मेरे हिसाब से चीन का मसला सुलझाना आसान है. इसके लिए हमें खुला दिमाग रखना होगा और सीमा का रेखांकन करना होगा. पाकिस्तान के साथ हमारा मसला मनोवैज्ञानिक है. कश्मीर ऐसा ही मुद्दा है. नक्शे को बिना फिर से खींचे ही मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी इस समस्या के समाधान के क़रीब तक पहुंच गए थे, लेकिन अंतिम समाधान नहीं निकल सका. यह ज़रूरी है कि ऐसे माध्यम की तलाश की जाए, जिससे कश्मीर के दोनों तरफ़ के लोग एक-दूसरे से मुक्त रूप से मिल सकें, आर-पार आ-जा सकें.
भारत और पाकिस्तान की सीमा पर जारी तनाव शांत हो गया है. जैसा कि मैंने पहले भी कहा था सीज फायर का उल्लंघन और गोलाबारी, इस सबका समाधान दोनों तरफ़ के मिलिट्री कमांडरों के बीच बातचीत से ही होता है. यही प्रक्रिया है, इसमें कोई दिक्कत नहीं है. पिछले तीन महीनों में क्या हुआ? इस दौरान कूटनीतिक मोर्चे पर विफल रहने के बाद सीमा पर तनाव बढ़ाने के लिए प्रत्यक्ष आक्रमण किया गया. कूटनीति मोर्चे पर विफल होने के मायने है, पाकिस्तान के हुर्रियत नेताओं से मिलने के बाद भारत-पाक वार्ता स्थगित होना, यूएन में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर मुद्दा उठाए जाने के बाद भी असफल रहना, क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री ने बहुत ही बुद्धिमता दिखाते हुए इस मुद्दे को हाशिये पर धकेल दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा हमारे प्रधानमंत्री से मिले, वहीं वह नवाज शरीफ से नहीं मिले. इस सबकी वजह से पाकिस्तान का निराश होना स्वाभाविक है. इसीलिए वह सीमा पर तनाव बढ़ाना चाहता था.
यह अच्छी बात है कि सीमा पर अब शांति है. भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा का निर्धारण अच्छे ढंग से हुआ है. सीज फायर लाइन और एलओसी का निर्धारण भी सही ढंग से हुआ है. इसलिए संघर्ष की कोई बात नहीं है. यह संभव है कि दोनों देश इसे समझें और यथास्थिति बनाए रखें. अगर ये ऐसा नहीं करते हैं, तो इन्हें कोई फ़ायदा नहीं होगा. दोनों देशों का पैसा सीमा पर तनाव की वजह से खर्च होता है. सरकार की तरफ़ से कूटनीतिक पहल ज़रूर शुरू की जानी चाहिए. प्रधानमंत्री ने यूएन में भी यह स्पष्ट किया है कि हम बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन शर्त सही होनी चाहिए. आतंक और गोलाबारी की धमकी के बीच ऐसा करना संभव नहीं है.
जहां तक चीन की बात है, तो यहां स्थिति भिन्न है. इन दोनों देशों के बीच सीमा का रेखांकन साफ़ नहीं है. हम जिसे मैकमोहन लाइन कहते हैं, चीन उसे नहीं मानता है. चीन का कहना है कि इस पर भारत और तिब्बत के बीच हस्ताक्षर हुए थे. यह भी कि उक्त लाइन एक मोटे कलम से छोटे स्केल के नक्शे पर खींची गई थी. इसका मतलब यह हुआ कि दोनों देश अपने-अपने हिसाब से इसका अर्थ निकाल सकते हैं. मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर एक गंभीर सीमा आयोग (बाउंड्री कमीशन) का गठन होना चाहिए, जो बैठकर, बातचीत करके स्पष्ट सीमा का निर्धारण करे. जाहिर है, इसके लिए हमें संसदीय क्लीयरेंस आदि चाहिए. लेकिन अगर हम चीन के साथ दीर्घकालिक शांति चाहते हैं, तो यह करना ही होगा और ऐसे करना होगा, जिससे दोनों पक्ष संतुष्ट हो सकें.
