वर्ष 2004 में गठित रंगनाथ मिश्रा आयोग (राष्ट्रीय धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यक आयोग) ने जुलाई 2007 में ही सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी. क़ानूनन, सरकार को छह महीने के भीतर एक्शन टेकेन रिपोर्ट (एटीआर-सरकार द्वारा की गई कार्रवाई की रिपोर्ट) के साथ आयोग की रिपोर्ट को संसद में पेश कर देना चाहिए था, लेकिन दो साल बाद भी ऐसा नहीं हो सका है. आख़िर आयोग की रिपोर्ट में ऐसा क्या है, जिसे सरकार सार्वजनिक नहीं करना चाह रही है? लेकिन, चौथी दुनिया के पास रंग नाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट उपलब्ध है और यहां हम उसकी स़िफारिशों को प्रस्तुत कर रहे हैं:
अल्पसंख्यकों में पिछ़डा वर्ग आयोग की राय में, पिछ़डा वर्ग की पहचान के लिए एक समान मापदंड होने चाहिए और वह होना चाहिए लोगों की शैक्षणिक और आर्थिक  स्थिति, न कि उनकी जाति और धर्म. इसके लिए जनमत बनाने और इसके पक्ष में राष्ट्रीय सहमति बनाने की ज़रूरत होगी.
कौन है अल्पसंख्यक?
1.            आयोग की अनुशंसाएं स़िर्फ राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट 1992  द्वारा अधिसूचित अल्पसंख्यकों के लिए नहीं, बल्कि सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों (लक्षद्वीप, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड में हिंदू धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित) के लिए है.
2.            रिपोर्ट के मुताबिक़, अल्पसंख्यकों में उन सभी वर्गों और समूहों को पिछ़डा माना जाए, जिनकी तरह (जिनके समकक्ष) के लोग बहुसंख्यक हैं और वतर्र्मान स्कीम के तहत पिछ़डे माने जाते हैं.
3.            विभिन्न अल्पसंख्यकों में जिन लोगों को नीच माना जाता है, उन्हें पिछ़डा माना जाए.
4.            अल्पसंख्यकों के उन सभी सामाजिक और पेशेवर समूहों को, जिन्हें वर्तमान व्यवस्था के तहत अनुसूचित जाति का दर्ज़ा दिए जाने की मांग है, सामाजिक तौर पर पिछ़डा माना जाए. भले ही उनका धर्म जाति व्यवस्था में विश्वास न करता हो.
5.            अल्पसंख्यकों के वैसे समूहों को भी अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा दिया जाए जिनकी तरह के लोग बहुसंख्यक है और आदिवासी है.
कैसे होगा कल्याण?शैक्षणिक उपाय
1.            आयोग की राय में शिक्षा शब्द का अर्थ स़िर्फ प्राथमिक, माध्यमिक, स्नातक या परास्नातक से नहीं है, बल्कि अल्पसंख्यकों की शैक्षणिक बेहतरी के लिए आयोग ने अपनी अनुशंसाओं में इंजीनियरिंग, मेडिकल, तकनीकी और लॉ जैसे प्रोफेशनल एवं वोकेशनल कोर्स सहित प्रयोगशालाओं, छात्रावासों और पुस्तकालयों जैसे मुद्दे भी शामिल किए हैं.
2.            रिपोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 30  में सुधार के लिए तत्काल एक व्यापक क़ानून बनाने की बात की गई है.
3.            राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग में इस तरह से सुधार किए जाने की अनुशंसा की गई है, ताकि यह आयोग संविधान द्वारा अल्पसंख्यकों  को मिले शैक्षणिक अधिकारों को लागू करवा सके.
4.            आयोग के मुताबिक़ सभी ग़ैर अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में 15 प्रतिशत सीटें अल्पसंख्यकों के लिए सुनिश्चित की जानी चाहिए, जिनमें 10 प्रतिशत मुस्लिम और 5 प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के लिए हों.
5.            देश के सबसे ब़डे धार्मिक अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए आयोग ने कुछ ख़ास उपाय बताए हैं. जैसे:
*      चुनिंदा संस्थानों, मसलन अलीग़ढ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया को मुस्लिम छात्रों में शिक्षा का प्रसार करने की ज़िम्मेदारी दे देनी चाहिए.
*      मुस्लिमों द्वारा संचालित स्कूलों-कॉलेजों को अधिक से अधिक सहायता मिलनी चाहिए.
*      मदरसा आधुनिकीकरण योजना को फिर से  संशोधित करना चाहिए.
*      केंद्रीय वक्फ काउंसिल को इस तरह का बनाया जाए कि इसका मुख्य उद्देश्य शिक्षा का विकास बन जाए.
