नए प्रधानमंत्री को बड़ी परियोजनाएं प्रिय हैं, जैसे बुलेट ट्रेन, नदियों का एकीकरण आदि.अब अमेरिकी कंपनियों और पश्‍चिमी देशों से निवेश आ सकते हैं, क्योंकि उन कंपनियों के पास भी भारत के अलावा कहीं और निवेश करने का विकल्प नहीं है. भारत के अलावा, उनके लिए लाभ का विकल्प कहीं और नहीं है और लोग भारत को एक अच्छे निवेश के रूप में मान रहे हैं.
page-1finalलोकसभा के चुनाव संपन्न हो चुके हैं और जनादेश आ चुका है. यह जनादेश हम जैसे कई लोगों के लिए आश्‍चर्यजनक, तो भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए संतोषजनक है. इस जनादेश का एक मतलब है कि अगले पांच वर्षों तक देश में एक स्थायी सरकार होगी, क्योंकि भाजपा ने अपने बूते स्पष्ट बहुमत हासिल किया है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आख़िर इस सरकार की नीतियां क्या होंगी और क्या उन नीतियों को लागू कर पाने में यह सक्षम होगी. घोषणा-पत्र की अपनी नीतियां हैं. इसमें संतोषप्रद बात यह है कि घोषणा-पत्र में राम मंदिर और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों को अंदर के पन्नों पर रखा गया है और मुख्य मुद्दे विकास और रोज़गार पर केंद्रित हैं. अब मान लेते हैं कि यह सरकार अपने वादों के प्रति ईमानदार रहेगी, लेकिन वह इसे कैसे पूरा करेगी. निवेश का मुद्दा बेहद आसान है, क्योंकि विदेशी निवेश आ सकता है.
पिछले दो वर्षों में इस देश की भावनाएं काफ़ी आहत हुई हैं, क्योंकि पिछली सरकार द्वारा रेट्रोस्पेक्टिव टैक्सेशन सहित कुछ अन्य ऐसे ़फैसले लिए गए हैं, जिसका स्वागत नहीं किया गया. क्योंकि वे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय खांचों में फिट नहीं बैठते थे. मैं आश्‍वस्त हूं कि यह नई सरकार ज़ल्द इसे बदलेगी, क्योंकि भाजपा व्यापारियों की पार्टी है. वे अन्य बातों को समझने की अपेक्षा व्यापारियों की समस्या को बेहतर तरी़के से समझते हैं. वे किसी भी तरह कारोबारी समुदाय को नाराज़ करना पसंद नहीं करेंगे. पहले बज़ट में करों में कटौती को लेकर संकेत हो सकते हैं, भले ही कम कटौती हो, लेकिन अमेरिकी आधार पर कॉरपोरेट क्षेत्र और अमीरों के लिए करों में कटौती हो सकती है. इन सबसे देश में निवेश आ सकता है. नए प्रधानमंत्री को बड़ी परियोजनाएं प्रिय हैं, जैसे बुलेट ट्रेन, नदियों का एकीकरण आदि.
अब अमेरिकी कंपनियों और पश्‍चिमी देशों से निवेश आ सकते हैं, क्योंकि उन कंपनियों के पास भी भारत के अलावा कहीं और निवेश करने का विकल्प नहीं है. भारत के अलावा, उनके लिए लाभ का विकल्प कहीं और नहीं है और लोग भारत को एक अच्छे निवेश के रूप में मान रहे हैं. अगर वे कांग्रेस सरकार द्वारा अनजाने में पैदा की गई बाधाओं को ही दूर कर देते हैं, अर्थव्यवस्था के प्रति सही दृष्टिकोण रखते हैं और अपने वादों से पीछे नहीं हटते हैं, तो पैसा आएगा.
