चुनाव में अभी चार साल का वक्त है. मौजूदा वक्त मतदाता का ध्यान अपनी तऱफ आकर्षित करने का नहीं है. अगले चुनाव में मतदाता इस आधार पर मतदान करेगा कि 2018-19 में देश की हालत क्या रहती है. जितनी जल्दी सरकार यह समझ लेती है, उतना ही बेहतर रहेगा, क्योंकि टकराव से सरकार को कोई फायदा नहीं होता. विपक्ष की तो बात ही मत कीजिए. छोटे व्यापारियों और कॉरपोरेट हलकों, जो भाजपा के मुख्य मतदाता हैं, के बीच आम चर्चा है कि सरकार उनके लिए कुछ भी नहीं कर रही है. मैं नहीं मानता कि ऐसी बातें उचित हैं या निष्पक्ष हैं.

blog-morarkaअभी संसद सत्र समाप्त हुआ. सरकार अब एक वर्ष पूरा कर रही है, लेकिन इस दौरान एक बात स्पष्ट हुई कि अभी तक वह संसद में सरकारी कार्य ठीक तरीके से करा पाने के लिए एक सही रणनीति बनाने में सक्षम नहीं हो सकी है. अमेरिका सहित दुनिया भर में जहां राष्ट्र प्रमुख राष्ट्रपति होते हैं, वहां राष्ट्रपति खुद अपने या दूसरे पक्ष के सीनेटरों और कांग्रेसियों को लुभाने का काम करते हैं. इसी तरह ब्रिटेन में बिल पास कराने के लिए द्वि-दलीय चर्चा होती है. भारत में भी ऐसी परंपरा रही है. जब कांग्रेस सत्ता में होती थी और पूर्ण बहुमत होता था, तब भी वह हमेशा विपक्ष के साथ खुला संवाद करती थी. समस्या अभी शुरू होती प्रतीत होती है, जहां लगता है कि एक व्यक्ति है, जो कांग्रेस के साथ सही ढंग से संबंध स्थापित करने में सक्षम नहीं है.
श्री वेंकैया नायडू की प्रतिभा संसदीय मामलों के मंत्री होने के रूप में कम हो जाती है. भूमि अधिग्रहण अधिनियम की बात करें, तो पिछला अधिनियम भाजपा की सहमति से पारित किया गया था. सुमित्रा महाजन, जो अब लोकसभा अध्यक्ष हैं, तब स्थायी समिति की अध्यक्ष थीं. उन्होंने अद्भुत काम किया और सभी दलों के साथ आम सहमति बनाकर बिल को अंतिम रूप दिया था. अब सवाल है कि एक नए बिल की ज़रूरत क्या थी? यदि पुराने बिल में कुछ परिवर्तन की ज़रूरत थी, तो उस पर संसद में बहस होनी चाहिए या उसे स्थायी समिति को भेजना चाहिए. और, यदि सब लोग मानते थे कि नए बिल की ज़रूरत है, तो पुराने बिल में संशोधन के लिए एक नया बिल लाया जाना चाहिए और फिर उसे पास कराना चाहिए. उसकी जगह सरकार एक बिल्कुल नया बिल लेकर आ गई और उससे न केवल संसद बाधित हुई, बल्कि सरकार और विपक्ष दोनों को संसदीय काम पूरा करने की जगह अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए लोगों के पास जाना पड़ रहा है. सरकार के पहले साल में इस सबकी ज़रूरत नहीं थी.