जैसा कि प्रधानमंत्री नेहरू कहा करते थे कि वार्ता हमेशा चलती रहनी चाहिए. लेकिन, बातचीत और समझौते के बीच अंतर है. स़िर्फ वार्ता से काम नहीं चलेगा. जब हम समझौता कहते हैं, तो यह तब तक संभव नहीं है, जब तक दोनों पक्षों के बीच लेन-देन (गिव एंड टेक) न हो. अगर हम स़िर्फ यह कहते रहें कि चीन को भारतीय क्षेत्र खाली कर देना चाहिए, तो ऐसे में समझौते के लिए कोई स्कोप नहीं बचता. तब हम यह मान लेते हैं कि जो मौजूदा लाइन है, वही अंतिम है. इस पर चीन का रुख वही है, जो 1959 से चला आ रहा है. यानी सीमा का रेखांकन हो. ऐसे में अगर भारत को आर्थिक रूप से विकसित होना है, जैसा कि हम बड़े निवेश के आने की उम्मीद भी कर रहे हैं. कुछ ऐसा करना होगा, ताकि सीमा पर शांति बनी रहे. सीमा पर अशांति रहने से हमें शारीरिक, आर्थिक और अस्त्र-शस्त्र आदि का नुक़सान होता है.
इस सबके बारे में दुनिया क्या सोचती है, मुझे नहीं मालूम, लेकिन प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह सारे राजनीतिक दलों की बैठक बुलाएं और यह जानने की कोशिश करें कि उनके मन में क्या है? यह कहा जाता है कि विपक्ष का मुख्य काम सरकार के हरेक काम की आलोचना करना है. लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर सबके बीच एक आम राष्ट्रीय सहमति हो. मैं यह कह सकता हूं कि कोई भी विपक्षी दल चीन या पाकिस्तान के साथ सीमा पर अशांति नहीं चाहता. मेरे हिसाब से चीन का मसला सुलझाना आसान है. इसके लिए हमें खुला दिमाग रखना होगा और सीमा का रेखांकन करना होगा. पाकिस्तान के साथ हमारा मसला मनोवैज्ञानिक है. कश्मीर ऐसा ही मुद्दा है. नक्शे को बिना फिर से खींचे ही मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी इस समस्या के समाधान के क़रीब तक पहुंच गए थे, लेकिन अंतिम समाधान नहीं निकल सका. यह ज़रूरी है कि ऐसे माध्यम की तलाश की जाए, जिससे कश्मीर के दोनों तरफ़ के लोग एक-दूसरे से मुक्त रूप से मिल सकें, आर-पार आ-जा सकें. ऐसे सेफ गार्ड भी हों, जिनसे भारत और पाकिस्तान के हित को नुक़सान न पहुंचे.
इस सब पर ज़रूर काम शुरू किया जाना चाहिए. आप बहुत लंबे समय तक अपने हितों को ख़तरे में डालकर नहीं रख सकते. ऐसा होता है, तो इस सबका कोई फ़ायदा नहीं होगा. खैर, खुशी की बात यह है कि सीमा पर अब शांति है. मैं उम्मीद करता हूं कि ठंड आने वाली है, नवंबर तक पाकिस्तान जो चाहे कर ले, लेकिन उसके बाद तीन-चार महीने तक के लिए शांति निश्चित है. इस दौरान हमें समय का फ़ायदा उठाते हुए एक ऐसा फ्रेमवर्क तैयार करना चाहिए, जिससे भारत और पाकिस्तान एक अच्छे पड़ोसी की तरह शांति से साथ-साथ रह सकें.
शांति के लिए वार्ता के साथ समझौता भी ज़रूरी
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