अब सवाल यह उठता है कि वे परियोजनाएं कौन-सी हैं और वे कितनी बड़ी हैं. क्या वे व्यावहारिक हैं. भारत में आप बुलेट ट्रेन ला सकते हैं, लेकिन इसके बज़ट का इंतज़ाम कैसे होगा. आप इसे चलाने के लिए किरायों में बढ़ोतरी नहीं कर सकते हैं. इसलिए उन पर सब्सिडी देना होगा. क्या ट्रेन सेवा पर सब्सिडी देना उपयोगी साबित होगा? हमें नहीं पता. गंगा और कावेरी को जोड़ने वाली परियोजना को पूरा होने में 20 वर्ष का समय लगेगा. साथ ही, पर्यावरण के लिहाज़ से यह उचित है या नहीं, यह राजेंद्र पचौरी और उनके सहयोगियों के लिए सोचने का विषय है, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली सरकार में सुरेश प्रभु को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी और वे इस पर कार्य कर रहे थे. यह सच है कि नदियों का काफ़ी पानी बर्बाद हो रहा है और समुद्र में जा रहा है. इसके संरक्षण के लिए कुछ किए जाने की आवश्यकता है, लेकिन क्या हम चीन की तरह बड़ी-बड़ी बांधें बना सकते हैं? हमें नहीं पता. क्या यह उचित है? हम नहीं जानते, लेेकिन ये ऐसी चीज़ें हैं, जिसे वे तीन, छह और बारह महीने में कर सकते हैं. लेकिन, भविष्य में इससे आम आदमी को राहत कैसे मिलेगी, जो महंगाई के बोझ से दबा हुआ है. अब सरकार मुद्रास्फीति या महंगाई पर कैसे काबू पाएगी. सरकार स़िर्फ खाद्यान्न की महंगाई से निपट सकती है, क्योंकि उनके पास गेहूं और अन्य अनाजों का भंडार है. मौक़ा पड़ने पर वह उसे बाज़ार में उतार सकती है. बेशक, इससे महंगाई कुछ कम होगी, लेकिन सब्ज़ियों की महंगाई का सरकार क्या करेगी? हर 10 से 100 किलोमीटर की दूरी पर सब्ज़ियों की क़ीमत में अंतर आ जाता है. केंद्र सरकार इसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती है.
अब सवाल आता है पेट्रोल और डीज़ल का. इस सरकार के सलाहकार जैसे- भगवती, पनगढ़िया और अन्य लोग हमेशा यही कहेंगे कि बचकर निकल जाना चाहिए. वे सब्सिडी को बिल्कुल पसंद नहीं करते. जब कभी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी होगी, वे भी पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ाएंगे. भगवती और पनगढ़िया ने पहले ही एक बयान दे दिया है कि सिलिंडर की सब्सिडी 9 से घटाकर 6 कर दिया जाना चाहिए. ऐसे में वे किस तरह मुद्रास्फीति या महंगाई की समस्या से निपटेंगे, यह मुझे समझ में नहीं आता. एक और पहलू है, जिसे लोग अक्सर भूल जाते हैं. फ़र्ज़ कीजिए वे महंगाई कम कर पाने में सफल हो जाते हैं. इसका मतलब है कि क़ीमतों में वृद्धि ही मुद्रास्फीति की दर है. इसीलिए मुद्रास्फीति के कम होने का यह मतलब नहीं कि क़ीमतों में कमी आएगी. इसका मतलब है कि मूल्यों में वृद्धि समान स्तर तक नहीं होगी और वर्तमान स्तर बरक़रार रहेगी. ऐसे में मूल्यों में कमी का कोई सवाल ही नहीं उठता है.
अमीर और ग़रीबों को एक साथ राहत नहीं मिल सकती. दरअसल, पिछली सरकार ने यही करने की कोशिश की थी. उन्होंने कॉरपोरेट सेक्टर को झटका देने की कोशिश की और नरेगा एवं शिक्षा के अधिकार आदि जैसी योजनाओं को शुरू किया, लेकिन इससे बात नहीं बनी, क्योंकि अगर आप ग़रीबों की मदद के लिए कुछ भी करते हैं, तो उससे अमीरों को भी लाभ मिलता है. बात अगर नरेगा की करें तो, पिछली सरकार ने नरेगा शुरू किया था. जिसके तहत प्रत्येक गांव और परिवार को रोज़गार देने की गारंटी दी गई थी, लेकिन इसका क्रियान्वयन कैसे किया गया? एक तरफ आप कहते हैं कि ग्रामीण विकास में पंचायतों की संपूर्ण भागीदारी होगी, लेकिन यह तभी संभव है, जब कलेक्टर का दख़ल कम होगा. दरअसल, इसमें कई त्रुटियां हैं और आपको पता भी नहीं चलता है कि पैसा कहां जा रहा है. एक सिद्धांत यह है कि इस चुनाव में नरेगा जैसी योजना भी कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ गई है. हमें हक़ीक़त नहीं पता, लेकिन यह विचारणीय प्रश्‍न है कि ग़रीबों को पैसा, मदद और राहत कैसे दी जाए. ऐसे में प्रश्‍न उठता है कि सरकार की नई नीतियां क्या हैं? नए प्रधानमंत्री लगातार गुजरात मॉडल की बात करते रहे. हमें नहीं पता कि यह मॉडल क्या है. मैंने कम से कम कई किताबें और पत्रिकाएं पढ़ी हैं और अभी भी जानने को इच्छुक हैं कि आख़िर यह मॉडल क्या है? इसके अलावा, गुजरात में ग़रीबों को कैसे मदद की गई? मैंने बड़ोदरा के एक पत्रकार का लेख पढ़ा. अपने आलेख में उसने लिखा है कि यह शहर भारत के अन्य शहरों जितना ही गंदा है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आख़िर यह विकास का कौन सा मॉडल है? मोदी स़िर्फ यह बता सकते हैं कि शेयर बाज़ार उछलेगा, कॉरपोरेट सेक्टर बढ़ेगा, निवेश आएगा और नई फैक्टिरियां आ सकती हैं, लेकिन वे कितना रोज़गार उत्पन्न करेंगी, यह भविष्य की बात है और इसमें लंबा समय भी लगेगा.

