इंदिरा गांधी की हत्या के तीन दिन बाद 31 अक्टूबर 1984, दिल्ली की तत्कालीन सरकार और प्रशासनिक तंत्र ने पूरी तरह से  घुटने टेक दिए थे. गुस्साए हथियार से लैस और संगठित प्रदर्शनकारियों ने गलियों में आग लगा दी और सिखों की संपत्ति को लूटने लगे और 3000 बच्चों, औरतों और पुरुषों को मौत के घाट उतार दिया गया.
दिल्ली पुलिस ने सभी व्यावहारिक कारणों से इन घटनाओं को रोकने की अपनी ज़िम्मेदारी नहीं उठाई. सरकार के मुखिया राजीव गांधी शोक में थे और इसी वजह सरकार भी शायद कुछ न कर सकी. सेना की तैनाती बेहद धीमी रफ़्तार से की गई. क्रमबद्ध तैनाती सरकारी शब्दावली थी. सरकारी नियंत्रण वाले रेडियो और टीवी स्टेशनों पर शोक की धुन प्रसारित की जा रही थी. कोई भी बड़ी घोषणा नहीं हुई और न ही नरसंहार के बारे में अधिक जानकारी दी गई. 72 घंटों तक ऐसा लगा कि भारत में सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं रही थी.
अगर दिल्ली जल सकती है, तो राज्यों का क्या हाल हुआ होगा. अब तक अलग राज्यों में सिखों के मौत की संख्या अनुमानित ही की जाती है. सच पूछिए तो केंद्रबिंदु हमेशा दिल्ली का नरसंहार बना रहा, जो कि होना भी चाहिए था. लेकिन अन्य राज्यों, ख़ास तौर से हिंदी भाषी क्षेत्रों में काफी कत्लोगारत हुआ और हज़ारों सिखों को मार दिया गया.

उत्तर प्रदेश के कानपुर, लखनऊ, गाज़ियाबाद के अलावा दूसरे शहरों में भी सिखों को निशाना बनाकर उनकी हत्या की जा रही थी. इंडिया टुडे ने 30 नवंबर 1984 के अंक में लिखा कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो हिंसा और हत्या हुई, पुलिस इसे रोकने में असफल रही, जिसके लिए उन्हें दोषी ठहराया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए लखनऊ में,चारबाग स्टेशन पर सुबह से जमा प्रदर्शनकारी एक अफवाह से उत्तेजित हो गए कि पंजाब में सिखों द्वारा मारे गए हिंदुओं की लाशें पंजाब से आ रही हैं.
हालांकि सिख यात्रियों पर उपद्रवियों ने जो हमले किए थे, उसकी सूचना पुलिस को दी गई थी, लेकिन कोई मामला दर्ज नहीं किया गया और न ही कार्रवाई की गई. उस दोपहर ट्रेन जब 3:15 बजे अमृतसर से यहां पहुंची, तब नरसंहार को रोकने के लिए कोई नहीं था- पांच सिखों को ट्रेन से खींचकर पुलिस के आने से पहले मार दिया गया. पुलिस घटनास्थल पर एक से डेढ़ घंटे देरी से पहुंची और दिखावे के लिए केवल हवा में फायरिंग की. उत्तर प्रदेश में लगभग पांच सौ सिखों ने अपनी जान गंवाई.
