सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
त्याग और बलिदान – ये दो शब्द ऐसे हैं जिन्हें मैं अत्यन्त पवित्र और प्रेरणादायी पाता हूँ। इन शब्दों का इस्तेमाल हम प्रायः युग्म के रूप में करते हैं। उदाहरणार्थ, सरदार भगतसिंह त्याग और बलिदान की मूर्ति थे। इस वाक्य से मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले लोग बिदक सकते हैं। बैलों को भड़काने वाले रंग का कपड़ा नहीं दिखाना चाहिए। बहरहाल अपने जीवन में मुझे आज तक कोई ऐसा नहीं मिला जो सरदार भगतसिंह के त्याग और बलिदान से प्रेरित और अभिभूत न हो। युवा पीढ़ी को जिन थोड़े-से लोगों ने बीते आठ-नौ दशकों में सबसे ज़्यादा प्रभावित और अनुप्राणित किया है, उनमें वह सर्वोपरि हैं। मैं भी उन्हें अकम्पित भाव से एक महानायक मानता हूँ।
इस सम्बन्ध में मैं तक़रीबन ढाई दशक पीछे लौटना चाहता हूँ। देश ने वर्ष 1997 में स्वतन्त्रता की स्वर्ण जयन्ती मनायी थी। उस वर्ष अप्रैल में मैं जनपद शाहजहाँपुर में एडीएम के पद पर नया-नया तैनात हुआ था। जीवेश नन्दन जो वहाँ के जिलाधिकारी थे, एक संवेदनशील और कर्मठ व्यक्ति थे। वह चाहते थे कि स्वर्ण जयंती वर्ष में जनपद में ऐसा कुछ किया जाये जिसे लोग सालों तक याद करें। राजेश कुमार जिनकी पहचान एक नाट्यकर्मी के रूप में है, उस समय वहाँ बिजली विभाग में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत थे। सुधीर विद्यार्थी के साथ ‘संदर्श’ पत्रिका से संपादक के रूप में जुड़े अमितेश ‘अमित’ ने उनसे मेरा परिचय कराया था। राजेश जी की लेखन-क्षमता, रंगमंच के लिए उनके समर्पण और समझौतों के धरातल से उठे उनके सामाजिक सरोकारों ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। मैंने उनसे अनुरोध किया कि यदि सम्भव हो तो वह सरदार भगतसिंह को लेकर एक नाटक लिखें जिसका मंचन हम स्थानीय गाँधी सभागार में कर सकते हैं। मैं अवगत था कि यह एक कठिन, श्रमसाध्य और बेहद धैर्य वाला कार्य है जिसके लिए पर्याप्त समय आदि की ज़रूरत है, लेकिन राजेश की रचनात्मकता और उनके नाट्य-प्रेम ने इस चुनौती को तुरन्त स्वीकार कर लिया। परिणामतः लगभग दस दिन में उन्होंने ‘अन्तिम युद्ध’ नाम से एक नाटक लिख डाला। इसके बाद एक स्थानीय कॉलेज के परिसर में सायं उनके निर्देशन में इस नाटक का धुआँधार रिहर्सल शुरू हुआ। धीरे-धीरे इस नाटक से मेरा इतना भावनात्मक जुड़ाव हो गया कि लगभग दो-तीन बार मैंने रिहर्सल स्वयं जाकर देखा। जैसे अरगनी पर टँगे हुए कपड़े जब पूरी तरह से सूख जाते हैं तो गृहिणी सन्तुष्ट होकर उन्हें वहाँ से उतारकर किसी भरोसेमन्द जगह पर रख देती है, वैसे ही जब राजेश जी को नाटक की तैयारी से सन्तुष्टि हो गयी तो उन्होंने 15 अगस्त,1997 को गाँधी सभागार में उसका मंचन किया। लगभग दो घंटे तक दर्शक मंत्रमुग्ध रहे।
नाटक की सफलता और लोकप्रियता की प्रत्याशा में अमितेश ‘अमित’ ने सुझाव दिया था कि यदि सम्भव हो तो सरदार भगतसिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह जो इस समय सहारनपुर में हैं, को मुख्य अतिथि के रूप में शाहजहाँपुर आमंत्रित किया जाये और उनके सामने किसी सार्वजनिक स्थान पर इस नाटक का दूसरा मंचन किया जाये। अमितेश का यह भी सुझाव था कि सरदार निर्मल सिंह जो तहसील पुवायाँ के बंडा क्षेत्र के निवासी हैं, वहाँ चल रहे सरदार भगत सिंह इंटर कॉलेज के सर्वेसर्वा हैं जिनसे कहा जा सकता है कि वह सरदार कुलतार सिंह के जनपद आगमन पर उनसे कॉलेज के परिसर में शहीद-ए-आज़म