कश्मीर में पिछले 27 वर्षों से हिंसक हालात के दौरान नई दिल्ली की तरफ से कश्मीर के हितधारकों से बातचीत का सरकारी और गैरसरकारी सिलसिला जारी रहा है. 1990 के दौर में जब घाटी में मिलिटेंसी चरम पर थी, तो यहां कुलदीप नैयर, जस्टिस तारकंडे और तपन बोस जैस लोग सक्रिय थे. बल्कि माना जा रहा है कि इन्हीं लोगों ने पहले जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट को सशस्त्र संघर्ष त्याग कर अपनी मांगों के लिए एक राजनीतिक आंदोलन चलाने के लिए तैयार किया था. मिलिटेंसी के शुरुआती दिनों से ही गैर राजनीतिक हस्तियां नई दिल्ली से कश्मीर में अमन मिशन पर आती रही हैं. लेकिन सरकारी स्तर पर कश्मीर में वार्ताकारों को कश्मीर भेजने का सिलसिला 2001 में शुरू हुआ. उस साल भारत सरकार ने केसी पंत को एक वार्ताकार के तौर पर कश्मीर में अलगाववादियों और दूसरे संबंधित पक्षों से बातचीत करने के लिए भेजा, लेकिन केसी पंत का मिशन असफल रहा.
इसके एक वर्ष बाद भारत सरकार की पहल पर राम जेठमलानी के नेतृत्व में एक आठ सदस्यीय समिति ने कश्मीर में बातचीत का सिलसिला शुरू किया. इस पैनल में सुप्रीम कोर्ट के एक दिग्गज वकील अशोक भान, पूर्व केेन्द्रीय कानून मंत्री शांति भूषण, पूर्व विदेश सेवा अधिकारी वीके ग्रोवर और पत्रकार एमजे अकबर और दिलीप पडगांवकर जैसी हस्तियां शामिल थीं. लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला. एक वर्ष बाद यानी 2003 में केन्द्रीय सरकार ने उस समय के गृह सचिव एनएन वोहरा (जो इस समय जम्मू-कश्मीर के गवर्नर हैं) को वार्ताकार की हैसियत से कश्मीर भेजा, लेकिन वोहरा का मिशन भी असफल रहा. इस बीच कश्मीर में एएस दुल्लत और एस के लांबा जैसे लोग भी सक्रिय रहे. 2004 में नई दिल्ली में वाजपेयी सरकार ने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के एक धड़े के नेताओं के साथ सीधी बातचीत की, जिसके तहत केंद्रीय गृहमंत्री एलके आडवाणी नई दिल्ली में हुर्रियत लीडरों से मुलाकात की. इसके बाद हुर्रियत लीडर यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मिले और उनके सामने अपनी बातें रखीं.
यूपीए सरकार ने 2005 में श्रीनगर में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस आयोजित कराने के बाद पांच वर्किंग ग्रुप कायम किए. यह वर्किंग ग्रुप हामिद अंसारी के नेतृत्व में गठित किया गया था. इस ग्रुप को ‘केन्द्र और राज्य संबंध’ बेहतर बनाने की संभावनाओं का जायजा लेना और अपनी सिफारिशें पेश करने की जिम्मेवारी सौंपी गई थी. इस ग्रुप ने कश्मीर में काफी समय गुजारा और अंततः 2007 को अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को पेश की. इसके तीन साल बाद यानी 2010 में दिलीप पडगांवकर, प्रो. राधा कुमारी और एमएम अंसारी पर आधारित वार्ताकारों की टीम तैनात की गई. इस टीम ने जम्मू कश्मीर राज्य में पांच हजार से ज्यादा लोगों और प्रतिनिधिमंडलों से मुलाकातें करने और श्रीनगर से दिल्ली तक दर्जनों चक्कर लगाने और बड़े पैमाने पर तहकीकात करने के बाद केन्द्र सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसे केन्द्र सरकार ने पूर्व वार्ताकारों की रिपोर्टों की तरह पढ़े बगैर ही गृह मंत्रालय की किसी अलमारी में रख दिया.
