लॉर्ड पीटर मेंडलसन ने लेबर पार्टी के सदस्यों को पार्टी से संबंधित प्रतिकूल ख़बरों पर प्रतिक्रिया देने के लिए प्रशिक्षित किया था. इसके लिए उन्होंने जो तरीका अपनाया, उसे एक्सकैलिबर नाम दिया गया था. एक्सकैलिबर इंग्लैंड के राजा किंग ऑर्थर की तलवार का नाम था. इसके चलते एक नई संस्कृति की शुरुआत हुई, जिसने पार्टी को पुनर्निर्वाचित और मीडिया के क़रीब होने का मौक़ा दिया. जिस तरह हर सप्ताह भाजपा कार्यकर्ताओं या बाहरी लोगों द्वारा एक छोटी-सी घटना को उलझा कर और बड़ा करके पार्टी की किरकिरी कराई जाती है, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि भाजपा को भी एक्सकैलिबर जैसे किसी उपाय की आवश्यकता है.
हर मामले पर प्रधानमंत्री खुद ट्वीट करें, ऐसा हो नहीं सकता, लेकिन जब तक कोई प्रभावशाली अधिकारी अथवा शख्स किसी मामले को अपने हाथ में लेता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है. चूंकि आरएसएस सेना जैसे अनुशासन का दावा करता रहा है, इसलिए भाजपा को एक अनुशासित पार्टी कहा जाता है, लेकिन उसके विभिन्न घटक जैसे सांसद-विधायक, नेता-कार्यकर्ता, समर्थक एवं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आदि मिलकर पार्टी की परेशानी बढ़ा रहे हैं. ऐसा लग रहा है कि पार्टी पर किसी का नियंत्रण नहीं है. अगर ऐसा नहीं है, तो इसका मतलब है कि जान-बूझ कर यह अव्यवस्था फैलाई जा रही है.
जेएनयू प्रकरण का जो भी नतीजा निकले, भाजपा को उसका लाभ नहीं मिलेगा. एक पल के लिए यह ज़रूर महसूस हुआ कि जेएनयू को बेनकाब करने का पार्टी का पुराना सपना पूरा हो गया. जेएनयू भाजपा के सबसे कम पसंदीदा विश्वविद्यालयों में से है, जिसके बारे में वह सोचती है कि वहां अभारतीय और भारत विरोधी वामपंथियों की भीड़ रहती है. लेकिन, अगले ही पल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने अत्यधिक सक्रियता दिखाते हुए (जैसा कि उसने हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में किया था) जेएनयू प्रकरण को राष्ट्रद्रोह का मामला बताना शुरू कर दिया. इसके बाद दिल्ली पुलिस, जिसका मुक़ाबला की-स्टोन कॉप्स (एक हास्य फिल्म) से है, ने एक आरोपी को गिरफ्तार कर लिया, क्योंकि वह अपनी गिरफ्तारी से बचने की कोशिश नहीं कर रहा था.
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उसके बाद कैबिनेट मंत्री झंडे लहराने लगे और एक छोटे-से मामले को राष्ट्रीय संकट का रूप देने लगे. छात्र विद्रोह आम बात है और लोकतंत्र के लिए यह एक स्वस्थ परंपरा है. अमेरिका के विश्वविद्यालय परिसरों में वियतनाम युद्ध के ़िखला़फ 1965 के बाद दस वर्षों तक प्रदर्शन होते रहे, बावजूद इसके किसी पर राजद्रोह का मुक़दमा नहीं चला. विभिन्न पार्टियों के बीच गहन वाद-विवाद हुए, लेकिन किसी ने भी अदालत का सहारा नहीं लिया. 1968 के पेरिस छात्र आंदोलन ने फ्रांस में सरकार बदलने में अहम भूमिका निभाई. लंदन स्कूल र्ऑें इकोनॉमिक्स में मेरे अध्यनन के दौरान छात्रों के कई विद्रोह देखने को मिले, जिनमें से अधिकतर सरकार के विरुद्ध थे. नौजवानों-छात्रों से लोग विद्रोह की अपेक्षा रखते हैं.
अगर छात्र कश्मीर की आज़ादी और भारत की बर्बादी का नारा लगते हैं, तब भी यह वास्तविक रूप से असंभव है. कश्मीर में भाजपा की सहयोगी पार्टी पीडीपी अफज़ल गुरु से हमदर्दी रखती है और अलगाववादियों के प्रति बहुत सख्त नहीं है. दरअसल, कश्मीर एक ऐसी असंगति (एनोमली) है, जो भारत का अभिन्न अंग है और नहीं भी. अगर ऐसा न होता, तो कश्मीर के अलगाववादी भारत में पाकिस्तानी उच्चायुक्त से कैसे मुलाकात कर पाते? कश्मीर के सवाल पर लोगों के अलग-अलग और दृढ़ नज़रिये हैं. अगर ऐसा न होता, तो भाजपा इतने लंबे समय से आर्टिकल 370 की बात न करती. यूपीए ने वार्ताकारों की एक टीम कश्मीर भेजी थी. क्या वह भारत के किसी दूसरे क्षेत्र में ऐसी टीम भेज सकता था? देश के किस कोने में प्रधानमंत्री के दौरे के समय मोबाइल बंद कर दिए जाते हैं?
भाजपा के सुपर देशभक्तों के लिए यह दिखावा आसान है कि कश्मीर को लेकर नारे लगाना भी देशद्रोह है. लेकिन, सत्तारूढ़ दल खुद से असहमत होने वालों के प्रति दरियादिली दिखाए, न कि उनके मामूली उकसावे पर भी उनके खिला़फ कार्रवाई के लिए तैयार हो जाए. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गुस्से के दबाव में आने का नतीजा यह हुआ कि सरकार ने जो भी ख्याति अर्जित की थी, वह खो गई. बजट सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ जाएगा. दरअसल, यह भाजपा का एक सेल्फ-गोल था.