होना पड़ा, लेकिन घोटाले को लेकर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई. उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम में भी 750 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ, लेकिन इस घोटाले में लिप्त तत्कालीन सीएमडी आईएएस आलोक टंडन समेत अन्य अधिकारियों और अभियंताओं का कुछ नहीं बिगड़ा. सपा के मौजूदा शासनकाल में बिजली बिलों में फर्जीवाड़ा कर हजार करोड़ रुपये का घोटाला किए जाने का मामला सामने आया. यूपी पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड ने अधिकृत बिलिंग कंपनी की मिलीभगत से इस घोटाले को अंजाम दिया गया है. लेकिन इस मामले में भी कार्रवाई कुछ नहीं हुई.
दस साल के बिजली घोटाले का हिसाब दे दें मायावती और अखिलेश
बसपा सरकार के कार्यकाल में हुए घोटालों को दबाने में समाजवादी पार्टी की सरकार ने ऐसी सक्रियता दिखाई कि सुप्रीम कोर्ट में दाखिल स्पेशल लीव पेटिशन (एसएलपी(सी)-1550/2012) तक वापस ले ली. जब मामले की जांच के लिए अखिलेश सरकार से आग्रह किया गया तो हिन्दी में दिए गए दस्तावेजी सबूतों को अंग्रेजी में रूपांतरित कर लाने का आदेश दिया गया. यह समाजवादी पार्टी की सरकार का हिंदी प्रेम था या घोटाला प्रेम, इसे आसानी से समझा जा सकता है. निवर्तमान बसपा सरकार और मौजूदा समाजवादी पार्टी की सरकार यह बताने से लगातार कन्नी काटती रही है कि पिछले 10 वर्षों में उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग ने बिजली क्षेत्र में गुणवत्ता लाने, बिजली का उत्पादन बढ़ाने, सुधार लाने और बिजली की दर तय करने के लिए क्या-क्या किया. आयोग के मौजूदा अध्यक्ष देश दीपक वर्मा हैं. आयोग यह नहीं बता पाया कि पिछले 10 साल में किन-किन बिजली कम्पनियों से
किस-किस दर पर कितने मूल्य की बिजली खरीदी गई. वित्त विशेषज्ञ बताते हैं कि इसमें तकरीबन दो लाख करोड़ का घोटाला किया गया. राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना में भी 16 सौ करोड़ रुपये का घोटाला हुआ. कई गैर जानकार कंपनियों को संलग्न कराया गया और बिना काम के ही भुगतान कर दिया गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्रीय एजेंसी से जांच नहीं होने दी और उसे राज्य सतर्कता अधिष्ठान के सुपुर्द (242/2009) कर दिया. बाद में मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव ने भी देखा कि घोटाले के छींटे सपा पर भी आ रहे हैं तो जांच ठंडे बस्ते में डाल दी. जांच की प्रगति रिपोर्ट मांगे जाने के बावजूद राज्य सरकार ने रिपोर्ट नहीं ही सौंपी.
ग़लत टैरिफ पर सात सौ करोड़ रुपये हड़पे, एलआईसी लोन का स्कैम अलग से
बसपा सरकार के कार्यकाल में गलत टैरिफ दिखा कर उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम ने तकरीबन साढ़े सात सौ करोड़ रुपये का घपला किया. इसमें कुछ कॉरपोरेट घरानों की भी लिप्तता रही. केंद्र सरकार ने इस मामले में आधिकारिक तौर पर यह माना था कि नियामक आयोग द्वारा गलत (कमतर) टैरिफ निर्धारित किए जाने के कारण जल विद्युत निगम को अपूरणीय क्षति पहुंची है. इसके बावजूद इतना बड़ा घोटाला किसी भी कानूनी नतीजे तक नहीं पहुंचा. इतना ही नहीं जल विद्युत निगम के भ्रष्ट अधिकारी कमीशनखोरी के चक्कर में भी निगम को करोड़ों का नुकसान पहुंचाते रहते हैं. ऐसा ही एक वाकया है एलआईसी लोन की बकाया रकम चुकाने का. उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम पर एलआईसी लोन का बकाया 3010.28 करोड़ रुपये था और उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम पर मात्र तीन सौ करोड़ रुपये. बकाया ऋण के एकमुश्त (वन-टाइम) भुगतान के लिए एलआईसी ने उत्पादन निगम के समक्ष यह शर्त रखी कि एक साथ पांच सौ करोड़ रुपये जमा करने पर शेष ऋण की राशि माफ कर दी जाएगी.