पिछले दो वर्षों में इस देश की भावनाएं काफ़ी आहत हुई हैं, क्योंकि पिछली सरकार द्वारा रेट्रोस्पेक्टिव टैक्सेशन सहित कुछ ऐसे ़फैसले लिए गए हैं, जिसका स्वागत नहीं किया गया. क्योंकि वे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय खांचों में फिट नहीं बैठते थे. मैं आश्‍वस्त हूं कि नई सरकार ज़ल्द इसे बदलेगी, क्योंकि भाजपा व्यापारियों की पार्टी है. वे अन्य बातों की अपेक्षा व्यापारियों की समस्या को बेहतर तरी़के से समझते हैं.

आधुनिक तकनीक आ चुकी हैं और फैक्टरियां आधुनिक यंत्रों के ज़रिए काम करती हैं. जिस काम के लिए पहले 2000 लोगों की आवश्यकता पड़ती थी, उसमें अब स़िर्फ 200 लोगों की ज़रूरत होती है. सवाल यह है कि आख़िर आप कितनी फैक्टरियां लगाएंगे? कुछ दिनों पहले एक कार्यक्रम में मैंने पर्यावरण विज्ञानी वंदना शिवा को सुना. वह बता रहीं थीं कि देश में हर दूसरा आदमी किसान है तो, कृषि पर सरकार का क्या नज़रिया है? मैंने भाजपा की तरफ से इसके बारे में कुछ भी नहीं सुना. उसके घोषणा-पत्र में किसानों के बारे में कुछ है, ऐसा मैंने नहीं सुना. आप कृषि के लिए कौन सी ऐसी नई तकनीकों का इस्तेमाल करने जा रहे हैं, जिससे इस क्षेत्र में लोगों के लिए रोज़गार के अवसर बढ़ सकें और वे अपनी आय बढ़ा सकें. निश्‍चित रूप से ये लंबे समय की परेशानियां हैं. चूंकि नए प्रधानमंत्री समझदार हैं, इसीलिए अब वह दस-पंद्रह साल का समय मांग रहे हैं. एक भाषण में उन्होंने बीस साल का समय मांगा था. हालांकि पहले वह पांच साल का समय मांग रहे थे, लेकिन पूर्ण बहुमत और एक स्पष्ट नज़रिया के साथ वह इसके लिए प्रयास तो कर ही सकते हैं. सरकार के शुरुआती तीन महीनों के काम-काज और पहले बजट से यह पता चल जाएगा कि वह किस दिशा मेंे जा रहे हैं.
