अर्जुन भगत
आज से पच्चीस साल पहले यानी 1984 में हुए सिख-विरोधी दंगे भारतीय इतिहास के सबसे काले अध्यायों में एक हैं. वह नरसंहार 31 अक्टूबर 1984 को सिख अंगरक्षक द्वारा इंदिरा गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप हुआ था, जो एक और तीन नवम्बर 1984 के बीच देश भर में अनगिनत बेगुनाह लोगों की मौत और विध्वंस का सबब बन गया. उस सांप्रदायिक हिंसा में हज़ारों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया. एक अनुमान के मुताबिक उस दंगे में दस हज़ार से भी अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक भी केवल दिल्ली में ही 2733 लोगों को मार डाला गया था. इनमें पुरुष, औरत और बच्चे सभी शामिल थे. वैसे सच कहा जाय तो मृतकों की वास्तविक संख्या इससे भी अधिक थी. इस नरसंहार की सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि तीन दिनों तक यह ख़ूनी खेल देश के किसी सुदूर कोने में नहीं बल्कि राजधानी दिल्ली में चलता रहा. कांग्रेस के शासन में जब सिखों को मौत के घाट उतारा जा रहा था, उनकी दुकानों को आग के हवाले किया जा रहा था, उनके घर लूटे जा रहे थे और उनकी पत्नियों के साथ बलात्कार किया जा रहा था, तब पुलिस और प्रशासन ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की. इसे हर लिहाज़ से घृणित और जघन्य अपराध कहा जाएगा. 1947 – जब से भारत आजाद हुआ- से लेकर आज तक इतनी बडी और भयानक घटना कभी नहीं हुई है. यहां तक कि मुंबई और गुजरात के दंगे भी सिख विरोधी दंगों की तुलना में कमतर ही ठहरते हैं.
इस वर्ष नवंबर में इस नरसंहार के 25 वर्ष पूरे हो जाएंगे. लेकिन कितनी अजीब बात है कि अभी तक बहुत कम लोगों को ही सज़ा मिल पाई है. यह कटु सत्य है कि इस घटना को अंजाम देनेवाले और उनके राजनीतिक संरक्षकों में से 99.9 प्रतिशत सज़ा से साफ बच गए हैं और उन्हें उनके कृत्यों के लिए कभी कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकेगा. तो क्या हमें दिल्ली और देश के दूसरे हिस्से में घटे उस सिख विरोधी दंगे को एक बुरा सपना मानते हुए भूल जाना चाहिए ?आखिरकार, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो ख़ुद एक सिख हैं, ने भी तो इस बात को कोई बहुत छिपे लहजे में नहीं कहा-दंगों को कई वर्ष बीत चुके हैं और अब लोग केवल वोट बैंक के लिए इन दंगों का इस्तेमाल करते हैं-हां, ऐसा हो सकता है. लेकिन एक राष्ट्र के नाते यह तो मानना ही पड़ेगा कि नरसंहार हुआ था. और, वह भी उस पार्टी के शासनकाल में जो धर्मनिरपेक्षता की मशाल लेकर चल रही है. जब सिख विरोधी दंगे हुए थे तब कांग्रेस की सरकार थी. हमारे संविधान और राष्ट्‌ का प्रारूप धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत और क़ानून के राज पर आधारित है. जो हमें पाकिस्तान, ईरान और बांग्लादेश जैसे मज़हबी देशों से अलग करता है.
ऐसे में इस तरह के नरसंहार की उपेक्षा क्यों की जाए? वर्षों पुराने पड़ जाने के तर्क के आधार क्यों मीडिया द्बारा इसकी ग़लत व्याख्या की जाए और क्यों राजनीति, नौकरशाही और न्यायिक अक्खड़पन के तले इसे भुला दिया जाए ? क्यों अपने देश में धर्मनिरपेक्षता के हिमायती इस तरह के काले अध्याय पर पहले से विश्लेषण या शोध नहीं करते, जबकि वे गुजरात नरसंहार और कंधमाल की घटना को याद कराने में  कभी असफल नहीं होते. क्यों इतने बडे और भयानक नरसंहार को भारत में भुला दिया जाता है. क्या इसलिए कि एक अल्पसंख्यक दूसरे अल्पसंख्यक की तुलना में कम महत्वपूर्ण है या फिर इस दुखद सत्य के लिए कि कांग्रेस पार्टी के कई मुख्य नेता और उनके अधीनस्थ दंगे के अभियुक्त हैं.
