इस हफ्ते श्रीनगर का जामा मस्जिद का इलाका एक अलग तरह की खबर के कारण सुर्ख़ियों में था. यहां खुश-ख़ती यानी इस्लामी कैलीग्राफी का जश्न मनाया गया. यह इलाका आम तौर पर शटडाउन या फिर पुलिस के साथ झड़प की वजह से सुर्खियों में रहता है. ऐसे में ये बात राहत देने वाली थी. नोहट्टा और आस-पास के इलाके दशकों तक प्रतिरोध और विरोध-प्रदर्शन के केंद्र रहे हैं. जामा मस्जिद का इलाका हाल में इस वजह से सुर्खियों में रहा, क्योंकि यहां भीड़ ने डीएसपी एम अयूब पंडित को शब-ए-क़दर की रात पीट-पीट कर मार दिया था. पिछले दिनों एक कट्टर प्रतिरोधी सजद गिलकर, जो बाद में मिलिटेंट बन गया था, मारा गया, तब उसकी लाश को आईएसआईएस के झंडे में लपेटा गया था. इस बात ने चारों ओर हंगामा खड़ा कर दिया था. सुरक्षा बलों के साथ पत्थरबाज़ी और टकराव की घटनाएं ही राजनीतिक रूप से सजग इस इलाके की पहचान बन गई हैं. यहां राज्य के खिलाफ अक्सर गुस्से का प्रदर्शन होता रहा है.
बहरहाल, पिछले दिनों नोहट्टा चौक पर एक अलग चीज़ देखने को मिली. ये चीज़ थी कश्मीर में इस्लामी खुश-ख़ती का जश्न मनाने की. इंटेक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) द्वारा आयोजित खुश-ख़ती के जश्न ने बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया, जो शायद आम दिनों में यहां आने से परहेज करते. सबसे अधिक उत्साह युवाओं और लड़कियों में था, जिन्होंने खुश-ख़त कार्यशाला में अपना हुनर दिखाने की कोशिश की. उनमें से कुछ ने खूबसूरत लिखाई के ऐसे नमूने पेश किए, जो लंबे अनुभव के बाद ही सीखे जा सकते हैं. इसे देख लोग आश्चर्यचकित रह गए. इससे इस विश्वास को बल मिलता है कि यह कला जीन में ही शामिल होती है.
दरअसल इस कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण केंद्र 93 वर्षीय मास्टर मेटल कॉलिग्राफर मोहम्मद अमीन कुंडांगर थे, जिन्होंने सोने पर खत्ताकी के अनूठे नमूने पेश किए. कुंडांगर ने ही सप्ताह भर चलने वाली इस प्रदर्शनी का उद्घाटन किया. उन्होंने सोचा था कि आधुनिकता के आगमन के साथ कला मर रही है, लेकिन नई पीढ़ी में इस कला के प्रति उत्साह देखकर उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ.
जान मोहम्मद कुदसी द्वारा रचित मशहूर नात ‘मरहबा सैयेद-ए-मक्की मदनी अल अरबी’ पर आधारित कला ने हर किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया. ऐसा माना जाता है कि इस नात की पहली दो पंक्तियों के आधार पर पूरी दुनिया में लगभग 5000 नात लिखे गए हैं. यहां तक कि इस नात को फिल्मों में भी इस्तेमाल किया गया है. जामा मस्जिद से सटे ज़दिबल से सम्बन्ध रखने वाले नौजवान कातिब अशफाक अली पररे का कहना था कि कुदसी के नात पर मेरा यह काम शादिपुरा श्राइन के आठ बाई छह फुट कैनवास पर किए गए काम का सिर्फ एक छोटा संस्करण है. उसी तरह फिदा हुसैन राठर, नदिया मुश्ताक मीर, इफ्तिखार जाफर और तहा मुगल के कृतियों की भी खूब प्रशंसा हुई.
नोहट्टा चौक में इस तरह का आयोजन बहुत सारे लोगों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण था. इस चौक को पिछले 27 वर्षों में कई नामों से संबोधित किया गया, जिनमें से एक है ‘कश्मीर की गाजा पट्टी’. डाउनटाउन श्रीनगर को शहर-ए-खास भी कहा जाता है. यह राजनीतिक अधिकारों, भेदभाव और दमन के खिलाफ संघर्ष में सबसे आगे रहा है. यहां राजनीतिक शांति का दौर भी रहा है, जब धार्मिक और राजनैतिक संगठनों ने अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ अल्पावधि के समझौते किए. दरअसल, इस इलाके के लोगों में राजनीतिक अधिकार हनन की भावना काफी गहरी है. लगभग तीन दशकों में श्रीनगर डाउन टाउन को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा है. इस इलाके को वे लोग भी याद करते हैं, जो इसे छोड़ कर सुरक्षित उपनगरीय इलाकों में चले गए हैं. एक तरह से खुश-ख़ती कार्यक्रम ने इस क्षेत्र की शानदार परंपरा और अतीत एवं कला के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान की याद दिला दी.
