बिहार में विधानसभा चुनाव में अगड़ी जाति का वोट किसे मिलेगा, इस पर सबकी नजर है. किस गठबंधन को कितनी सीटें मिलेंगी, इसका आकलन इस बात पर टिका है कि ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ किसे वोट देंगे. दरअसल इस बार के चुनाव में सत्ता की चाबी अगड़ी जाति नहीं, पिछड़ी जाति के पास है. पिछड़ी जातियां संख्या में पहले से ही ज़्यादा हैं, लेकिन चुनावों में उनकी मौजूदगी कम थी. बिहार की चुनावी राजनीति में बदलाव हो रहा है. इस चुनाव में जातीय समीकरण का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है, जिसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम के संकेत मिल रहे हैं.
जब नवंबर 2005 में चुनाव हुए तो एनडीए को 144 सीटें मिलीं और वह सरकार बनाने में कामयाब हुआ. जब सरकार बनी तो नीतीश कुमार ने पिछड़ी जातियों के साथ-साथ ऊंची जातियों के लोगों को भी सरकार में हिस्सेदारी दी. विधानसभा के अंदर पावर का एक नया समीकरण उभरा. 2000 चुनाव के बाद से सभी जातियों की तालिका बदली, लेकिन स़िर्फ मुसलमान अकेले रह गए, जिनकी सीटें कम हुईं.
दूसरे किसी भी राज्य से बिहार की राजनीति में जाति का महत्व ज़्यादा है. बिहार ग़रीब है, पिछड़ा है, यहां बेरोज़गारी है, जीविका के लिए सबसे ज़्यादा बिहार के लोग दूसरे राज्यों में जाते हैं. चुनावी राजनीति में बाहुबलियों और अपराधियों का बोलबाला है. बिहार के चुनाव पर जब भी बात होती है तो इन्हीं मुद्दों पर ज़्यादातर विश्लेषकों का ध्यान जाता है. हर बार की तरह इस बार भी चुनाव में जाति का अहम रोल रहा है. पिछड़ी जातियों के सशक्तिकरण के नज़रिए से बिहार देश का सबसे प्रगतिशील राज्य है. बिहार में ऊंची जाति के सांसदों की संख्या 1952 में 56.4 फीसदी थी, जो 2004 में घटकर 27.5 फीसदी हो गई, वहीं पिछड़ी जाति के सांसदों की संख्या 1952 में 5.5 फीसदी थी, जो 2004 में बढ़कर 37.5 फीसदी हो गई. बिहार देश का अकेला राज्य है, जहां 15 साल से ज़्यादा पिछड़ी जाति का मुख्यमंत्री रहा है. बिहार की राजनीति में पिछड़ी जातियों का सशक्तिकरण हुआ है. पिछड़ी जातियों का एक उच्च वर्ग है, जो राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से का़फी मज़बूत है. लालू यादव ने अपने शासनकाल में जातीय शोषण का खात्मा करने के बजाय उसे सत्ता में बने रहने का एक औजार बनाया. लालू यादव ने सामाजिक न्याय का मतलब ही बदल दिया. यह कहना ग़लत नहीं है कि लालू यादव ने जातीय शोषण का औजारीकरण कर दिया. पंद्रह साल के शासनकाल में सामाजिक विकास सरकार के दायरे से बाहर ही रहा. सामाजिक न्याय का अर्थ शोषण को खत्म करने की जगह सवर्णों को सत्ता से बाहर रखना हो गया. पिछड़ी जातियों के आर्थिक और सामाजिक विकास की दिशा में लालू यादव ने कोई ध्यान नहीं दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि पिछड़ी जातियों, दलितों और मुसलमानों, जो राष्ट्रीय जनता दल के समर्थक थे, ने लालू यादव को छोड़ दिया. यही वजह है कि 2005 के चुनाव में सेकुलर डेमोक्रेटिक फ्रंट हार गया. इस फ्रंट में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, एनसीपी और सीपीएम जैसी पार्टियां थीं. लालू यादव की स्थिति इसलिए कमज़ोर हुई, क्योंकि पार्टी में पिछड़ी जाति के विधायकों की संख्या घट गई.