मुझे ऐसा लगता है कि उनकी दिशा व्यवसाय, उद्योग और समाज के धनी तबके की तरफ़ ही होंगी. मेरे ख़्याल से यह देशहित के लिए सही नहीं है, क्योंकि वर्ष 1991 का उदारीकरण देश को आगे लेकर नहीं आया है. इन बीते 23 वर्षों में देश वाकई आगे नहीं गया है. ग़रीब अभी भी ग़रीब ही हैं. अल्पसंख्यक अभी भी अधर में लटके हुए हैं. सामाजिक सद्भाव अभी क़ायम किया जाना बाक़ी है. वर्ष 1984 के बाद देश में हुआ हिंदू-सिख मनभेद हो या फिर बाबरी और गोधरा के बाद हुआ हिंदू-मुस्लिम मनभेद, ये सारी समस्याएं अभी भी वैसी ही बनी हुई हैं. ईसाइयों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है. अटल बिहारी वाजपेयी की पिछली सरकार में ओडिशा में ईसाइयों की हत्याएं हुई थीं. मुझे नहीं लगता कि सामाजिक सद्भाव कहीं भी नज़दीक है. कांग्रेस ने पिछले दस सालों तक शासन किया. वे इस मामले में काफ़ी बेहतर कर सकते थे, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके. उन्हें दोनों स्तरों पर पराजय मिली. कांग्रेस एक ऐसी पार्टी थी, जो अपनी धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सद्भाव के लिए जानी जाती थी, लेकिन पिछले दस वर्षों के शासन के दौरान वे इस सद्भाव को क़ायम रख पाने में असफल हुए. इसके अलावा, उन्होंने जो कुछ भी प्रयास किए वे सब बेकार साबित हो गए. अब एक नई सरकार हमारे सामने है. क्या यह सरकार नरेगा जैसी योजना को कूड़े में डाल देगी? यह एक ख़राब संकेत होगा. क्या आप नरेगा को और बेहतर बनाने का प्रयास करेंगे?
सवाल यह है कि यह आख़िर यह संभव कैसे होगा? दरअसल, परेशानियां काफ़ी बड़ी हैं और कहने के लिए स़िर्फ एक बात है कि पिछली सरकार भ्रष्ट थी. भ्रष्ट किन मायनों में? क्या आप 2जी और 3जी और अन्य घोटालों की बात करेंगे? हालांकि इन घोटालों का नरेगा से कोई लेना-देना नहीं है. नरेगा में भ्रष्टाचार ज़मीनी स्तर पर है. इसे आप कैसे दूर करेंगे? जनता के लिए वास्तविक भ्रष्टाचार तो राशन कार्ड, पासपोर्ट और आरटीओ स्तर के हैं. आख़िर किस तरी़के से नए प्रधानमंत्री इन सब समस्याओं को ठीक करेंगे? अगर इन सब चीज़ों को ठीक करने के लिए पूरा संघ ही लग जाए तो, मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता. जैसा कि संघ ने बीते चुनाव के दौरान किया भी. देश के प्रशासनिक ढांचे के संबंध में मैं जितना जानता हूं, उसके आधार पर यह ज़रूर कह सकता हूं कि समस्याओं में कोई बदलाव नहीं आने वाला और हालात जस के तस बने रहेंगे. आप एक अधिकारी का तबादला एक जगह से दूसरी जगह कर सकते हैं, लेकिन व्यवस्था जस की तस बनी रहेगी. घोषणाओें पर कार्यान्वयन करना वाकई में कठिन होगा. अगर सरकार कुछ नई सृजनात्मक योजनाएं लेकर सामने आए तो, हालात बेहतर बन सकते हैं और उससे ग़रीबों और अल्पंसख्यकों को भी लाभ मिल सकता है. मौजूदा सरकार ने जिस तरह चुनाव में जीत हासिल की है, उसे देखकर मुझे नहीं लगता कि यह पिछली सरकार से बेहतर काम करेगी. आगामी पांच वर्षों तक तो देश में चुनाव का कोई सवाल ही नहीं है, लेकिन पांच वर्षों के बाद क्या होगा? मेरे अनुसार, कांग्रेस पार्टी अपने सबसे गंभीर अवस्था से गुजर रही है. यह देश की सबसे पुरानी पार्टी है और इसने स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई भी लड़ी है. राजनीति में सभी पार्टियों के लिए ख़राब और अच्छे दिन आते हैं, लेकिन कोई पार्टी इस अवस्था तक पहुंच जाएगी, इसकी उम्मीद नहीं थी. मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष इस बारे में क्या सोच रहे हैं. अलबत्ता उन्हें पार्टी को एक बार पुनः खड़ा करने की योजना ज़रूर बनानी चाहिए. कांग्रेस इस देश के हर ज़िले और गांव में मौजूद है. बस उसे अपने संगठन में जान फूंकनी है. मुझे मालूम है कि इस काम में उनका सत्ता में न होना असर डालेगा, लेकिन पांच वर्षों बाद क्या होगा यह किसे मालूम है? पांच साल किसी भी देश के इतिहास में बहुत लंबा समय नहीं होता है. कांग्रेस एक बार फिर से अपनी वापसी कर सकती है और वह भी बहुत बेहतर तरी़के से. कांगे्रस के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि उसके बहुत कम कार्यकर्ता ही भाजपा में शामिल होंगे. संभव है कि उसके एक-दो नेता ऐसा करें, लेकिन पार्टी के आम कार्यकर्ता ऐसा कभी नहीं करेंगे.