*      मौलाना आज़ाद एजूकेशनल फाउंडेशन के तहत दी जाने वाली धनराशि का उपयोग नए शैक्षणिक संस्थान खोलने के लिए भी किया जाना चहिए.
*      आंगनवा़डी, नवोदय स्कूल मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में खोले जाएं और मुस्लिम परिवारों को वहां अपने बच्चे भेजने के लिए प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए.
आर्थिक उपाय
1.            आयोग की रिपोर्ट में एक ऐसा प्रभावकारी तंत्र विकसित किए जाने की बात की गई है, जिससे छोटे-मोटे
उद्योग-धंधों का आधुनिकीकरण किया जा सके और अल्पसंख्यकों में से कारीगरों व दस्तकारों को प्रशिक्षण देकर उन्हें रोज़गार मुहैया कराया जा सके.
2.            विशेष योजनाएं बनाकर अल्पसंख्यकों को कृषि क्षेत्र में शामिल किए जाने की बात भी इस रिपोर्ट में है.
3.                राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त बोर्ड को और प्रभावशाली बनाने के लिए इसके नियम, विनियम और प्रक्रिया में भारी फेरबदल की ज़रूरत पर बल दिया गया है.
4.            सभी सरकारी योजनाओं, मसलन नरेगा व पीएमआरवाई आदि में भी 10 प्रतिशत स्थान मुस्लिमों और पांच प्रतिशत स्थान अन्य अल्पसंख्यकों के लिए सुनिश्चित किए जाने की बात आयोग की रिपोर्ट में कही गई है.
5.            इसमें अल्पसंख्यकों को स्वरोज़गार के लिए प्रेरित करने के लिए भी कारगर रास्ते अपनाने की सलाह दी गई है.
आरक्षण : एक ज़रूरी क़दम
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सभी सरकारी (केंद्र और राज्य) नौकरियों में 15 प्रतिशत सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित करने की बात कही है. इसमें 10 प्रतिशत मुस्लिमों और पांच प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का प्रावधान है. आयोग के फॉर्मूले के मुताबिक़, 27 प्रतिशत ओबीसी कोटे में से 8.4 प्रतिशत अल्पसंख्यकों को दिया जाए, जिसमें छह प्रतिशत मुस्लिमों और बाक़ी अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के लिए हो.
ख़त्म हो संविधान का पैरा 3 (अनुसूचित जाति) आदेश 1950
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत के किसी एक धर्म की जाति अन्य धर्म में भी पाई जाती है. इनकी समस्याएं भी एक तरह की होती हैं. भारतीय संविधान जाति के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को नकारता है. धर्म के आधार पर भी भेदभाव का निषेध है. जबकि वास्तव में ऐसा हो रहा है. संविधान के इसी प्रावधान को ध्यान में रखते हुए आयोग ने संविधान के पैरा 3 (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 को ख़त्म कर देने की सलाह दी है, जिसके प्रावधान मुस्लिम, ईसाई, जैन और पारसी को अनुसूचित जाति का दर्ज़ा दिए जाने को निषेध करते हैं.
कैसे कार्यान्वित होंगी अनुशंसाएं आयोग ने विस्तार से यह बताया है कि कैसे उपरोक्त अनुशंसाओं-सुझावों का कार्यान्वयन संभव हो सकता है.
*      एक विस्तृत क़ानून को अधिनियमित किया जाए, ताकि संविधान के अनुच्छेद 30 का सही-सही कार्यान्वयन हो सके.
*      राष्ट्रीय पिछ़डा वर्ग आयोग एक्ट 1993, संविधान के अनुसूचित जाति आदेश 1950, जनजाति आदेश 1951 और केंद्र व राज्य सरकार की अनुसूचित जाति और जनजाति सूची में संशोधन हो.
*      केंद्र और राज्य स्तर पर अन्य पिछ़डा वर्ग के चयन की प्रक्रिया व क़ानून में संशोधन हो.
*      प्रधानमंत्री के 15 सूत्रीय कार्यक्रम (1983), जिसे 2006 में सुधारा गया, को नियम क़ानून बना कर संवैधानिक दर्ज़ा दिया जाए.
*      राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट 1992, राष्ट्रीय  शैक्षणिक संस्थान आयोग एक्ट 2004, वक्फ एक्ट 1993 व राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त बोर्ड में संशोधन किया जाए.
