इस बार लंबे अरसे के बाद बिहार से एक कांग्रेस उम्मीदवार को राज्यसभा भेजे जाने की संभावना बनी, तो पुराने निष्ठावान दिग्गज कांग्रेसी मुंह देखते रहे, अखिलेश सिंह वह टिकट ले उड़े. राज्यसभा सदस्य बन गए. अभी हालत यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दूत के रूप में पार्टी के प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल बिहार में कांग्रेस को मजबूत करने के लिए आमंत्रण यात्रा निकाल रहे हैं. अखिलेश प्रसाद सिंह दिल्ली में सत्ता के गलियारों में घूम रहे हैं. शक्ति सिंह गोहिल उनके पूर्ववर्ती निर्वाचन क्षेत्र मुजफ्फरपुर में आमंत्रण यात्रा पर हैं. अखिलेश सिंह वहां सिर्फ रस्म अदायगी को पहुंचते हैं.
बिहार में कांग्रेस आज भी अपनी जमीन तलाश रही है. नए संगठन प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल के बाद यह उम्मीद जताई जा रही है कि कांग्रेस में बड़ा बदलाव अपेक्षित है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या जड़ मानसिकता के कांग्रेसी खुद को बदलेंगे! इसकी संभावना अत्यंत क्षीण है. परिषद चुनाव में एक अनार सौ बीमार जैसी स्थिति थी. पिछले दिनों राज्यसभा चुनाव में भी यही हालत थी. नया अध्यक्ष कौन होगा, इसके लिए भी लंबी कतार है. गुजरात से बाहर गोहिल अब एक नए पिच पर उतरे हैं, तो उन्हें बिहार में कांग्रेस के तथाकथित बड़े नेताओं को कायदे से संभालना होगा. काम इतना आसान नहीं है.
एक बड़े दिग्गज अपना नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि एकबारगी पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री अखिलेश प्रसाद सिंह आए, राज्यसभा का टिकट ले उड़े. कांग्रेस की यही सबसे बड़ी बीमारी है, पार्टी किसी पर मेहरबान होती है तो सबकुछ एक ही व्यक्ति को दे देती है, अन्यथा पूरी तरह से उपेक्षित रखती है. अखिलेश प्रसाद सिंह का कांग्रेस में आगमन 2010 के विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ. उन्होंने आते ही अपने कई शागिर्दों और रिश्तेदारों को टिकट दिलवाया. अरवल विधानसभा सीट से उनके भतीजे को कांग्रेस से उम्मीदवारी मिली थी, लेकिन उनकी जमानत तक नहीं बची थी. फिर, 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट से उम्मीदवारी प्रदान कर दी.
जबकि उनका मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट से कोई सरोकार नहीं था. उस सीट पर दावा पूर्व मंत्री रघुनाथ पांडेय की बहू विनीता विजय का बनता था. 2009 में कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ी थी तो उन्हें करीब सवा लाख वोट प्राप्त हुए थे. लेकिन उनके स्वाभाविक दावे को दरकिनार कर अखिलेश प्रसाद सिंह टिकट ले उड़े. अरवल से विधायक और राज्य में मंत्री रह चुके तथा मोतिहारी से सांसद और केंद्र में राज्यमंत्री रह चुके अखिलेश का मुजफ्फरपुर से सीधा कोई नाता नहीं था. इसके बावजूद उम्मीदवारी मिली, नतीजा वही ढाक के तीन पात जैसा हुआ. फिर 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हिस्से मिली चालीस सीटों में अखिलेश अपने लिए जगह खोजने लगे.
अंतत: भोजपुर जिले के तरारी सीट से पार्टी के प्रत्याशी बन गए. फिर मुंह की खाए, तीसरे स्थान पर रहे. फिर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पद के दावेदार बन गए. एकबारगी तो नाम पर मुहर लगते-लगते रह गई थी. इस बार लंबे अरसे के बाद बिहार से एक कांग्रेस उम्मीदवार को राज्यसभा भेजे जाने की संभावना बनी, तो पुराने निष्ठावान दिग्गज कांग्रेसी मुंह देखते रहे, अखिलेश सिंह वह टिकट ले उड़े. राज्यसभा सदस्य बन गए. अभी हालत यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दूत के रूप में पार्टी के प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल बिहार में कांग्रेस को मजबूत करने के लिए आमंत्रण यात्रा निकाल रहे हैं. अखिलेश प्रसाद सिंह दिल्ली में सत्ता के गलियारों में घूम रहे हैं. शक्ति सिंह गोहिल उनके पूर्ववर्ती निर्वाचन क्षेत्र मुजफ्फरपुर में आमंत्रण यात्रा पर हैं. अखिलेश सिंह वहां सिर्फ रस्म अदायगी को पहुंचते हैं.