उत्पादन निगम ने आनन-फानन पांच सौ करोड़ रुपये जमा कर अपना लोन क्लियर करा लिया. लेकिन जल विद्युत निगम के कमीशनखोर अधिकारियों ने एलआईसी के प्रस्ताव पर कुंडली मार दी. जबकि विद्युत उत्पादन निगम के तीन सौ करोड़ के बकाये के एवज में मात्र 75.41 करोड़ रुपये ही जमा करने थे. यह छोटी सी रकम भी जमा नहीं की गई और उस पर बकाया ऋण की राशि पांच सौ करोड़ से अधिक हो गई. विडंबना यह है कि एलआईसी ने जिस समय यह प्रस्ताव रखा था उस समय जल विद्युत निगम के पास 130 करोड़ रुपये फिक्स्ड डिपॉजिट में पड़े थे.
सात हज़ार करोड़ रुपये लूट लिए, सरकार को 450 करोड़ रुपये का नुक़सान सालाना
ऊर्जा सेक्टर में सात हजार करोड़ रुपये की सुनियोजित लूट के मामले में भी बसपा और सपा दोनों ही कठघरे में है. उस लूट का सिलसिलेवार नुकसान यह है कि उससे प्रतिवर्ष 450 करोड़ रुपये के राजस्व की हानि हो रही है. नुकसान की यह राशि घोटाले की राशि से अलग है. उत्तर प्रदेश के सरकारी खजाने का सात हजार करोड़ रुपया एकमुश्त गायब हो गया. इसका हिसाब ही नहीं मिला. उत्तर प्रदेश पावर ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन और उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम के शीर्ष पर बैठे भ्रष्ट अधिकारियों ने साठगांठ करके इतनी बड़ी धनराशि का गड़बड़झाला कर दिया. ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन के हजारों करोड़ रुपये का घपला करने वाले राजकीय निर्माण निगम के महाप्रबंधक आरएन यादव को सफलतापूर्वक भ्रष्टाचार करने के लिए अखिलेश सरकार ने पुरस्कृत किया और उन्हें उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन के योजना महकमे का निदेशक बना दिया.
अगर जांच होती तो यह मामला यादव सिंह प्रकरण से भी बड़ा घोटाला साबित होता. पूरा सिस्टम ऐसे लोगों पर कितना मेहरबान था इसका उदाहरण है कि जिस समय इस घोटाले की पटकथा लिखी गई उस समय ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन के वित्त निदेशक रहे एसके अग्रवाल को उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग का सदस्य बना कर महिमामंडित कर दिया गया और उस समय ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन के मुख्य महाप्रबंधक रहे एके अग्रवाल को रिटायर होने के बाद कॉरपोरेशन का सलाहकार नियुक्त कर लिया गया. अग्रवाल ने अपनी कंसल्टेंसी कंपनी खोल रखी है. ये सब भ्रष्टाचार करने में भी सलाहकार थे और अब भ्रष्टाचार की जांच में भी सलाहकार हैं. इसी प्रायोजित-प्रक्रिया से अखिलेश यादव प्रदेश से भ्रष्टाचार हटाने की कोशिश करते रहे.