की प्रतिमा का अनावरण करायें। तहसील पुवायाँ में पंजाब से आये सरदार बहुत पहले वहाँ बड़ी संख्या में बस गये थे जिन्होंने स्थानीय लोगों को खेती करने के वैज्ञानिक और उन्नत तरीक़ों से अवगत कराया था और उनमें एक नयी चेतना उत्पन्न की थी। सरदार निर्मल सिंह इस बात से गौरवान्वित हुए कि सरदार भगतसिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह का उनके कॉलेज में स्वर्ण जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में आगमन होगा। समय की कमी के बावजूद उन्होंने इधर-उधर भागदौड़ करके और काफ़ी पैसा ख़र्च करके सरदार भगतसिंह की एक भव्य प्रतिमा तैयार करायी जिसे अनावरण हेतु उसे कॉलेज में एक उचित स्थान पर स्थापित कराया। इसके बाद नाटक के द्वितीय मंचन की बहुप्रतीक्षित तिथि आयी। हम उत्साह और एक अजीब-से जज़्बे से छलक रहे थे। लोक निर्माण विभाग के स्थानीय निरीक्षण भवन में जब सरदार कुलतार सिंह पधारे तो हमने उनके स्वागत में पलकें बिछा दीं। अम्मा जो सरदार भगतसिंह को ख़ास तौर पर मनोज कुमार की फ़िल्म ‘शहीद’ से जानती थीं, भी मेरे और पापा के साथ उनसे मिलने निरीक्षण भवन पहुँची। सरदार कुलतार सिंह जो लगभग सवा छह फ़ीट लम्बे थे, के कंधे पर जब सवा पाँच फ़ीट की अम्मा ने भावुकता से हाथ रखा तो उनकी आँखों से आँसू बह निकले। पापा भी इस मौक़े पर अन्दर तक भीग गये थे।
बंडा, जो तहसील पुवायाँ का एक समृद्ध इलाक़ा है और जहाँ के राजपाल यादव नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकलने के बाद फ़िल्म अभिनेता के रूप में बॉलीवुड में अपना झंडा गाड़े हुए हैं, में चौराहे पर बने मंच पर अपरान्ह में ‘अन्तिम युद्ध’ का मंचन हुआ। मंचन के दौरान सरदार कुलतार सिंह जो मेरे पास बैठे थे, कई बार हिलग-हिलगकर रोये। नाटक के बाद पाँच-सात हज़ार की भीड़ के सामने उन्होंने बताया कि उन्होंने सरदार भगतसिंह को अन्तिम बार लाहौर जेल में तब देखा था जब वह मुश्किल से सात साल के थे। अपने बड़े भाई, जिन्होंने बीस साल की आयु में अठारह साल के क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त के साथ आठ अप्रैल, 1929 को दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली में बम फेंककर और ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का ऐतिहासिक नारा लगाकर ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ हुंकार भरी थी और लंदन तक गूँजने वाला वाक्य “बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है” बोलकर भारत माता का सच्चा और निर्भीक सपूत होने का सबूत दिया था, के बारे में बात करते समय उनका गला लगातार भर्राया रहा। मैंने भी अपने जीवन में हज़ारों की भीड़ को एक साथ सिसकते हुए कभी नहीं देखा।
राजेश कुमार का यह प्रयोग बेहद साहसिक था। अपने नाटक को ऑडिटोरियम से बाहर ले जाकर धूल और भीषण गर्मी वाली खुली जगह पर हज़ारों की भीड़ के सामने उसका मंचन करना एक जोखिम-भरा काम था। यह अच्छा था कि मंच पर लगे माइक पॉवरफुल और अच्छी क्वालिटी के थे जिसकी वजह से पात्रों द्वारा बोले जा रहे संवाद जनता तक पूरे प्रभाव और भावना की गहराई के साथ पहुँच रहे थे। चौराहे के इर्द-गिर्द घरों की छतों पर और छज्जों में स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े लदे हुए थे। चारों तरफ़ से आने वाली सड़कें भी दर्शकों से पटी पड़ी थीं। अधिकांश दर्शक सरदार या उनके परिवारों से थे जो मंच पर या तो एक बड़ी शहादत का झकझोरने वाला नाटक देख रहे थे या