शहाबुद्दीन मामले में बिहार का पुलिस प्रशासन इतना चौकन्ना शायद ही कभी रहा हो. इस बार वे न सिर्फ चौकन्ने थे, बल्कि उनका हर कदम गोपनीयता से भरा था. चौकन्नापन और गोपनीयता के साथ-साथ जो सबसे खास बात थी, वह थी पुलिस अधिकारियों की शहाबुद्दीन के प्रति जवाबदेही. बिहार पुलिस शहाबुद्दीन को दिल्ली की तिहाड़ जेल में शिफ्ट करने के लिए सीवान जेल से निकाल कर पटना के राजेंद्रनगर टर्मिनल पर ट्रेन में बैठा चुकी थी.
लेकिन यह पूरी प्रक्रिया महज एक ड्यूटी नहीं थी, यह तो मिशन था. इस मिशन की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के तहत हुई थी, जिसमें उसने बिहार सरकार से कहा था कि वह एक सप्ताह के अंदर शहाबुद्दीन को सीवान जेल से, दिल्ली की तिहाड़ जेल में शिफ्ट करे. साथ ही यह भी सुनिश्चित करे कि शहाबुद्दीन के ऊपर चलने वाली तमाम अदालती कार्रवाई तिहाड़ से ही वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए चलाई जाए. इसलिए बिहार पुलिस ने 19 फरवरी को अदालती हुक्म की तामील करते हुए शहाबुद्दीन को ट्रेन में बैठा दिया. अगले दिन यानी 20 फरवरी को औपचारिक रूप से शहाबुद्दीन तिहाड़ के कैदी बन गए.
जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, शहाबुद्दीन को सीवान से दिल्ली शिफ्ट करने की प्रक्रिया बिहार पुलिस की ड्यूटी से ज्यादा एक मिशन का हिस्सा थी. एक गोपनीय मिशन, एक जिम्मेदारी, संवेदनशीलता और सतर्कता से भरा मिशन. आखिर यह मिशन क्यों था? इसमें सतर्कता क्या थी और इस मिशन को पूरा करने में पुलिस ने किस संवेदनशील जिम्मेदारी को निभाया. ये तमाम बातें काफी दिलचस्पी से भरी हैं.
सबसे पहले संवेदनशीलता और जिम्मेदारी की बात करते हैं. शहाबुद्दीन कड़ी सुरक्षा बंदोबस्त के बीच सुबह के धुंधलके अंधेरे में पटना पहुंच चुके थे. उनके पास तब ट्रेन पकड़ने के लिए 14 घंटे का वक्त था. ऐसे में पुलिस अधिकारियों के सामने दो सवाल थे. पहला, ट्रेन के प्रस्थान समय से 14 घंटे पहले ही शहाबुद्दीन को पटना क्यों लाया गया. दूसरा, अगर उन्हें पटना लाया ही गया, तो चौदह घंटे उन्हें रखा कहां जाए. 14 घंटे पहले पटना लाने के पीछे ये तर्क था कि शहाबुद्दीन को अगर दिन में सीवान से पटना लाया जाता, तो उनके समर्थकों की भीड़ को काबू में करना एक गंभीर चुनौती बन जाती. अब पुलिस अधिकारियों के सामने यह चुनौती थी कि शहाबुद्दीन को 12-14 घंटे कहां ठहराया जाए. पुलिस चाहती तो उन्हें किसी अज्ञात जगह पर रख सकती थी. लेकिन पुलिस ने ऐसा नहीं किया.
उसने शहाबुद्दीन को सीवान से पटना के बेऊर जेल में शिफ्ट किया. माना जा रहा है कि मीडिया और विपक्षी दलों की आलोचना से बचने के लिए ऐसा किया गया. भाजपा जैसे विरोधी दल शहाबुद्दीन मामले में सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ते. पुलिस अगर शहाबुद्दीन को अस्थाई तौर पर किसी अज्ञात जगह पर ठहराती, तो विरोधी दल और मीडिया इसकी खोज में लग जाते और सवाल करते कि हत्या के इस आरोपी की मेहमाननवाजी क्यों की जा रही है. इसलिए पुलिस इन आलोचनाओं से बचने के लिए सीधे उन्हें बेऊर जेल के गेट पर ले गई.
हालांकि शहाबुद्दीन को बेऊर में अस्थाई तौर पर शिफ्ट करने का न कोई औपचारिक आदेश था और ना ही इस तरह का कोई प्रोविजन था. लिहाजा वहां इसकी कोई तैयारी भी नहीं थी. बेऊर गेट पर पुलिस वैन शहाबुद्दीन को ले कर ढाई घंटे तक खड़ी रही. सूत्र बताते हैं कि आला अधिकारियों ने इस संबंध में आनन-फानन में टॉप लेवल के राजनीतिक नेतृत्व से सम्पर्क साधा था. तब उन्हें निर्देश दिया गया कि शहाबुद्दीन के अस्थाई ठहराव के लिए उन्हें बेऊर ले जाना ही उचित रहेगा, वरना विपक्षी दल और मीडिया सरकार पर सवाल उठाने लगेंगे.