सरकार महंगाई पर कैसे काबू पाएगी. वह स़िर्फ खाद्यान्न की महंगाई से निपट सकती है, क्योंकि उनके पास गेहूं और अन्य अनाजों का भंडार है. मौक़ा पड़ने पर वह उसे बाज़ार में उतार सकती है. इससे महंगाई कुछ कम होगी, लेकिन सब्ज़ियों की महंगाई का सरकार क्या करेगी? हर 10 से 100 किमी की दूरी पर सब्ज़ियों की क़ीमत में अंतर आ जाता है. केंद्र सरकार इसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती है.

इन चुनावों में तीसरे मोर्चे के साथ भी एक बड़ी दुर्घटना हुई है. लिहाज़ा अब समय आ गया है कि क्षेत्रीय नेताओं के व्यक्तिगत हित भी सामने नहीं आएंगे. आप यह तो कह ही सकते हैं कि नीतीश कुमार और देवगौड़ा साथ आ ही सकते हैं. जनता दल यूनाइटेड और जनता दल सेक्युलर भी ऐसा कर सकते हैं. उसी तरह दूसरी पार्टियों को भी स्वयं के अहंकार से अलग रखना होगा. जब जनता पार्टी और जनता दल था, उस समय सभी नेता एक ही मेज पर बैठते थे. उस समय कुछ क़ाबिल नेता थे, जो उन्हें दिशा दिया करते थे. कुछ क्षेत्रीय ताक़तों मसलन, ममता बनर्जी और जयललिता एक बार फिर साथ आ सकती हैं. हो सकता है कि दक्षिण की पार्टियां नेशनल फ्रंट में शायद न शामिल हो, लेकिन वे सरकार बनाने में हमेशा सहयोग करती रही हैं. ऐसे में इन लोगों को साथ काम करना चाहिए, जैसा कि भाजपा नेता और मेरे क़रीबी दोस्त रहे प्रमोद महाजन कहा करते थे. उनके मुताबिक़, जब वह चुनाव हार जाते थे, तो यही सोचकर काम शुरू करते थे कि आगामी चुनाव में अब स़िर्फ 4 साल और 364 दिन ही तो दूर हैं. कमोबेश यही भावना कांग्रेस पार्टी के अंदर विकसित होनी चाहिए कि आगामी चुनाव में अब सिर्फ 4 साल 364 दिन ही शेष बचे हैं. कांग्रेस पार्टी इस सोच के साथ आगे बढ़ती है, तो वह पुनः सत्ता में आ सकती है. कांग्रेस पार्टी को अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए. संविधान के डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स के आधार पर उन्होंने अभी तक कुछ भी नहीं खोया है. वह मेरे लिए बहुत ही भयानक दिन होगा, जब कोई मुझसे यह कहेगा कि भाजपा इसीलिए जीत गई, क्योंकि उसे हिंदुओं ने वोट दिया और मुसलमानों ने नहीं दिया. मैं अभी इस बात पर विश्‍वास नहीं करता. मेरे ख़्याल से रोज़गार, समृद्धि और विकास की बातों ने युवाओं को इस पार्टी की तरफ़ आकर्षित किया है. प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के संबंध में जो बातें शुरुआत में कही थी, अब उनकी भाषा इस मामले पर बदली हुई है. शायद, वे इस बात को समझ गए हैं कि अगर सफलतापूर्वक देश चलाना है तो, अपने पड़ोसियों के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिए. मुझे यह बताया गया है कि नरेंद्र मोदी के शपथग्रहण समारोह मेंे सार्क देशों के नेताओं को बुलाया गया है. यह एक अच्छा संकेत हैं, क्योंकि सार्क देशों को अमेरिका और चीन के साथ बेहतर संबंध बनाना चाहिए. उत्तर भारत में क्षेत्रीय नेताओं की स्थिति अच्छी नहीं है, क्योंकि वर्ष 1971 के चुनाव में पूरा उत्तर भारत इंदिरा गांधी के साथ चला गया था. वर्ष 1977 में यही अवाम जनता पार्टी के साथ चली गई थी. वर्ष 1980 में यही मतदाता इंदिरा गांधी के साथ आ गया. हालांकि इस बार यही मतदाता पूरी तरह भाजपा के साथ चले गए. हालांकि इसकी आशा कभी नहीं की गई थी. जाति को आधार बनाकर राजनीति करने वाले नेताओं को कम से कम साथ बैठना चाहिए. चाहे वह यूपी में मुलायम हों या बिहार में लालू प्रसाद या शरद यादव. उन्हें साथ बैठकर इस बात पर विचार करना चाहिए कि अपने खिसके हुए वोट बैंक को किस तरह फिर वापस लाया जाए.