सात हज़ार करोड़ रुपये ग़ायब, राजकीय निर्माण निगम ने हिसाब ही नहीं दिया
प्रदेशभर में तकरीबन 80 विद्युत सब-स्टेशनों (उप-केंद्रों) के निर्माण के लिए जो धनराशि दी गई थी, उसमें भीषण भ्रष्टाचार किया गया. इसमें केंद्र सरकार से करीब 20 हजार करोड़ रुपये यूपी के लिए आवंटित हुए थे. कानूनी प्रावधान है कि विद्युत सब-स्टेशनों के निर्माण के लिए उसी संस्था को ठेका दिया जाएगा, जिसे विशेषज्ञता और अनुभव हासिल हो. लेकिन पावर ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन के अधिकारियों ने इस क्षेत्र में गैर-अनुभवी और गैर-विशेषज्ञ संस्था राजकीय निर्माण निगम को 51 सब-स्टेशन बनाने का बड़ा ठेका दे दिया.
राजकीय निर्माण निगम की ओर से कोई योजना-प्रस्ताव, बजट-आकलन और निर्माण की तैयारियों का अग्रिम ब्यौरा भी नहीं दिया गया और ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन के निदेशक (ऑपरेशंस) आरएस पांडेय की तरफ से आधिकारिक पत्र जारी कर दिया गया. निर्माण निगम के नाम से 220 केवी का 21 सब-स्टेशन बनाने और 132 केवी का 30 सब-स्टेशन बनाने की लॉटरी खोल दी गई.
निर्माण निगम को ठेका देने में सारे प्रावधान ताक पर रख दिए गए और काम शुरू करने के पहले ही एक हजार करोड़ रुपये का एडवांस पेमेंट भी कर दिया गया. एक हजार करोड़ रुपये का अग्रिम भुगतान करने की इतनी हड़बड़ी थी कि उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन ने सीधे अपने ही फंड से निर्माण निगम को पेमेंट जारी कर दिया. इस पेमेंट के बारे में डिवीजन को कुछ पता ही नहीं चला, जबकि सारे भुगतान सम्बद्ध डिवीजन के जरिए ही होने चाहिए थे. बाकी बचे सब-स्टेशनों को बनाने का ठेका लार्सन एंड टूब्रो, क्रॉम्पटन ग्रीव्ज़ व कुछ अन्य नामी कंपनियों को दिया गया.
इन कंपनियों ने बाकायदा सारी औपचारिकताएं पूरी कीं, योजना-प्रस्ताव दिया, अपना बजट-आकलन पेश किया और सब-स्टेशनों के निर्माण में लगने वाली सामग्री और उपकरणों का अग्रिम ब्यौरा भी प्रस्तुत किया. इन कंपनियों को कोई एडवांस भी नहीं दिया गया. प्रदेशभर में विद्युत सब-स्टेशन बन गए, लेकिन निर्माण के दरम्यान कभी उसका इंसपेक्शन नहीं हुआ और सामान व उपकरणों की गुणवत्ता की कोई जांच नहीं हुई. सारे विद्युत सब-स्टेशन बन गए और मुख्यमंत्री ने फीता काट कर उसे शुरू भी करा दिया.
राजकीय निर्माण निगम समेत अन्य निर्माता कंपनियों का भुगतान भी हो गया. लेकिन करीब सात हजार करोड़ रुपया हिसाब से गायब है. उसका कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं है. दस्तावेज बताते हैं कि 6972.35 करोड़ रुपये का हिसाब नहीं मिल रहा है. कॉरपोरेशन ने सात हजार करोड़ रुपये में से 5921.88 करोड़ रुपये रूरल इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन (आरईसी) और पावर फिनांस कॉरपोरेशन (पीएफसी) से 12 प्रतिशत ब्याज की दर पर कर्ज के रूप में लिए थे. ब्याज को देखते हुए साढ़े चार सौ करोड़ रुपये का जो नुकसान हो रहा है, वह घोटाले की राशि से अलग है.
