प्रतिभागी लोकशाही (पार्टिसिपेटरी डेमोक्रेसी) का विचार हमारे लिए कुछ नया नहीं है. यह तो पुराने भारतीय क़ानून और इस्लामी क़ानून में भी उल्लिखित है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी कहा गया है-प्रजासुखे सुखम राज्ञा, प्रजानाम तु प्रियम हितम, यानी शासक को यह जानना चाहिए कि प्रजा का हित किसमें है. पवित्र क़ुरान में भी वा अमरुहम शूरा बैनाहुम का आदर्श बताया गया है, जिसका मतलब हुआ कि वे अपने मामले आपसी सहमति से सुलझाते हैं. हमें इन सारी पवित्र बातों से उन विदेशी व्यापारियों ने महरूम कर दिया, जिन्होंने इस मुल्क की राजनीतिक ताक़त को हथिया लिया और हम पर लगभग 350 वर्षों तक शासन किया. यह उनके तानाशाही शासन के आख़िरी 50 वर्षों में ही संभव हुआ कि काफी हीले-हवाले के बाद उन्होंने हमें अपने प्यारे मुल्क के शासन में कुछ हद तक शिरकत करने की छूट दी. 1892 के इंडियन काउंसिल एक्ट से लेकर 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट तक का स़फर बेहद लंबा और मानीखेज रहा. आख़िरकार हमने 1857 से छेड़ी गई आज़ादी की लड़ाई का स़फर 1947 में पूरा किया. इसके ठीक दो साल बाद-हम, भारत के लोगों-ने एक होकर और सामूहिक तौर पर अपने इतिहास में एक नया मील का पत्थर लिखा, जब हमने एक नया और शानदार संविधान अपनाया, लागू किया और उसे ख़ुद को दिया. इस संविधान से हमने दुनिया की सबसे बड़ी लोकशाही को पैदा किया. इसकी बुनियाद संप्रभुता, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता पर रखी गई. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत वह वरदान है, जो नागरिकों को शासन में भागीदारी का अधिकार देता है. ग़ौर करने वाली बात यह है कि आठ सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) देशों में से छह में एक न एक धर्म को राजकीय धर्म घोषित किया गया है. भूटान और श्रीलंका में बौद्ध धर्म, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और मालदीव में इस्लाम, नेपाल में हाल-हाल तक हिंदू धर्म राज्य का धर्म था. भारत ने ही अपने संविधान के तहत खुद को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया हुआ है. ज़ाहिर तौर पर भारत, पश्चिमी देशों के राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत को नहीं मानता, बल्कि वर्षों के स़फर के दौरान इसने अपना अनूठा तरीक़ा विकसित किया है. हिंदुस्तान में हमेशा से ही कई सारे आध्यात्मिक और धार्मिक मतों की बहुतायत रही है, जिनकी परंपराओं और विश्वासों से राज्य अछूता नहीं रह सकता. इस ज़मीनी सच्चाई ने हमेशा ही देश के क़ानून और विधान पर प्रभाव डाला है. यही बात हमारे समय के साथ भी लागू होती है.
संविधान के मुताबिक हिंदुस्तान का कोई भी एक धर्म राजकीय नहीं है. यह साफ तौर पर राज्य को धर्मनिरपेक्ष घोषित करता है. इसके बाद भी भारत में राज्य और धर्म के बीच कोई साफ विभाजक रेखा नहीं है. न तो किसी धर्म को सार्वजनिक जीवन और राजकीय प्रक्रिया से हटाया जाता है, न ही राज्य किसी धर्म के मामलों में दख़ल देता है. बात बस इतनी सी है कि मुल्क के सारे मज़हब राज्य की नज़रों में एक हैं और सभी धार्मिक समुदाय एक समान अधिकारों के  हक़दार हैं. यह धर्मनिरपेक्षता की भारतीय व्याख्या है और यह राज्य के तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका-की नीतियों और व्यवहार में दिखता है.
हिंदुस्तान की धार्मिक-सांस्कृतिक सच्चाई को देखते हुए 1950 में लागू संविधान मुल्क के हरेक क्षेत्र की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं के साथ ही उस इलाक़े की ख़ास संस्कृति, भाषा और लिपि को बचाने का निर्देश देता है. इसके साथ ही सभी नागरिकों का यह मूल कर्तव्य भी है कि वे हमारी सामाजिक संस्कृति और शानदार विरासत का सम्मान करें.
संविधान सभी व्यक्तियों और समुदायों को धार्मिक स्वतंत्रता देता है. सभी नागरिकों को उनके धर्म को मानने, व्यवहार में लाने और उसका प्रचार करने की पूरी आज़ादी है. इसी तरह हरेक धार्मिक समुदाय को अधिकार है कि वह मज़हब के मामले में अपना व्यवहार ख़ुद चुनने को स्वतंत्र है. साथ ही वह धार्मिक और दान के मक़सद से संस्थान बना सकते  हैं और हरेक तरह की संपत्ति का मालिकाना हक़ रखने, अधिग्रहण करने और उनका प्रशासन चला सकते हैं. हालांकि, आगे चलकर यह भी साफ कर दिया गया है कि धार्मिक अधिकारों को दी गई संवैधानिक सुरक्षा का मतलब यह नहीं है कि राज्य किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या फिर सेकुलर गतिविधि-जो धर्म से संबंधित हो-का नियमन और नियंत्रण नहीं कर सकती. इस तरह संविधान ने बेहद ख़ूबसूरत संतुलन किया है, ताकि लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता देने के साथ ही राज्य सुधारों का काम भी कर सके.