इस क्षेत्र में खुश-ख़ती या खत्ताती का जन्म तब हुआ, जब कश्मीर के एक महान शासक जैनुल आबेदीन बादशाह (1418-70)ने पीर हाजी मोहम्मद की देखरेख में दारूल तर्जुमा (अनुवाद केंद्र) स्थापित किया.
पीर हाजी मोहम्मद ने इस केंद्र के लिए खत्तातों को भी नियुक्त किया था और उसे एक स्कूल बना दिया था. यहां से कई लोगों ने इस कला को सीखा. शुरू में बादशाह ने मध्य एशिया से कुछ खत्ताती के शिक्षकों को बुलाया था. जहां वो केंद्र था, आज भी उस जगह को हाजी मोहम्मद मोहल्ला के नाम से जाना जाता है. यहां के छात्र कुरान और फारसी पुस्तकों की किताबत करते थे. गौरतलब है कि बादशाह ने फारसी भाषा को अपनाया था. नतीजतन, पुस्तकें तैयार होने लगीं और जिल्दसाजी का काम होने लगा. इसके कारण एक करीबी मोहल्ले का नाम जिल्दगर (जिल्द बांधने वाले) मोहल्ला के नाम से जाना जाने लगा. जल्द ही कागज़ बनाने का काम शुरू हो गया, जिसकी वजह से कागजीगारी मोहल्ला वजूद में आया. दरअसल, यहां का उत्पाद इतना मशहूर था कि सम्मानित विद्वान संत शेख याकूब सरफी (जन्म 1521) ने लाहौर के अपने आध्यात्मिक गुरु के बारे में कहा था कि उन्होंने कश्मीरी कागज की गुणवत्ता की तारी़फ करते हुए इसे हासिल करने की इच्छा जाहिर की थी. (सम्राट जहांगीर ने कश्मीर को इतना पसंद किया कि वह गर्मियां बिताने यहीं आता था.)
सुलेख कला की कश्मीरी परंपरा इस्लाम के प्रमुख धर्म बनने से पहले की है. इतिहासकारों का मानना है कि यह कला 15 वीं सदी से सुल्तान सिकंदर के शासनकाल से यहां अस्तित्व में आई थी. मुगलकाल के दौरान कई वंशों ने इसे अपनाकर विकसित किया. यह वासिफी, अंद्राबी, मख्दूमी और खानायर के मीर के बीच एक व्यवसाय बन गया था. एक हस्तलिखित पवित्र कुरान अब भी जम्मू और कश्मीर एकेडमी ऑफ आर्ट, कल्चर एंड लैंग्वेजेज के पास संरक्षित है, जिसे 1237 ईस्वी में एक फतउल्ला काश्मीरी ने तैयार किया था. दरअसल, खत्ताती कश्मीर में इस्लामी वास्तुकला की सजावट का माध्यम रहा है, जो आज भी लोगों को अपनी सुंदरता के लिए लोगों को आकर्षित करता है.
कार्यक्रम के आयोजकों के मुताबिक, मध्ययुगीन काल के दौरान कश्मीर ने कई खत्तातों को जन्म दिया, जिनमें कई मुगल दरबार में उच्च पद पर स्थापित हुए थे. मुहम्मद हुसैन ज़र्रीन कलम, मुहम्मद मुराद शीरीं कलम कुछ ऐसे नाम हैं, जिनकी कृतियां पूरे विश्व के प्रमुख संग्रहालयों में मिल सकती हैं. खुश-ख़ती के आयोजक और इनटैक संयोजक सलीम बेग ने कहा कि खुशनवीसी की कला आधुनिकता के आगमन तक जारी रही है, और कश्मीर में कई प्रसिद्ध खुशनवीस पैदा हुए.
कश्मीर में उर्दू अख़बारों के अस्तित्व का एकमात्र स्रोत खत्ताती रही है. कंप्यूटर के आने से पहले उर्दू प्रेस का अस्तित्व इसलिए बना रहा, क्योंकि यहां कई ऐसे कातिब थे जो अखबारों का एक-एक शब्द सावधानी से इस्तेमाल करते थे. यह अकादमी अब भी एक स्कूल चलाती है, जो युवाओं को इस कला की ओर आकर्षित करने की कोशिश करती है. अकादमी के सचिव अजीज हजनी ने कहा, यह समाप्त होती कला नहीं है, लेकिन तकनीकी प्रगति की वजह से कॉलिग्राफर के लिए जीवनयापन करना आर्थिक रूप से मुश्किल हो गया है. यही कारण है कि खुश-ख़ती कार्यशाला में बहुत संभावनाएं हैं. यह न केवल लोगों को यह एहसास दिलाता है कि इस क्षेत्र का एक इतिहास रहा है, जो इस क्षेत्र के सुर्ख़ियों में रहने से बिलकुल अलग है, बल्कि यह एक उज्जवल भविष्य की संभावनाओं की ओर भी इशारा करता है. श्रीनगर डाउन टाउन के इतिहासकार इस क्षेत्र के साथ नाइंसाफी करेंगे, यदि वे सिर्फ यहां के एक ही पहलू को उजागर करते हैं.
-लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.