चुनाव में अभी चार साल का वक्त है. मौजूदा वक्त मतदाता का ध्यान अपनी तऱफ आकर्षित करने का नहीं है. अगले चुनाव में मतदाता इस आधार पर मतदान करेगा कि 2018-19 में देश की हालत क्या रहती है. जितनी जल्दी सरकार यह समझ लेती है, उतना ही बेहतर रहेगा, क्योंकि टकराव से सरकार को कोई फायदा नहीं होता. विपक्ष की तो बात ही मत कीजिए. छोटे व्यापारियों और कॉरपोरेट हलकों, जो भाजपा के मुख्य मतदाता हैं, के बीच आम चर्चा है कि सरकार उनके लिए कुछ भी नहीं कर रही है. मैं नहीं मानता कि ऐसी बातें उचित हैं या निष्पक्ष हैं. वे सरकार से क्या करने की उम्मीद करते हैं? जितना संभव है, सरकार नियंत्रण को ढीला करने की कोशिश कर रही है, लेकिन नौकरशाही एक हद से आगे नहीं बढ़ने देती. शायद कुछ बेहतर किया जा सकता है. सरकार एक छोटी-सी समिति का गठन कर सकती है, जो सरकारी नियमों, विनियमों एवं प्रक्रियाओं को देखे और बताए कि इसमें क्या कटौती की जा सकती है. पिछले दो बजट ठीक ही रहे हैं. यह कहा जा सकता है कि बजट बेहतर हो सकता था, लेकिन कुछ नकारात्मक नहीं रहा. हां, एक नकारात्मक काम यह हुआ है कि मौजूदा सरकार पिछली सरकार द्वारा लगाए गए टैक्स ़खत्म नहीं कर रही है, उलटे वह एमएटी टैक्स लगाने जा रही है. मैं नहीं जानता, इस सबके लिए सरकार के पास कोई नीतिगत दृष्टिकोण है या वित्त मंत्री खुद यह सब कर रहे हैं. लेकिन तथ्य यह है कि सरकार का इरादा विदेशी निवेश लाने, कॉरपोरेट सेक्टर को बढ़ावा देने और संगठित अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने का है. पर, वह सही दिशा में काम नहीं कर रही है. फियर फैक्टर मदद नहीं करता है. वर्ष 1973 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने फेरा क़ानून पारित किया था. उससे क्या हुआ? लोगों को उसे समझने में लंबा समय लगा और प्रवर्तन निदेशालय एक भ्रष्ट संगठन बन गया, जो व्यवसायियों को धमकाता रहता था. अब फिर से वित्त मंत्री काला धन, विदेशी पैसे और 10 वर्ष के कारावास की बात कर रहे हैं. इस सब बयानबाजी से क्या होगा? चुनावों के लिए की जाने वाली इन सब बातों पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन जब बात मुद्दे की हो, तो यह सब ठीक नहीं है. इससे कोई मदद नहीं मिलती. इस सबसे केवल ईमानदार आदमी डरता है. बेईमान इन सब चीजों से नहीं डरता, क्योंकि उसे पता है कि कुछ नहीं होने वाला. इसलिए मैं समझता हूं कि इस सब पर पुनर्विचार ज़रूरी है. अरुण शौरी ने कुछ टिप्पणियां की हैं, जिनसे पार्टी के लोग गुस्सा हैं. सच कहूं, तो उन्होंने कुछ भी कठोर बात नहीं की. उन्होंने स़िर्फ यह कहा कि सरकार ग़लत दिशा में जा रही है. अगर सरकार उनकी बात सुनती है, तो उससे सरकार को ही ़फायदा है. अरुण शौरी और अरुण जेटली के बीच एक व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता है, इसलिए मैं दोनों ओर से की जा रही टिप्पणियों को समझ सकता हूं. लेकिन, गेंद सरकार और श्री जेटली के पाले में है. तो श्री शौरी ने जिन ग़लतियों की ओर इशारा किया है, उन्हें सही किया जाना चाहिए. यह सरकार के खुद के हित में है.
अब कश्मीर का सवाल आता है. कश्मीर में दो अलग ध्रुवों पर रहीं पीडीपी और भाजपा एक साथ आ गईं और अब बार-बार खुद को शर्मनाक स्थिति में पा रही हैं. कभी मसर्रत आलम, तो कभी सैयद अली शाह गिलानी उन्हें शर्मिंदा कर रहे हैं. यदि अभी भी भाजपा यह प्रयोग जारी रखने की इच्छुक है, तो उसे मुफ्ती को शांति से छोड़ देना चाहिए. मुफ्ती जानते हैं कि कश्मीर को कैसे संभालना है. वह अपने लोगों को जानते हैं. लेकिन, मुफ्ती और भाजपा विधायकों की राय में अंतर है.