शायद यह भी स्पष्ट है कि कैसे 1984 और 1989 में कांग्रेसी सरकार सही मायने में इस नरसंहार, जिसमें हजारों सिखों की जानें गईं, की तहकीकात नहीं करा पाई, कैसे न्यायपालिका ने काम किया और कैसे सरकार ने विभिन्न आयोगों का गठन किया. इसमें सिवाय करोडों रुपये बर्बाद करने के कुछ नहीं हुआ.ङ्क्ष
इंदिरा गांधी के उन हत्यारों के बारे में बात की जाए, जो उनके अंगरक्षक थे. जिसमें बेअंत सिंह, सतवंत सिंह और एक तीसरे को दोषी पाते हुए महज कुछ ही वर्षों में फांसी पर लटका दिया गया, लेकिन उनका क्या हुआ, जिन्होंने हज़ारों लोगों को बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्‌ में (पूरे देश में करीबन 10,000 सिख मारे गए थे) मौत के घाट उतार दिया था. 25 साल बाद भी इस घटना के ऐसे कितने जिम्मेदार व्यक्तियों को दोषी ठहराया गया  और उन्हें फांसी की सजा दी गई है. अनुमान लगाने की कोशिश करें.  शायद 1000 या 500 या 300. जी नहीं, सिर्फ 17 लोगों को इस मामले में दोषी पाया गया और उन्हें उम्र कैद की सजा सुनाई गई. एक भी व्यक्ति को दिल्ली की अदालतों द्बारा फांसी की सजा नहीं सुनाई गई. जरा सोचिए उन कातिलों के बारे में जो अब भी हजारों लोगों को मौत की नींद सुलाकर दिल्ली की सड़कों पर घूम रहे हैं. इन सुस्पष्ट तथ्यों कीएक के बाद एक सरकारों, न्यायपालिका, बुद्धिजीवियों यहां तक कि मीडिया ने भी जान बूझ कर उपेक्षा की. इन वर्षो में उस तथ्य के साथ छेड़छाड़ की गई, नई कहानी बनाई गई और नए सिद्धांतों को जोड़कर पेश किया गया. बड़ी चालाकी से दो या तीन बडे मामलों को कांग्रेस के दिग्गज नेताओं जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की ओर मोड़ दिया. उन्हें भीड़ को भड़काने का दोषी पाया गया. हां, इन्हीं दोनों को दोषी ठहराया गया, लेकिन इसके पीछे की तस्वीर क्या है. धर्मनिरपेक्षता की मशाल को लेकर चलने वाली कांग्रेस पार्टी की क्या भूमिका थी. क्या सही में उसके नेता भीड़ को उकसा रहे थे और उसका नेतृत्व कर रहे थे. उसके कितने नेताओं को दोषी पाया गया और उन्हें सलाखों के पीछे भेजा गया. राज्य प्रशासन के बारे में क्या कहा जाए ? चलिए, इसकी शुरुआत दिल्ली पुलिस और उसके आधिकारियों से की जाए. कितने पुलिस अधिकारियों को ड्यूटी के दौरान लापरवाही बरतने के आरोप में दोषी पाया गया? क्या पुलिस कमिश्नर को सजा दी गई? उस समय दिल्ली के राज्यपाल क्या कर रहे थे? गृह मंत्रालय ने क्यों कुछ नहीं किया, जबकि पूरी दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार के अधीन थी. तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंहराव क्या कर रहे थे? इस ख़ूनी खेल को रोकने के लिए उन्होंने क्या किया? दिलचस्प संयोग यह कि वह बाद में प्रधानमंत्री भी बने.
बहुत से ऐसे असुविधाजनक सवाल हैं,  जैसे क्यों सेना को दिल्ली की देख- रेख करने के लिए तुरंत आदेश नहीं दिए गए. दिल्ली में स्थिति को काबू करने के लिए सेना मुश्किल से दो या तीन घंटे का समय लेती, क्योंकि सेना की छावनी शहर के बीचोंबीच है. वस्तुत: इंदिरा गांधी की हत्या के एक घंटे बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में चुना लिया गया. निस्संदेह इस घटना से राजीव गांधी चकित और शोकाकुल थे, लेकिन दूसरे लोग तो थे जो इस दंगे को रोकने के कोई ठोस निर्णय ले सकते थे. फिर भी तुरंत कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई. ऐसा क्यों नहीं हुआ. वाकई हम नहीं जान पाएंगे. बहुत लोग तो सिख दंगे को भडकाने के लिए राजीव गांधी को भी दोषी मानते हैं, क्योंकि इस नरसंहार के कुछ महीने बाद उन्होंने इसकी निंदा करते हुए कहा कि जब एक विशाल पेड गिरता है तो पृथ्वी हिलती ही है. इस तरह से यह धूर्त संदेश प्रशासन तक पहुंच गया.
अगर हम यह विरोधी विचार मान भी लें कि प्रशासनिक अमला सदमे और सकते की हालत में होने की वजह से तुरंत कार्रवाई न कर सका, और इसी वजह से ख़ूनखराबा हुआ. हालांकि यह दलील भी घटना के वास्तविक रूप, को सामने नहीं ला सकती है. ख़ूनखराबा इंदिरा गांधी की हत्या के घंटों बाद शुरू हुआ. राजनीतिक व्यवस्था और सरकार के पास 24 घंटे का खासा वक्त यह सुनिश्चित करने के था कि दिल्ली की सड़कों पर इस तरह की कोई घटना नहीं घटे. पहले सिख की हत्या 31 अक्टूबर को नहीं हुई थी (जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी), बल्कि उसके अगले दिन 10 बजे के आसपास हुई थी. उसके बाद तीन दिन तक दिल्ली की सड़कों पर मौत का नंगा नाच जारी रहा. अगर सरकार चाहती तो कार्रवाई कर सकती थी, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि ऐसा करने के लिए कोई नहीं था. संदेश स्पष्ट था कि सिखों से प्रतिशोध लिया जा चुका था.
हम अगले कुछ हफ्ते और महीने तक इस शर्मनाक और घृणित घटना के बारे में उठे सवालों की तह तक जाने की कोशिश करेंगे. असली पत्रकारिता के द्बारा ही सच्चाई से रहस्य का पर्दा उठना चाहिए. इसका निष्कर्ष कितना ही कटु क्यों न हो. सिख विरोधी दंगे के आरोपी सजा से बच गए. लेकिन सामाजिक रूप में यह स्वीकार करना जरूरी है कि हमारी सरकार, हमारी पुलिस, हमारे नेता और हमलोगों में कुछ कमी है. कभी कभी मैं सोचता हूं कि अगर राजीव गांधी इस घटना के दोषी को न्याय दिला देते तो शायद मुंबई और गुजरात जैसी इस तरह की घटना नहीं घटती. सिख दंगे ने पूरे देश को संदेश दिया है. वह यह कि आप दूसरी कौम पर क्या अत्याचार करते हैं यह मायने नहीं रखता है, क्योंकि आपको इसके लिए सजा नहीं मिलेगी.

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