बिहार भी इससे अलग नहीं था. वास्तव में दिल्ली के बाद बिहार ही सिखों की हत्या के मामले में दूसरे स्थान पर रहा- पटना, जमशेदपुर, रांची, बोकारो, भागलपुर, डाल्टनगंज, मुज़फ्फरपुर, हज़ारीबाग के साथ ही दूसरे शहरों में भी हिंसा भड़क उठी. इंदिरा गांधी की हत्या के कुछ घंटे बाद उग्र प्रदर्शकारियों ने बोकारो में लूटपाट और लोगों को मारना शुरू कर दिया. आम तौर पर शांत रहने वाले बोकारो में शाम तक 60 सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया. मुख्य मंत्री चंद्रशेखर सिंह राज्य छोड़कर दिल्ली के लिए रवाना हो गए. जबतक वह वापस आए तब तक क्षति हो चुकी थी. इंडिया टुडे ने लिखा कि बहुत मामलों में लूटपाट करने वाले उपद्रवियों का नेतृत्व स्थानीय नेता कर रहे थे. यह संदेह तब और पुख्ता हो गया जब मुख्यमंत्री ने एक स्थानीय नेता को पटना साहिब (गुरु गोविंद सिंह के जन्म स्थल) से गिरफ्तार करने का आदेश दिया. पत्रिका में आगे लिखा गया है-राजनीतिक दलों से भी ख़राब तो पुलिस की नाकामी थी. इन सबके बीच एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बिना किसी झिझक के यह कह दिया कि जो कुछ भी हो रहा था, वह तो प्राकृतिक प्रतिक्रिया थी. प्रशासन के रवैए और भूमिका के बारे में पत्रिका में लिखा गया है- कई घटनाओं में सेना को केवल काग़ज़ पर बुलाया गया था. सेना ने केवल फ्लैग मार्च किया और बिना कोई ख़ास भूमिका निभाए वापस चली गई. यह ख़ास तौर पर पटना में हुआ, जहां सेना को मार्च का आदेश देन से पहले शायद ही ट्रकों से उतरने दिया गया. पत्रिका आगे बताती है-तीन दिनों तक चली इस बेरोकटोक हिंसा में केवल सात लोग ही पुलिस फायरिंग में मारे गए. बाकी सब की हत्या भीड़ ने की. हिंसा आख़िरकार तभी रुकी, जब पंद्रह शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया और सात में अंततः सेना की तैनाती की गई, लेकिन इस बीच लगभग 600 से 800 सिखों की हत्या बिहार में कर दी गई थी. इससे कई गुणा तो घायल हुए थे.
दूसरा राज्य, जिसमें सिखों का भारी पैमाने पर संहार हुआ, वह मध्य प्रदेश था. लगभग हरेक शहर ने किसी न किसी रूप में हिंसा देखी. इनमें रतलाम, रीवा, सागर, सतना, भोपाल, मांडला, रायपुर, बैतूल, भिंड, होशंगाबाद और इंदौर वगैरह. असल में इंदौर सबसे अधिक प्रभावित था. शहर में हिंसा इंदिरा गांधी की हत्या के एक दिन बाद शुरू हुई. आधिकारिक तौर पर एक नवंबर 1984 को इंदौर में 22 सिखों की हत्या हुई. शहर के तत्कालीन जिलाधीश अजित जोगी ने बयान दिया कि वह असहाय थे-हरेक चीज अनियंत्रित थी. ऐसा लगता था, मानो शहर की पूरी आबादी गलियों में थी. लगभग 200 से 300 सिखों की हत्या मध्य प्रदेश में हुई.
हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी बड़े पैमाने पर हिंसा और हत्याएं हुईं. मैं जब भी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुई हिंसा के बारे में सोचता हूं, तो अचरज में पड़ जाता हूं कि एक देश और नागरिक के तौर पर हम अपना दुखद इतिहास क्यों भूल जाते हैं. हम कम से कम अपनी अंतरात्मा में क्यों नहीं झांकते और आख़िर दोषी को सज़ा क्यों नहीं देते? उसे क़ानून के सामने नंगा क्यों नहीं करते? हम क्यों छोटी, तुच्छ और बेकार की बातों पर बहस कर उसे बस खींचते रहते हैं. क्या मीडिया इतिहास की धारा को कृत्रिम बनाने का ज़िम्मेदार है, या हम ख़ुद दोषी हैं, क्योंकि हम वह सब कुछ पचा ले जाते हैं, जैसे ही हमें वास्तविकता से फंतासी की दुनिया में जाने का मौका मिलता है. जहां कारगिल का कोई महत्व नहीं है, लेकिन करीना और सैफ का है. खैर, यह तो विषयांतर है. मैं तो बस एक बात यह बताना चाहता हूं कि भारत ने उसकी बड़ी कीमत चुकाई है-सिखों के नरसंहार के बदले. पंजाब में आतंकवाद ने कम से कम 25,000 लोगों की जान लेल ी. क्या हम अपने कल से कुछ भी सीख लेंगे? क्या हमारे राजनीतिक दल अब अधिक बेहतर और मज़बूत बनेंगे? मेरा ख्याल है, नहीं. याद कीजिए, शूगेट (जरनैल सिंह नामक पत्रकार का चिदंबरम पर जूता फेंकना). आख़िर, उसका विरोध तो कांग्रेस के दो उम्मीदवारों के ख़िलाफ ही था. यह घटना कुछ महीने पहले की ही है. क्या हम उम्मीद करें कि इतिहास का सबक हमारे नेताओं को याद होगा?

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