इस सारी भूमिका का उद्देश्य ये कहना है कि कश्मीर में ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे केन्द्र सरकार अंजान है. केन्द्र सरकार यहां की हर बात से परिचित है. कश्मीर को भारत का अटूट अंग मानने वाली पार्टियां ने भी कई बार केन्द्र सरकार को कश्मीर मसले पर अपने विचारों से आगाह किया है. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 1999 में राज्य विधानसभा में दो तिहाई बहुमत से स्वायत्तता का प्रस्ताव पारित कर नई दिल्ली भेजा था और नई दिल्ली ने उसे पब्लिक डोमेन में रखने या केन्द्रीय मंत्रिमंडल में पेश करने के बजाय उसे सीधे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया. पीडीपी ने सेल्फ रूल डॉक्यूमेंट केन्द्र सरकार को पेश कर दिया है. इसी तरह
पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद गनी लोन ने भी एक दस्तावेज तैयार कर केन्द्र सरकार को पेश किया है. इसमें भी कश्मीर मसले के समाधान की संभावनाएं तलाशी गईं. पिछले 27 साल के दौरान विभिन्न हस्तियों और पार्टियों ने भी भारत सरकार को कश्मीर मसले पर कश्मीरियों की सोच से अवगत कराया है. लेकिन सच यह है कि केन्द्र सरकार ने कभी भी कश्मीर मसले की वास्तविक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर हल करने की कोशिश नहीं की है, बल्कि अब तक इस मसले को हल करने या बातचीत करने के नाम पर केवल समय बर्बाद किया गया.
इस पृष्ठभूमि में मोदी सरकार द्वारा इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को कश्मीर में बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए भेजना कई सवालों को जन्म देता है. सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या दिनेश्वर शर्मा वो काम कर पाएंगे, जो पिछले वार्ताकार करने में असफल रहे हैं. इसे दिनेश्वर शर्मा की बदकिस्मती कहें या उन पर स्थितियों की विडंबना कि वे शुरू से ही कश्मीर में अपनी विश्वसनीयता खोते नजर आए. उनकी नियुक्ति की घोषणा करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि वो एक वार्ताकार हैं, लेकिन सिर्फ दो दिन बाद प्रधानमंत्री ऑफिस में तैनात राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह, जिनके पास कश्मीर मामला का विशेष चार्ज है, ने स्पष्ट करते हुए कहा कि दिनेश्वर शर्मा केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि की हैसियत से कश्मीर जाएंगे ना कि वार्ताकार की हैसियत से. जितेन्द्र ने स्पष्ट किया कि मीडिया ने उन्हें एक वार्ताकार के तौर पर पेश किया है. राजनाथ सिंह ने कहा कि दिनेश्वर सिंह को ये अधिकार होगा कि वे अलगाववादियों समेत जिससे चाहे बात कर सकेंगे, लेकिन जितेन्द्र सिंह ने राजनाथ सिंह के इस बयान के कुछ ही घंटे बाद अपने बयान में कहा कि हुर्रियत से बातचीत करने का सवाल ही पैदा नहीं होता. इतना ही नहीं सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने दिनेश्वर शर्मा के वार्ताकार या केन्द्र का प्रतिनिधि नियुक्त हो जाने के कुछ ही दिन बाद घोषणा की कि कश्मीर में फौजी ऑपरेशन जारी रहेगा और बातचीत की प्रक्रिया का इस पर कोई असर नहीं पड़ेगा. उल्लेखनीय है कि कश्मीर में सेना ने ऑपरेशन ऑल आउट शुरू कर रखा है, जिसके तहत इस वर्ष के प्रारंभिक 10 महीने यानी जनवरी से अक्टूबर तक एक दर्जन मिलिटेंट कमांडरों समेत 169 मिलिटेंट्स को विभिन्न झड़पों के दौरान मार दिया गया है.