अराजकता का हाल यह है कि सब-स्टेशनों के निर्माण के बाद राजकीय निर्माण निगम ने खर्चे(कैपिटलाइजेशन) का ब्यौरा प्रस्तुत करने की कोई जरूरत ही नहीं समझी. जबकि यह कानूनी अनिवार्यता है. निर्माण निगम ने बिजली घरों के निर्माण के बाद उसे हैंडओवर करने के समय न कोई सामान बचा हुआ दिखाया और जो उपकरण लगे उसका भी कोई विवरण (टेक्निकल स्पेसिफिकेशन) नहीं दिया. हैरत की बात यह है कि कई मान-मनुहार के बाद निर्माण निगम ने महज छह बिजली घरों के निर्माण का ब्यौरा प्रस्तुत किया वह भी सिर्फ एक पन्ने में. ट्रांसमिशन
कॉरपोरेशन के शीर्ष प्रबंधन ने इस एक पन्ने के पूंजीकरण को भी बिना जांचे-परखे पास कर दिया. भद्दा मजाक यह है कि कॉरपोरेशन ने उस एक पन्ने के ब्यौरे पर लिखा कि निर्माण निगम खुद ही अपने चार्टर्ड एकाउंटेंट से इसकी जांच करा ले. निर्माण निगम द्वारा बनाए गए सब-स्टेशन अब असली औकात पर आ रहे हैं. जो ट्रांसफार्मर लगाए गए, वह कम क्षमता वाले निकल रहे हैं. उस पर भी इंजीनियरों पर दबाव दिया गया कि वे क्लीन-चिट दे दें. जो विद्युत सब स्टेशन बने, उनमें 36 साल पुराने ट्रांसफार्मर लगा दिए गए जो अब लगातार फुंकते जा रहे हैं और राजस्व पर अतिरिक्त नुकसान चढ़ा रहे हैं.
ऊर्जा सेक्टर में सौ-दो सौ करोड़ रुपये के घोटाले की तो कोई औकात ही नहीं!
उत्तर प्रदेश के ऊर्जा सेक्टर में सौ-दो सौ करोड़ रुपये के घोटाले की तो कोई औकात ही नहीं है. ऐसे घोटाले तो भरे पड़े हैं. बसपा कार्यकाल में जल विद्युत निगम लिमिटेड में हुए सौ करोड़ के एक अन्य घोटाले में सपा सरकार सीधा संरक्षण दे रही है. इस प्रकरण में ऊर्जा सचिव की जांच रिपोर्ट भी आ गई थी, जिसमें दोषी अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई शुरू करने के लिए सरकार से औपचारिक मंजूरी मांगी गई थी, लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ा. घोटाले के दस्तावेज भी गायब कर दिए गए. बिजली विभाग में भी पेड़ घोटाला होता है. बुंदेलखंड में 10 करोड़ पेड़ लगाने की योजना पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए लेकिन जल विद्युत निगम के अधिकारियों ने कागज पर पेड़ लगा दिए.
ललितपुर के जिलाधिकारी की जांच रिपोर्ट ने भी खुलासा किया कि पेड़ नहीं लगे, लेकिन अखिलेश सरकार ने इस जांच रिपोर्ट पर आगे की कार्रवाई करने में कोई रुचि नहीं दिखाई. इसी तरह उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के विभिन्न इलाकों में अंडरग्राउंड केबिल के जरिए विद्युत आपूर्ति के नाम पर सौ करोड़ रुपये से अधिक की राशि हड़प ली गई. विद्युत प्रणाली सुधार योजना के अंतर्गत विश्व बैंक से 70 करोड़ रुपये और उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन लिमिटेड से 32 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे.
बताया गया कि इस राशि से लखनऊ के यूपीआईएल, राजेन्द्र नगर, अमीनाबाद, हनुमान सेतु, शिवाजी मार्ग, विक्टोरिया पार्क, नीबू पार्क जैसे कई स्थानों पर तकरीबन 465 किलोमीटर की एलटी लाईन और 33 केवी और 11 केवी की 116 किमीटर भूमिगत केबिल बिछाई गई. लेकिन इस केबिल के जरिए आजतक बिजली सप्लाई चालू नहीं हो पाई. इस काम को भी राजकीय निर्माण निगम द्वारा ही कराया गया था. बिजली विभाग के कर्मचारी ही कहते हैं, ‘केबिल बिछती तब तो बिजली सप्लाई होती’. यह बात सब जानते हैं, लेकिन जांच कराने को कोई तैयार नहीं.