लोकशाही पुराने समय से आज तक एक विकासशील प्रक्रिया है. प्रजातांत्रिक आदर्शों के सिद्धांत और व्यवहार हरेक राज्य और अख्तियार के मुताबिक बदलते रहते हैं. लोकशाही के सिद्धांत बहुतेरे हैं, क्योंकि सामाजिक विचारकों और राजनीतिक विज्ञानियों ने सदियों से इसके बारे में लिखा है. इसी वजह से प्रजातंत्र के भी कई प्रकार हैं, जैसे-प्रातिनिधिक लोकशाही, प्रतिभागी प्रजातंत्र, विचारात्मक लोकतंत्र और प्रत्यक्ष प्रजातंत्र.
प्रातिनिधिक लोकतंत्र में एक प्रजातांत्रिक इच्छाशक्ति के ज़रिए निम्न और निर्भर वर्गों को अधिकार दिए जाते हैं ताकि वे स्वतंत्र तरीक़े से काम कर सकें. आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संसाधनों पर हक़ जमाए लोगों से बराबरी के स्तर पर बात कर सकें. इस तरह की व्यवस्था में नागरिकता का विचार उस गारंटी पर आधारित होता है कि देश के हरेक नागरिक को समान क़ानूनी और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं. भले ही, उनकी सामाजिक, धार्मिक या नस्लीय पृष्ठभूमि कुछ भी हो. यह विचार एक ज़िम्मेदार नागरिक की हदें भी तय करता है. यह तीन मूल और अपरिहार्य विचारों की कल्पना करता है. पहला तो यह कि सरकारी पदों के लिए व्यक्तियों और पार्टियों के बीच प्रतियोगिता का विचार. दूसरा-स्वतंत्र, साफ-सुथरे और निश्चित अंतराल पर नगरिकों के बीच पार्टियों और प्रतिनिधियों के चुनाव की कल्पना और तीसरे बोलने, छापने, इकट्ठा होने और संगठित होने की हरेक तरह की नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना. साथ ही वह आवश्यक हालात पैदा करने का भी संवैधानिक प्रावधान है, जिसके तहत प्रभावी प्रतियोगिता और ज़रूरी प्रतिनिधित्व भी हरेक नागरिक को हासिल हो सके. इन तीनों विचारों में सबसे पहला नागरिकों को अधिकार देता है कि वे वैकल्पिक उम्मीदवारों में से किसी एक का चुनाव कर सकें. दूसरा विचार, एक ख़ास अंतराल पर चुनाव की भूमिका तैयार करता है जिससे पारदर्शिता को बढ़ावा मिल सके और जनप्रतिनिधियों को उनके कामों के लिए ज़िम्मेदार समझा जा सके.
अपने मुल्क के शासन में नागरिकों की वैधानिक हिस्सेदारी हो सके, इसके लिए 1948 के यूनिवर्सल डिक्लरेशन ऑफ ह्युमन राइट्‌स के अनुच्छेद 21 और 1966 ईस्वी में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर हुए अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में मानव अधिकार को परिभाषित किया गया है. महसूस किया गया कि लोकशाही में संख्या बल का खेल चलता है और इसी वजह से अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की ख़ास तौर पर सुरक्षा होनी चाहिए. 1992 में इसी को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने राष्ट्रीय या नस्लीय, धार्मिक या भाषाई आधार पर अल्पसंख्यकों के अधिकार को परिभाषित किया. इसमें कहा गया है कि किसी भी आधार पर जो भी अल्पसंख्यक हैं, उनको अपने-अपने देश में सभी स्तरों पर ़फैसला लेने की प्रक्रिया में शामिल होने का हक़ है.
भारत के संविधान में भी मुल्क के शासन में हिस्सेदारी करने को मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया गया है. हमने 1950 में शासन का जो घोषणापत्र अपनाया था, वह प्रतिभागी लोकशाही के प्रावधानों और सिद्धांतों से भरा हुआ है. इसकी प्रस्तावना, मूलभूत अधिकारों पर के अध्याय, राज्यों के नीति-निर्देशक तत्व, नागरिकों के मूलभूत कर्तव्य, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के चुनाव और प्रक्रिया, नौकरशाही और स्थानीय स्वशासन वगैरह कुल मिलाकर एक ख़ज़ाने की तरह हैं, जो अगर उचित तरीक़े से लागू किया जाए, तो हमारा मुल्क एक ऐसी लोकशाही में बदल सकता है, जो प्रजातंत्र के सभी स्वरूपों को सही मायने में लागू कर सकते हैं. ताकि शासन के सभी स्तरों पर प्रतिनिधित्व, प्रतिभागिता, विचारात्मक और प्रत्यक्ष लोकतंत्र लागू किया जा सके.
1950 के संविधान का बृहत प्रजातांत्रिक दृष्टिकोण वर्षों तक विकासशील रहा, जो धीरे-धीरे और मज़बूत हुआ है. सूचना का अधिकार क़ानून, उपभोक्ता अधिकारों के नए आयाम, जनहित याचिका के मौके मिलना, लोकपाल और लोकायुक्त जैसे पदों का बनना और अल्पसंख्यक आयोग व मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं के गठन ने ज़ाहिर तौर पर एक ऐसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था के निर्माण में योगदान दिया है, जिसमें नगरिक एक बेहद प्रभावी और महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं.
ताहिर महमूद
(लेखक क़ानून के प्रोफेसर हैं और भारत के क़ानून आयोग के सदस्य भी.)

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