अपने दिलों पर राज करने वाले और 23 मार्च, 1931 को केवल 23 साल की उम्र में अपने दो अभिन्न साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ फाँसी के फंदे पर झूल जाने वाले शहीद-ए-आज़म के सगे भाई को साक्षात् देख रहे थे। उनकी भावभंगिमाएँ जोश, उत्कंठा, गर्व, देशप्रेम और विस्मय की मिली-जुली अनुभूतियाँ दर्शा रही थीं। उन्होंने अपनी स्तब्धता और सामूहिक प्रतिक्रिया से इस बात को ग़लत साबित कर दिया था कि जहाँ भीड़ होगी, वहाँ चिल्ल-पों और शोर-शराबे का होना लाज़िमी है। ऐसा लगता था कि वे केवल देखने, सुनने और महसूस करने आये हैं और बोलना उन्होंने किसी भावना के तहत स्थगित कर दिया है। सरदार भगत सिंह इंटर कॉलेज के छात्र-छात्रा तो पूरे समय स्वयं को लगभग वीआईपी समझते रहे। पत्रकारों ने जब उनमें से कुछ बच्चों से बात की तो उन्होंने बताया कि उन्हें यह विश्वास ही नहीं हो पा रहा है कि उनसे मिलने के लिए शहीद-ए-आज़म के भाई उनके बीच पधारे हैं।
यहाँ उन कलाकारों के बारे में बात किया जाना भी ज़रूरी है जिन्होंने बहुत कम समय में ख़ुद को इतने महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण मंचन के लिए तैयार किया और राजेश कुमार के निर्देशन में स्वयं को बड़ी लगन और तन्मयता से नाटक के पात्रों में ढाला। भूख, प्यास, थकन, तनाव, चुहचुहाते पसीने और अपनी तमाम तरह की व्यस्तताओं को दरकिनार करके वे रिहर्सल में समय से उपस्थित हो जाते थे और निर्देशक की हर बात को बेहद चाव, उत्सुकता और बारीक़ी से ग्रहण करते थे। साँझ के घिरते अँधेरे में भी उनकी आँखें यूँ चमकती थीं जैसे उन्हें अपनी ज़िंदगी की एक बड़ी ज़िम्मेदारी मिली है। रगों में बेचैनी और फ़ख़्र पैदा करने वाला एक बड़ा कथानक भी उनके चेहरों पर आ बैठा था जिसे ना-नुकुर और अनिच्छा जैसी छोटी चीज़ें स्वीकार नहीं थीं। भाषण के दौरान सरदार कुलतार सिंह का सार्वजनिक रूप से यह कहना कि सभी पात्रों ने बड़ा जानदार अभिनय किया है, उनका सबसे बड़ा पुरस्कार था।
मुख्यतम पात्र सरदार भगतसिंह की भूमिका को शमीम आज़ाद ने बख़ूबी जिया। उनकी संवाद अदायगी क़ाबिले-तारीफ़ थी। अभिनय में समयानुरूप भावनाओं का उछाल, भंगिमाओं का प्रक्षेप और आवाज़ का आरोह-अवरोह था। शहीदे आज़म की आज़ादी की तड़प उनकी आँखों में गहराई से प्रतिबिम्बत हुई। उनके अन्दर एक बड़ा कलाकार छिपा है। सुखदेव के रूप में कृष्ण कुमार श्रीवास्तव और राजगुरु की भूमिका में मोहज्जम बेग भी बेहद असरदार रहे। फाँसी का दृश्य और उससे जुड़ा घटनाक्रम राजेश कुमार की कल्पना-शक्ति और निर्देशन-क्षमता का चरम था जिसे देखकर अविरल सिसकारियाँ फूट पड़ी थीं।
इन सारी गतिविधियों और स्वर्ण जयन्ती वर्ष से जुड़े समस्त क्रिया-कलापों में जनपद के तीन स्वतंत्रता सेनानियों सर्वश्री शिव कुमार मिश्र, बसंतलाल खन्ना और श्याम सिंह ‘बाग़ी’ की सक्रियता देखते ही बनती थी। आज न तो सरदार कुलतार सिंह हमारे बीच हैं और न ही ये तीनों विभूतियाँ, जिनकी उपस्थिति हर कार्यक्रम में चार चाँद लगा देती थी, इस समय हमारे बीच मौजूद हैं।
यहाँ यह उल्लेख भी अप्रासंगिक न होगा कि प्रसिद्ध क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान और रोशन सिंह जिन्हें काकोरी कांड आदि में संलिप्तता के कारण 19 दिसंबर, 1927 को क्रमश: गोरखपुर, फैज़ाबाद और इलाहाबाद में फाँसी दी गयी थी, शाहजहाँपुर के ही थे। इस कारण इस जनपद के लोग क्रांतिकारियों को बड़े सम्मान और कभी-कभी बड़ी भावुकता से याद करते हैं।