समीक्षकों ने भी दिनेश्वर शर्मा को बातचीत के लिए कश्मीर भेजने के मोदी सरकार के कदम की यह कहकर आलोचना की कि आईबी जैसी एजेंसी के एक पूर्व अध्यक्ष को यह काम सौंप कर केन्द्र सरकार ने खुद ही मिशन की अहमियत घटा दी है. उनका कहना है कि अगर केन्द्र वाकई में कश्मीर में एक उपयोगी वार्ता प्रक्रिया शुरू करने में यकीन रखती तो आईबी के एक पूर्व अध्यक्ष की जगह यह काम यशवंत सिन्हा जैसे किसी राजनेता को सौंपती. डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने दिनेश्वर शर्मा की नियुक्ति पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि इससे बेहतर था कि केन्द्र सरकार पूर्व वार्ताकारों की रिपोर्टों को ही पढ़ लेती और उनकी सिफारिशों पर ही अमल करती. बहरहाल, दिनेश्वर शर्मा नवंबर से कश्मीर में अपने मिशन की शुरुआत कर रहे हैं. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, वे प्रारंभिक दौरे के दौरान यहां छह दिन तक रुकेंगे और इस दौरान राज्य के गवर्नर, मुख्यमंत्री और सरकार के दीगर अधिकारियों के अलावा नौजवानों और विद्यार्थियों से मिलने की कोशिश करेंगे. शायद कश्मीरी अलगाववादियों की तरफ से दिनेश्वर शर्मा के साथ किसी तरह की बातचीत न करने की घोषणा ने उनके मिशन को सबसे बड़ा धक्का पहुंचाया था. सैयद अली गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और यासीन मलिक पर आधारित संयुक्त प्रतिरोधी नेतृत्व ने इस संदर्भ में अपने संयुक्त बयान में कहा कि ये बातचीत बेनतीजा साबित होगी. ये तय है कि अलगाववादियों की तरफ से दिनेश्वर शर्मा के मिशन को कोई खास अहमियत नहीं दी जाएगी. उल्लेखनीय है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने फिलहाल अलगाववादियों के प्रति सख्त रवैया अपना रखा है.
एनआईए ने सैयद अली गिलानी के दामाद समेत आधा दर्जन लीडरों को हिरासत में ले रखा है, जबकि गिलानी के दो बेटों समेत दर्जनों लोगों से पूछताछ की जा रही है. एनआईए का आरोप है कि आतंकवाद के लिए कश्मीर में फंडिंग की जाती रही है. चार महीने पहले एनआईए ने इस संदर्भ में केस दर्ज किया है. फिलहाल एनआईए की जांच जारी है. दूसरी तरफ राज्य सरकार ने भी अलगाववादियों पर पाबंदी लगा रखी है. गिलानी लगातार अपने घर में नजरबंद हैं. मीरवाईज को आए दिन घर में नजरबंद रखा जाता है, जबकि यासीन मलिक को भी आए दिन श्रीनगर सेंट्रल जेल भेजा जाता है. दूसरी तरफ सेना का ऑपरेशन भी जारी है. मानव अधिकार हनन का सिलसिला भी नहीं रुका है. ऐसे हालात में जाहिर है कि अलगाववादी किसी भी तरह केन्द्र के नए वार्ताकार के साथ बातचीत नहीं करेंगे और इसकी उन्होंने आधिकारिक घोषणा भी कर रखी है. इस स्थिति में सवाल पैदा होता है कि दिनेश्वर शर्मा को मेनस्ट्रीम पार्टियों और उनके लीडरों से ही बातचीत करनी पड़ेगी, जो खुद ही कश्मीर को भारत का अटूट अंग स्वीकार कर रही हैं. इसके अलावा शायद दिनेश्वर शर्मा कुछ व्यापारी संगठनों, स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिनिधियों और हाऊस बोट और होटल मालिकों के प्रतिनिधियों से बातचीत करेंगे, लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि अलगाववादियों से बातचीत न होने की सूरत में उनके मिशन की क्या हैसियत होगी? बहरहाल, ऊंट कौन सी करवट बैठेगा ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा. प