उतनी सुबह बेऊर के जेल अधीक्षक भी नींद में थे, उन्हें जगाया गया. वे अपने आवास से आए, फिर औपचारिकता पूरी की गई और तब शहाबुद्दीन को जेल में एंट्री मिली. शहाबुद्दीन को बेऊर शिफ्ट करने की कोई पूर्वनिर्धारित योजना नहीं थी. इसलिए इसकी भनक जेल अधिकारियों को भी नहीं लगी. ध्यान रहे कि शहाबुद्दीन बिहार के उन कुछ नेताओं में से हैं, जो मीडिया के लिए टीआरपी और विरोधियों के लिए गंभीर राजनीतिक मुद्दा बन जाते हैं. इसीलिए सरकार की तरफ से शहाबुद्दीन मामले में सख्त निर्देश दिए गए थे. पुलिस ने इन निर्देशों का पालन किया. नतीजा सामने था. इस पर न तो मीडिया ने कोई सवाल उठाया और न ही विपक्ष को हमला करने का कोई मौका मिला.
शहाबुद्दीन को तिहाड़ शिफ्ट करने के मामले में पुलिस प्रशासन ने गोपनीयता का भी बहुत ध्यान रखा. आलम यह था कि आखिरी लम्हे तक अधिकारियों ने यह राज छुपाए रखा कि शहाबुद्दीन को कैसे, किस माध्यम से और कहां से दिल्ली भेजा जाना है. शहाबुद्दीन की सुरक्षा को ले कर पुलिस कोई रिस्क नहीं लेना चाह रही थी. अधिकारियों द्वारा इस अभियान में गोपनीयता बरतने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने जिस सम्पूर्ण क्रांति एक्सप्रेस से शहाबुद्दीन को दिल्ली भेजा उसका टिकट भी शहाबुद्दीन के नाम पर बुक नहीं कराया गया था. खबरों के अनुसार, पुलिस ने 48 या 50 बर्थ बुक कराया था.
लेकिन बुकिंग लिस्ट में कहीं भी शहाबुद्दीन का नाम नहीं था. इसलिए जब ट्रेन में टीटीई पहुंचा तो शहाबुद्दीन के स्लीपर क्लास में बैठने के एवज में अतिरिक्त शुल्क दिया गया. पुलिस की यह सतर्कता लाजिमी भी थी, क्योंकि इससे पहले सितम्बर 2016 में जब शहाबुद्दीन को बेल मिली थी और जब वे भागलपुर से सीवान आए थे, तब भागलपुर से ले कर सीवान तक पूरे रास्ते शहाबुद्दीन समर्थकों और मीडिया को संभाल पाना पुलिस के लिए मुश्किल हो गया था.
राजनीतिक खामोशी लेकिन सोशल मीडिया में हलचल
फरवरी के दूसरे सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट ने चंदा बाबू की उस याचिका पर सुनवाई करते हुए शहाबुद्दीन को तिहाड़ जेल में शिफ्ट करने का आदेश दिया था, जिसमें गुजारिश की गई थी कि सीवान में रहते हुए शहाबुद्दीन गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं. चंदा बाबू के तीन बेटों की हत्या का इल्ज़ाम शहाबुद्दीन पर है और उसकी सुनवाई सीवान की अदालत में चल रही है. अदालत के आदेश के बाद बिहार की राजनीति में सत्ता पक्ष की तरफ से, उम्मीदों के अनुरूप कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. विपक्ष ने भी औपचारिक बयान देते हुए महज अदालती आदेश का स्वागत किया. लेकिन सोशल मीडिया में हलचल जरूर मच गई.
फेसबुक पर शहाबुद्दीन समर्थकों और विरोधियों में जबर्दस्त भिडंत हो गई. शहाबुद्दीन समर्थक, इस पूरे मामले में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को आड़े हाथों लेने लगे. उनका कहना था कि मुसलमानों के वोट से सत्ता में आई इस सरकार ने ही सितम्बर में शहाबुद्दीन को मिली जमानत को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज करके उन्हें दोबारा जेल भेजवा दिया. कई शहाबुद्दीन समर्थकों ने तो इसके लिए लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पर आपत्तिजनक टिप्पणी भी पोस्ट की. इन टिप्पणियों के बाद लालू समर्थकों ने भी आपत्तिजनक टिप्पणिया फेसबुक पर पोस्ट की.
पिछले छह-सात महीनों के घटनाक्रम पर नजर दौड़ाएं, तो शहाबुद्दीन जेल से जमानत पर बाहर आए, राज्य सरकार और चंदा बाबू ने उनकी बेल को चैलेंज किया, फिर सुप्रीम कोर्ट ने जमानत रद्द कर दिया और अब आखिर में उन्हें दिल्ली की जेल में शिफ्ट कर दिया गया. ये तमाम मामले मीडिया में जबर्दस्त हलचल की वजह बने रहे हैं. हालांकि अब तिहाड़ में रहते हुए भी आरोपों की सुनवाई के कारण शहाबुद्दीन समय-समय पर चर्चा का विषय बनते रहेंगे.