क्रिकेट की ़खबर. अब सभी एन श्रीनिवासन के पीछे पड़े हुए हैं. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी गठित की है, जिसकी रिपोर्ट अभी आनी है. कोई श्रीनिवासन के बारे में जो भी कहे, लेकिन वह एक ज़िम्मेदार कॉरपोरेट नेता हैं. इसकी बहुत कम संभावना है कि वह कोई निहायत ग़लत काम करें और आप उनकी ग़लती पकड़ें. उनके द्वारा सीएसके पर बोली लगाने से पहले बीसीसीआई अध्यक्ष शरद पवार ने सा़फ किया था कि इसमें हितों का टकराव नहीं है. उसके बाद ही श्रीनिवासन ने बोली लगाई थी. अब कोई उन्हें बिना किसी उचित कारण के परेशान करना चाहता है, तो फिर यह उसकी मर्ज़ी है. मेरे ख्याल में इस मामले में सुप्रीम कोर्ट भी खुद को नहीं रोक सका और कमेटी गठित करके उसने एक बहुत छोटे-से मसले को तूल दे दिया. ठीक है कि इसमें बहुत बड़ा पैसा लगा हुआ है, लेकिन भारत के सुप्रीम कोर्ट के लिए उचित नहीं है कि वह क्रिकेट के आम मामलों का संज्ञान ले.
अभी मैं मुंबई में हूं और मैंने सलमान खान पर सड़क दुर्घटना के मामले में कोर्ट का फैसला देखा. इसमें एक बात सा़फ होनी चाहिए कि दुर्घटना तो दुर्घटना होती है, वह कोई हत्या या ग़ैर इरादतन हत्या नहीं होती. लेकिन, बदकिस्मती से पुलिस ने धारा 4-ए का इस्तेमाल कर इस मामले को ग़ैर इरादतन हत्या का मामला बताया और फिर जज ने इसे आधी हत्या मान लिया. एक दुर्घटना केवल दुर्घटना होती है, उसके लिए छह महीने की सजा काफी है. हां, अगर दुर्घटना में किसी की मौत होती है, तो सरकार की तऱफ से या अगर दुर्घटना करने वाला व्यक्ति कोई सेलेब्रिटी है, तो उसकी तऱफ से पीड़ित के आश्रितों के पुनर्वास के लिए मुआवज़ा ज़रूर दिया जाना चाहिए. यह हक़ीक़त है कि किसी मृत व्यक्ति का जीवन आप वापस नहीं कर सकते. लेकिन, पीड़ित परिवार की रोज़ाना की ज़रूरतें पूरा करने और उसके बच्चों की शिक्षा के लिए पर्याप्त मुआवज़ा दिया जाना चाहिए. बहरहाल, किसी व्यक्ति को पांच साल की सजा देना, जैसे उसने किसी की हत्या की हो और एक ऐसे शख्स की, जिसे वह जानता तक नहीं, तर्कसंगत नहीं लगता. यहां तक कि इस तरह के पिछले मामलों में, दिल्ली एवं मुंबई में छह-सात लोगों की मौत हुई और दोषियों को स़िर्फ दो साल की सजा हुई है. इस मामले में केवल एक व्यक्ति की मौत हुई है, जिसके लिए सलमान खान को पांच साल की सजा सुना दी गई. यह ज़रूरत से अधिक सजा है. इस तरह के मामलों के लिए कुछ उसूल बनाने चाहिए, जिनके अनुरूप फैसला होना चाहिए. सलमान एक लोकप्रिय इंसान हैं, उन्होंने दूसरों के लिए बहुत सारे परोपकार के काम किए हैं. यह सही है कि ग़लती तो ग़लती होती है और गुनाह भी गुनाह होता है, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा सजा न तो इस समस्या का समाधान है और न ऐसी घटनाओं को भविष्य में रोकने में मददगार साबित होगी.

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