1995 की जीत के बाद बाद लालू यादव ने सामाजिक न्याय का नारा दिया और वह पिछड़ी जातियों, दलितों और महिलाओं के समर्थन से चुनाव जीतने में कामयाब हुए, लेकिन किसानों की समस्याओं पर उनकी सरकार ने ध्यान नहीं दिया. भोजपुर, जहानाबाद और पलामू जैसे क्षेत्रों में किसान आंदोलन करने लगे, जिसे बलपूर्वक दबाया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि 2000 के चुनाव में लालू यादव की पार्टी की 49 सीटें घट गईं. राष्ट्रीय जनता दल 124 सीटों पर सिमट गया. इस चुनाव में पिछड़ी जाति के विधायकों की संख्या में कमी आई. इसी तरह अनुसूचित जाति के विधायकों की संख्या में भी कमी आई. भारतीय जनता पार्टी की वजह से ऊंची जाति के विधायकों की संख्या बढ़ी, लेकिन भाजपा ने पिछड़ी जातियों, खासकर यादवों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की, जिसका उसे फायदा मिला. भारतीय जनता पार्टी के विधायकों में 10.4 फीसदी यादव हैं, जो राजपूतों के बाद सबसे बड़ा समूह था. नवंबर 2000 में झारखंड को अलग कर दिया गया. बिहार की राजनीति से अनुसूचित जनजातियों का स़फाया हो गया. इससे दो बदलाव हुए. एक तो बिहार की राजनीति में पिछड़ी जातियों की पकड़ मज़बूत हो गई और दूसरा यह कि पिछड़ी और अगड़ी जाति के बीच ध्रुवीकरण और भी सा़फ हो गया. फरवरी 2005 के चुनाव में लालू यादव 74 सीटों पर सिमट गए. रामविलास पासवान को 29 सीटें मिलीं और एनडीए गठबंधन को 92 सीटें हासिल हुईं. किसी की सरकार नहीं बनी, लेकिन इस चुनाव में पिछड़ी जाति के विधायकों की संख्या घटी और ऊंची जाति के विधायकों की संख्या में 4.9 फीसदी का इज़ा़फा हुआ. इसकी मुख्य वजह लोक जनशक्ति पार्टी थी. 2005 के चुनाव में लालू यादव और रामविलास पासवान की दुश्मनी की वजह यह रही कि मुस्लिमों और दलितों के गठजोड़ से लालू यादव का मुक़ाबला करने निकले रामविलास पासवान की पार्टी के 30 फीसदी उम्मीदवार ऊंची जाति के थे. स़िर्फ 20 फीसदी उम्मीदवार मुसलमान और दलित थे. इसलिए लोजपा में ऊंची जाति के विधायक बहुमत में आ गए और एक भी मुसलमान चुनाव नहीं जीत सका. रामविलास पासवान बिहार की राजनीति में पिछड़ी जाति के महत्व का सही आकलन नहीं कर सके, इसलिए जब नवंबर में चुनाव हुआ तो उन्हें फरवरी जैसी सफलता नहीं मिली.
जब नवंबर 2005 में चुनाव हुए तो एनडीए को 144 सीटें मिलीं और वह सरकार बनाने में कामयाब हुआ. जब सरकार बनी तो नीतीश कुमार ने पिछड़ी जातियों के साथ-साथ ऊंची जातियों के लोगों को भी सरकार में हिस्सेदारी दी. विधानसभा के अंदर पावर का एक नया समीकरण उभरा. 2000 चुनाव के बाद से सभी जातियों की तालिका बदली, लेकिन स़िर्फ मुसलमान अकेले रह गए, जिनकी सीटें कम हुईं. लालू यादव की हार का नतीजा यह हुआ कि बिहार में यादव विधायकों की संख्या घट गई, लेकिन कुर्मी और कोयरी की सीटें बढ़ गईं. यही दोनों जातियां जनता दल यूनाइटेड की मुख्य समर्थक हैं. नीतीश सरकार पिछ़डी जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने वाली सरकार नहीं, बल्कि पिछड़ी जातियों को मज़बूत करने वाली सरकार रही. इसकी वजह यह भी है कि चाहे वह भारतीय जनता पार्टी हो, जनता दल यूनाइटेड हो या फिर राष्ट्रीय जनता दल, हर पार्टी में पिछड़ी जाति के विधायकों की संख्या सबसे ज़्यादा है. बिहार की राजनीति में आज यह कहा जा सकता है कि जो दल पिछड़ी जाति के उम्मीदवारों को जितने ज्यादा टिकट देगा, उसे उतनी ही ज़्यादा सीटें मिलेंगी. वही दल सरकार बनाएगा. बिहार की राजनीति का यह नया चेहरा सामने आ रहा है. इसे चुनाव में जातीय समीकरण की नई शुरुआत कहा जा सकता है. अच्छी बात यह है कि पिछड़ी जातियों में कई जातियों की हिस्सेदारी है. विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस नए समीकरण को समझते हुए अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं, लेकिन फैसला बिहार की जनता के हाथ में है.