सामूहिक नेतृत्व की कमी
ऐसा ही प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष एवं जदयू में नवागंतुक अशोक चौधरी के जमाने में भी हुआ. अशोक चौधरी 2009 में जमुई सुरक्षित लोकसभा सीट से पार्टी के उम्मीदवार बने, जमानत गवां बैठे. 2010 में बरबीघा विधानसभा की सामान्य सीट से भी उम्मीदवारी हासिल कर ली. उसमें भी मुंह की खाए और तीसरे नम्बर पर रहे. फिर राजद के सहयोग से विधान पार्षद बने.
अशोक चौधरी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने. अशोक चौधरी गठबंधन सरकार में शिक्षा मंत्री भी रहे. राज्य सरकार में मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का पद साथ-साथ मिला हुआ था. तभी तो उन्हें लगा कि बिहार कांग्रेस को अपनी जेब में रख वे जदयू के साथ रफूचक्कर हो जाएंगे. उन्होंने जमकर कोशिश भी की. जानकार मानते हैं कि कांग्रेस खुद प्रदेश में सामूहिक नेतृत्व विकसित नहीं होने दे रही है. एक ही व्यक्ति को इतना दे दिया जाता है कि उसमें सत्ता शक्ति का उन्माद पैदा हो जाता है.
एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि कांग्रेस भाजपा की तरह नए सामाजिक समूह को जोड़ने का प्रयास भी नहीं करती है. पिछले कुछ दशक से वह भूमिहार, ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक के परम्परागत खांचे में फंसी हुई है. इसमें से एक भी समाज उसके साथ नहीं है. भूमिहार और ब्राह्मण भाजपा के मोहपाश में फंसे हैं तो दलित कई खेमों में बंटे हैं. वहीं अल्पसंख्यक समाज कांग्रेस के पास आधार मत न होने के कारण राजद और लालू प्रसाद को ही अधिक विश्वसनीय समझता है.
लिहाजा कांग्रेस की स्थिति में कोई गुणात्मक बदलाव भी नहीं हो पा रहा है. गौरतलब है कि कांग्रेस ने भूमिहार समाज के रामजतन सिन्हा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो वह पद छोड़ लोजपा में शामिल हो गए. मुस्लिम समाज के चौधरी महबूब अली कैसर को प्रदेश का अध्यक्ष पद दिया तो पद से हटते ही लोजपा में जाकर सांसद बन गए. उसी तरह दलित में अशोक चौधरी को प्रदेश की सूबेदारी दी तो उन्होंने नीतीश कुमार के पाले में समर्पण कर दिया. काबिलेगौर है कि बिहार प्रदेश कांग्रेस का पिछले कई वर्षों से प्रखंड अध्यक्षों का कोई सम्मेलन नहीं हुआ. न ही पार्टी के स्टेट डेलीगेेट से कभी कोई राय-विचार हुआ.
दल के जिलाध्यक्षों के साथ प्रदेश अध्यक्ष और पार्टी प्रभारी की कितनी मीटिंग हुई है? ऐसे में कोई पार्टी परजीवी नहीं बनी रहेगी तो और क्या होगी! एक आहत वरिष्ठ कांग्रेसी कहते हैं कि सदाकत आश्रम में जयंती, पुण्यतिथि, स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के रस्मी कार्यक्रम के अतिरिक्त और क्या होता है? क्या कभी कार्यकर्ताओं का कोई नियमित सम्मेलन होता है? क्या उनकी राय ली जाती है? उसका कोई महत्व भी बचा है क्या? आज भी पूरे राज्य में सबसे निष्ठावान जमीनी समर्थकों की फौज कांग्रेस के पास है, उनमें ऊर्जा भरने वाले नेतृत्व की जरूरत है, जिसका लक्ष्य निजी राजनीतिक स्वार्थ न हो, बल्कि पार्टी को मजबूत करना हो.
अध्यक्ष पद के दावेदारों की लंबी फौज
डॉ. शकील अहमद- पार्टी के बिहार में सबसे बड़े नेता हैं. पिछले कई वर्षों उन्होंने बिहार के ग्रामीण इलाकों में शायद ही कभी रात्रि विश्राम किया होगा. यहां तक कि अपने जिला मधुबनी में भी कोई सम्मेलन और कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर आयोजित नहीं की है. जबकि वे वहां से सांसद, विधायक तथा राज्य और केंद्र में मंत्री रहे हैं. हालांकि पार्टी के प्रति अभी तक निष्ठावान रहे हैं, लालू से प्रभावित.