जो कंपनी थी नहीं, उसे भी दे दिया करोड़ों का ठेका, लघु जल विद्युत प्रोजेक्ट्स का भट्ठा बैठा
उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में बिजली को लेकर कितनी चिंतित है उसका नायाब उदाहरण है बिजली को लेकर राज्य में लगातार हो रही भीषण मारामारी. उत्तर प्रदेश को दूसरे राज्यों एवं एजेंसियों से महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही है. अपने ही राज्य में सस्ते में बिजली उपलब्ध हो, इसकी चिंता सरकार को नहीं है. उत्तर प्रदेश की तकरीबन डेढ़ दर्जन लघु जल विद्युत परियोजनाएं ठप्प पड़ी हैं.
यह उन परियोजनाओं का हाल है, जो मंजूरी की सभी सरकारी औपचारिकताओं से गुजर चुकी हैं और जिनके लिए चयनित कंपनी से बाकायदा करार भी हो चुका है. परियोजनाओं के लिए केंद्र से मिला सस्ता ऋण और 20 प्रतिशत सब्सिडी मिलाकर सैकड़ों करोड़ रुपये हजम हो गए. न केंद्र ने ध्यान दिया, न प्रदेश सरकार ने कोई फिक्र की. सरकार ने लघु जल विद्युत परियोजनाओं के ठेके उस कंपनी को दे दिए जो अस्तित्व में ही नहीं थी. उस कंपनी से जुड़े लोग एक तरफ बुंदेलखंड में खननराज चलाने वाले बाबू सिंह कुशवाहा से सम्बद्ध हैं तो दूसरी तरफ वे समाजवादी पार्टी के नेता भी हैं.
अंधेरगर्दी का हाल यह रहा कि ठेका हथियाने वाली कंपनी ‘ओमनिस इंफ्रा पावर लिमिटेड’ को जिस समय ठेका मिला उस समय वह कंपनी अस्तित्व में ही नहीं थी. राज्य विद्युत नियामक ने यह भी जिम्मेदारी नहीं निभाई कि जिस कंपनी को ठेका दिया जा रहा है, उसका सम्बद्ध क्षेत्र में कोई अनुभव और विशेषज्ञता है कि नहीं, इसकी जांच कर ले. प्रावधान तो यह है कि परियोजना का काम उसी कंपनी को दिया जाएगा, जिसे उस क्षेत्र में कम से कम 10 साल काम करने का अनुभव हो और उसकी ठोस वित्तीय पृष्ठभूमि (कम से कम तीन साल का ऑडिटेड एकाउंट) ज्ञात हो. ‘ओमनिस इंफ्रा पावर लिमिटेड’ ऐसी कोई भी शर्त पूरी नहीं कर रही थी.
अब आते हैं ऊर्जा विभाग की सम्पदा पर नेताओं और नौकरशाहों के ऐश की लत पर. बसपा और सपा की सरकार के मंत्रियों को ऊर्जा विभाग के केवल धन से ही नहीं बल्कि उसकी गाड़ियों, गेस्ट हाउसों, विद्युत उपकरणों, मसलन एसी, गीजर, हीटर, कूलर, वाटर कूलर, कलर टीवी वगैरह की भी लत लगी हुई है. बसपा कार्यकाल के ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय ने तो ऊर्जा महकमे के सभी निगमों से दो दर्जन से अधिक गाड़ियां ले रखी थीं. यही काम अब सपा के मंत्री भी कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश सरकार के होमगार्ड मंत्री के सरकारी सुविधाओं पर गुलछर्रे का विरोध करने पर एक आईजी का त्वरित तबादला लोगों को अभी याद ही है. लोगों को विद्युत चिमनियों के धराशाई होने की घटना भी याद है, जिसमें सरकारी राजस्व को छह सौ करोड़ का नुकसान पहुंचा था. यह घपला हुआ था मायावती के काल में और इस पर मिट्टी डाली गई अखिलेश के कार्यकाल में.