मेरा मानना है कि सब का अपना एक वोट बैंक है. यह सही है कि बीजेपी कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों पर मुस्लिम वोट बैंक के इस्तेमाल का आरोप लगाती है. मेरे हिसाब से बीजेपी हिंदू वोट बैंक का इस्तेमाल करती है. भाजपा हिंदुत्व की बात तो करती है, लेकिन यह हिंदुत्व क्या है? पांच हजार साल पुरानी एक धारणा, जिससे हिंदु-मुस्लिम वैमनस्य बढ़ा और यह तबका वोट बैंक का एक ज़रिया बन गया. वैसे यह अल्पकालिक रणनीति है, क्योंकि यह बहुत समय तक काम नहीं आने वाली. भारतीय राजनीति में लंबे समय तक वही पार्टियां सफल होंगी, जो ग़रीबों और वंचितों की बात करेगी और उनके लिए अच्छा काम करेगी. लोकसभा चुनाव में मेरे लिए सबसे अधिक आर्श्‍चय की बात है मायावती को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिलना. इसका अर्थ है कि दलितों ने उन्हें वोट नहीं दिया. मेरे लिए यह विश्‍वास करना कठिन है कि दलित भाजपा के साथ चले गए होंगे. आख़िर ये कैसे संभव है? बीजेपी में बड़ा पद पाना दलितों के लिए अभी भी दूर की कौड़ी है. निश्‍चित रूप से यह मुद्दा विचारणीय है. पश्‍चिम बंगाल में भी प्रकाश करता एंड कंपनी का हाल बुरा है.

 कांग्रेस पार्टी अपने सबसे गंभीर अवस्था से गुजर रही है. यह देश की सबसे पुरानी पार्टी है और इसने स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई भी लड़ी है. राजनीति में सभी पार्टियों के लिए ख़राब और अच्छे दिन आते हैं, लेकिन कोई पार्टी इस अवस्था तक पहुंच जाएगी, इसकी उम्मीद नहीं थी. मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष इस बारे में क्या सोच रहे हैं.

कांग्रेस और बीजेपी के हिंदुवादी समूह, आरएसएस और वामदलों की भूमिका इस देश के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण है. इन सभी क्षेत्रीय दलों को अपनी भूमिका निभानी चाहिए. यही भारत की खूबसूरती और तानाबाना है, जो लंबे समय में इस देश को सही दिशा में ले जाने का काम करेगा. इसी से शांति क़ायम रहेगी. अगर कोई इससे उलट काम करता है, तो आगामी चुनाव में इसके परिणाम उलट होंगे. वर्तमान सरकार को विपक्ष के साथ काम करना होगा. मैं नहीं जानता कि वह क्या सोच रहे हैं? उन्होंने चुनाव में जीत हासिल की है, लेकिन चुनाव पांच साल के लिए ही हुए है. उन्हें पचास साल के लिए जनमत नहीं मिला है. सरकार को विपक्षी दलों समेत ऍाल पार्टी मीटिंग बुलानी चाहिए और उन्हें यह भरोसा दिलाना चाहिए कि वे सब इस पूरी प्रक्रिया के हिस्से है. यह सही है कि संसद को अपने नियमों के साथ चलना है, लेकिन ऐसा करना मुश्किल
नहीं है.
जब तक इस देश में चेंबर ऍाफ कॅामर्स, ट्रेड यूनियन और माओवादी आंदोलन चलाने वाले लोग मुख्यधारा में शामिल नहीं होते हैं, तब तक कोई भी सरकार इस देश में बहुत ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती. बेशक, इसकी जगह सरकार कॅारपोरेट सेक्टर में तेज़ी ला सकती है.

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