सदानंद सिंह – बिहार विधानसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता हैं. पार्टी से अधिक नीतीश के प्रति निष्ठावान हैं. जाति कमजोरी. उनके लिए दल हित से अधिक निजी हित महत्वपूर्ण है. अभी भभुआ सीट पर दल के किसी प्रभावशाली नेता अथवा दल के प्रति निष्ठावान साथी को टिकट दिलवाने के बजाय निजी सेवा में रहने वाले शम्भू सिंह पटेल को टिकट दिलवाया. परिणाम जगजाहिर है. नीतीश सरकार की विफलता पर मुखर होने के बजाय उनके सामने साष्टांग हो जाते हैं. सांगठनिक क्षमता ऐसी कि इनकी नाक के नीचे से अशोक चौधरी दल तोड़ने की धमकी दे रहे थे और वे निरपेक्ष भाव से पड़े थे. लगभग तीन साल होने को है, लेकिन विधायक दल में उत्साह न फूंक पाए. एक बार भी विधायक दल की बैठक कर पार्टी की मजबूती पर कोई विचार-विमर्श नहीं किया. विधायकों को पार्टी और संगठन से जोड़ने की कोई कोशिश नहीं की.
अनिल शर्मा – दल के प्रति निष्ठावान. हाल के वर्षों में संगठन को मुखर बनाने वाले एकमात्र अध्यक्ष. लेकिन पद से हटते ही पटना से विलुप्त, सिर्फ रस्मी आयोजनों में दिखते हैं. जिलास्तरीय आयोजनों में तो शायद ही कहीं नजर आते हैं. दिल्ली प्रवास इनकी सबसे बड़ी कमजोरी है. हालांकि, पार्टी को भूमिहार समाज से ही राज्यसभा सदस्य भेजना था तो पार्टी के लिए उचित होता कि इनके नाम पर विचार किया जाता.
मदन मोहन झा – बिहार विधान परिषद में पार्टी के नेता. सहज, सुलभ और मृदुभाषी, लेकिन राजनीतिक कौशल विहीन. बिहार विधान परिषद में पार्टी के नेता थे, अशोक चौधरी चार विधान पार्षद ले उड़े, इन्हें पता भी नहीं चला. मंत्री रहते कार्यकर्ताओं के लिए सबसे सहज उपलब्ध मंत्री थे. सांगठनिक क्षमता का घोर अभाव.
शकील अहमद खां – पार्टी के आयोजनों में सक्रिय भागीदारी, लेेकिन जमीनी स्तर पर अनुपलब्ध. कदवा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतने के बाद काफी कम सक्रिय. विधायक और राष्ट्रीय सचिव होने के बावजूद पार्टी को मजबूती प्रदान करने के लिए कोई सार्थक प्रयत्न नहीं.
अखिलेेश प्रसाद सिंह – निजी स्वार्थ तक सीमित सियासत. कांग्रेस से अधिक लालू के प्रति निष्ठावान. पार्टी संगठन की मजबूती के लिए कोई प्रयास नहीं. दल के विधायकों में अत्यंत अलोकप्रिय, सिर्फ पद के लिए कांग्रेस में हैं. अध्यक्ष पद मिला तो अशोक चौधरी ने जैसे पार्टी नीतीश को समर्पित कर दिया, उसी तरह यह राजद को समर्पित कर देंगे.
कौकब कादरी – दूरदृष्टि विहीन, सिर्फ पद बरकरार रखने को बेकरार.
अवधेश सिंह – पार्टी के प्रति निष्ठा संदिग्ध. अशोक चौधरी के प्रभाव में थे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुखापेक्षी. पार्टी के लिए उत्साह का अभाव.
डॉ. जावेद – किशनगंज तक सीमित, पार्टी के प्रति निष्ठावान. उत्साह का अभाव. महबूब अली कैसर की तरह खानदानी कांग्रेसी, पर संगठन क्षमता कमजोर. मुखर न होना भी एक कमी है. मुस्लिम समाज से इतर अपना विस्तार नहीं कर पाए.
निखिल कुमार- उम्र हावी हो गई है. पूर्व नौकरशाह होने के कारण जमीनी राजनीति से जुड़ाव कम. संगठन को मजबूती देने में सक्षम नहीं.
रामदेव राय – उम्र आड़े आती है, लेकिन यादव होने के कारण जिम्मेदारी देने से कोई लाभ नहीं. दल के प्रति निष्ठावान. हालांकि, अभी भी काफी सक्रिय. पुत्र के राजनीतिक नियोजन के लिए प्रयासरत.
रंजीत रंजन- युवा, मुखर और कांग्रेस नेतृत्व के करीब. उनकी सबसे बड़ी कमजोरी उनके पति पप्पू यादव हैं. उनकी सियासी उछल-कूद इन पर भारी पड़ती है. वे बहुत अस्थिर दृष्टिकोण के राजनेता हैं. पंजाबी सिख हैं, यादव से विवाहित हैं. लिहाजा सामाजिक नजरिए से भी कोई लाभ नहीं.