यहां सवाल उठता है कि क्या भाजपा एक मज़बूत विपक्ष की भूमिका निभा पा रही है? इसका जवाब तलाशने के लिए अधिक दूर जाने की ज़रूरत नहीं है. हम अगर नई सरकार के बनने के बाद से संसद में भाजपा की भूमिका देखें, तो बड़े आराम से इस सवाल का जवाब मिल सकता है-वह भी न में.
एक स्वस्थ और बेहतर लोकतंत्र के लिए ज़रूरी क्या है? अगर हम लोकशाही को सफल बनाना चाहते हैं, तो एक बेहतर सरकार तो ज़रूरी है ही. इसके अलावा, एक मज़बूत और ज़िम्मेदार विपक्ष भी बहुत आवश्यक है. आख़िर लोकशाही के और मायने भी क्या हैं? अगर हमारे विपक्षी दल कमज़ोर रहेंगे, तो सरकार को जगाएगा कौन? विपक्ष का काम सदन चलाने में सहयोग देने से लेकर सरकारी नीतियों पर सवाल पूछने और आम जन के हित के लिए सरकार को नीतियां बनाने पर मजबूर करना भी है. लोकतंत्र आख़िर पक्ष-विपक्ष के बेहतर समन्वय और संयोजन से ही तो चलता है. अगर विपक्ष ज़िम्मेदार नहीं हुआ, तो सत्तापक्ष के तानाशाह हो जाने का ख़तरा है. सत्ताधारी दल निरंकुश हो सकता है और अपनी मर्जी से तमाम फैसले ले सकता है. इसी तरह अगर विपक्ष केवल विरोध के लिए विरोध करता है, तब भी लोकशाही की मूल भावना आहत होती है.अगर जनता के हित के लिए सरकार कोई फैसला लेती है, तो विपक्ष को उसका साथ भी देना चाहिए. सरकार के पास अगर कम सांसद हैं, तो विपक्षी दल के समर्थन से ही तो आवश्यक कोरम पूरा होगा. बात बस इतनी सी है कि लोकशाही के सफल होने के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों को ही अपने कर्तव्य और ज़िम्मेदारी का अहसास होना चाहिए.
अब यहां सवाल उठता है कि क्या भाजपा एक मज़बूत विपक्ष की भूमिका निभा पा रही है. इसका जवाब तलाशने के लिए अधिक दूर जाने की ज़रूरत नहीं है. हम अगर नई सरकार के बनने के बाद से संसद में भाजपा की भूमिका देखें, तो बड़े आराम से इस सवाल का जवाब मिल सकता है-वह भी न में.
भाजपा ने इस सत्र में संसद में एक बार बहिष्कार किया, वह भी भारत-पाक साझा घोषणापत्र और बलूचिस्तान के मसले पर. भाजपा नेतृत्व को यह समझ ही नहीं आया कि हमारी आंतरिक राजनीति अलग है, अंतरराष्ट्रीय मसलों पर व्यापक सहमति एक दूसरी बात है. जिस तरह प्रधानमंत्री को इस मसले पर घेरने की कोशिश की गई, उससे कहीं न कहीं यह संदेश जाता है कि अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भी हमारे यहीं व्यापक सहमति नहीं है. प्रधानमंत्री को कमज़ोर बताना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि को नुकसान पहुंचाता है. महाभारत की कथा है कि गंधर्वों के राजा ने दुर्योधन को बंदी बना लिया था, तो युधिष्ठिर ने पांडवों को उसकी रक्षा का आदेश दिया था. भीम और अर्जुन के सवाल पूछने पर उनका यही जवाब था कि हमारी लड़ाई और मतभेद हमारे हैं, लेकिन बाहर वालों के लिए तो हम 105 भाई ही हैं-वयं पंचाधिकम शतम्.
यह नीति हमारी संसद के लिए भी सही है. हमारे आपस में चाहे जो भी मतभेद हों, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो व्यापक सहमति और एकता दिखनी ही चाहिए. भाजपा दरअसल अब तक अपनी हार पचा ही नहीं पाई है. जो पार्टी ख़ुद ही मतभेदों में उलझी हो, वह सरकार को भला किस मुद्दे पर और कैसे घेरेगी. इस बार तो यही काम ममता बनर्जी कर रही हैं. जब भूमि-अधिग्रहण के मसले पर उन्होंने बहिष्कार किया, तो लगा कि वही विपक्षी दल की भूमिका में हैं.
इसी तरह, अगर पिछली बार की सरकार का दौर याद करें, तो वाम-दलों ने ही विपक्ष की भूमिका निभाई थी. कई मसलों पर सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वाम मोर्चे ने ही घेरा था, जबकि भाजपा के सांसद अपनी ही दुनिया में मग्न थे. इस बार वाम दल भी अपनी हार के सदमे में हैं. भाजपा तो ख़ैर अपने ग़म से उबर ही नहीं पाई है. हार के बाद पार्टी के अंदर ही जिस तरह घमासान चल रहा है, उसमें विपक्ष की भूमिका शायद उसे याद ही नहीं रही है. भाजपा के पास ऐसे कई मसले थे, जिन पर वह सरकार को चेता सकती थी, उसे संसद में घेर सकती थी और सवाल उठा सकती थी. भाजपा ने ये सब कुछ भी नहीं किया, जब सरकार को घेरा भी तो शरम-अल-शेख के मसले पर. भाजपा की करनी से तो यही लगा कि देश में और आम जनता के हित के मसले ही ख़त्म हो गए हैं. तभी तो सरकार को घेरने के लिए उसे अंतरराष्ट्रीय मसलों की ज़रूरत है. इस बात से कोई इंकार नहीं कि विपक्ष को कई मसलों पर सरकार को घेरने का अधिकार है, लेकिन सबसे ज़रूरी तो यह है कि आम आदमी से जुड़े मसलों और उनकी भलाई के मुद्दों पर सरकार की जवाबदेही तय करे.
जल, ज़मीन और जंगल ख़तरे में हैं. देश के दो सौ से अधिक ज़िले अशांत हैं और नक्सल-प्रभावित हैं. रोज़मर्रा की ज़रूरतों की क़ीमतें आसमान छू रही हैं और मानसून की देरी से आम आदमी के और भी प्रभावित होने की आशंका है. भाजपा के पास ज़ाहिर तौर पर मुद्दों की कमी नहीं थी, राजनीतिक इच्छाशक्ति होने पर वह सरकार को आसानी से घेर सकती थी.
आम आदमी से सरोकार रखने वाले मसलों को अगर वह उठाती, तो उसे समर्थन भी मिलने की उम्मीद थी, लेकिन भाजपा का प्रदर्शन बताता है कि वह ख़ुद ही आम आदमी के सरोकार भूल चुकी है और इसी वजह से उसके मसले उठाना भी उसे याद नहीं रहा है. रेल बजट के साथ ही आम बजट भी पेश हुआ. भाजपा के पास ये दोनों मौके थे, जब वह कईई मुद्दों पर सरकार को घेर सकती थी. उसने यही काम नहीं किया.
भाजपा दरअसल इनर्शिया में चली गई है. अपनी हार उसे हजम ही नहीं हुई. वह आपसी लड़ाई और रंज़िश का शिकार हो गई है. वह सरकार को घेर नहीं पा रही. यह हालत हमारे लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं कही जा सकती. लोकशाही की सफलता के लिए ज़रूरी है कि विपक्ष अपने कर्तव्य को समझे और उसी तरह आचरण करे.