*      एक संसदीय समिति का गठन हो, जो अल्पसंख्यकों से जु़डे मुद्दे देखेगी. एक राष्ट्रीय समिति की स्थापना हो, जिसमें एनएचआरसी, एनसीडब्ल्यू, एनसीबीसी, एनसीएसटी, एनसीएससी, एनसीएम, एनसीएमइआई, एनएमडीएफसी, सीएलएम, केंद्रीय वक्फ परिषद, मौलाना आज़ाद फाउंडेशन के अध्यक्ष और कुछ विशेषज्ञ नामित हों और जिनका कार्य अल्पसंख्यकों के आर्थिक और शैक्षणिक विकास  की निगरानी हो. इसी तरह की संस्थाएं सभी राज्यों में बनाई जाएं.
*      एक राष्ट्रीय स्तर की समन्वय समिति की स्थापना हो, जिसमें सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों के प्रतिनिधि हों, ताकि अल्पसंख्यकों को आसानी से क़र्ज़ मिल सके.
*      देश के सभी ज़िलों में अल्पसंख्यक कल्याण समिति की स्थापना, जिसमें अधिकारी और स्थानीय एक्सपर्ट हों, जो अल्पसंख्यकों से जु़डे सभी मुद्दों के लिए एक नोडल एजेंसी की तरह काम करे.
रिपोर्ट का संसद में पेश होना क्यों ज़रूरी है?

आयोग का गठन  यूपीए सरकार ने ही किया था तो क्यों इसे एक नाजायज़ औलाद की तरह छुपा रही है? रिपोर्ट को जल्द से जल्द सार्वजनिक किया जाए.

आख़िर किसके लिए ज़रूरी है इस रिपोर्ट का संसद के पटल पर रखा जाना. इस सवाल का जवाब आपको मिल जाता है, जब आप तमिलनाडु के फ्रैंकलिन थॉमस सीजर से मिलते हैं. नेशनल काउंसिल ऑफ दलित क्रिश्चियन (एनसीडीसी) के नेशनल कोऑर्डिनेटर फ्रैंकलिन ऐसे समाज से ताल्लुक रखते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछ़डा होने के साथ-साथ विकास से भी कोसों दूर है. वह खुद को दलित ईसाई बताते हैं और इसका सबूत भी देते हैं. वह कहते हैं कि हमारे गांव में दो चर्च हैं और दो कब्रिस्तान. यहां तक कि ताबूत भी अलग-अलग हैं. संपन्न ईसाइयों के लिए अलग और हमारे लिए अलग. हद तो यह है कि सरकार और संविधान भी उनके साथ दोहरा मापदंड अपना रही है. कुछ ऐसी ही स्थिति उन मुसलमानों की भी है, जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछ़डे हुए हैं. मुसलमानों में भी जाति व्यवस्था के आधार पर भेदभाव है. फिर भी सरकार उन्हें दलित का दर्ज़ा देने को राजी नहीं है. जबकि सरकार द्वारा ही गठित रंगनाथ मिश्र आयोग (राष्ट्रीय धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यक आयोग) ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों (ईसाई और मुसलमान) की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति भी हिंदू दलितों की ही तरह है.
आयोग ने सा़फ-सा़फ कहा है कि संविधान के पैरा 3 (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए. दरअसल, राष्ट्रपति द्वारा जारी इसी आदेश के कारण स़िर्फ वैसे लोगों को ही अनुसूचित जाति का दर्ज़ा मिल सकता है, जिनका संबंध हिंदू धर्म से है. हालांकि बाद में इस आदेश में संशोधन के ज़रिए सिख और बौद्ध धर्म को भी शामिल कर लिया गया. लेकिन अभी तक मुसलमानों और ईसाईयों को इस दायरे से बाहर ही रखा गया है. क्या राष्ट्रपति द्वारा जारी (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 संविधान की धारा 14 (क़ानून के समक्ष समानता), धारा 15 (धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध) और धारा 25 (धर्म बदलने और मानने की स्वतंत्रता) की मूल भावना के ख़िला़फ नहीं है?
दरअसल वर्ष 2004 में ही सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछ़डे मुसलमानों व ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्ज़ा देने के संबंध में प्रख्यात क़ानूनविद्‌ शांति भूषण ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका डाली थी.  जवाब में केंद्र सरकार ने बताया कि  मिश्र आयोग से इस मामले को देखने को कहा गया है. आयोग ने तीन साल की गहन छानबीन और अध्ययन के बाद वर्ष 2007 में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी. तबसे लेकर आज तक यानी इन दो सालों से आयोग की रिपोर्ट सत्ता के गलियारों में भटक रही है.
इसी बीच कई राज्य सरकारों ने सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछ़डे मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्ज़ा देने के संबंध में एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा. अपनी मृत्यु से कुछ दिनों पहले ही आंध्र प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी ने भी ऐसा ही एक प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा था. लेकिन, केंद्र की यूपीए सरकार के लिए मानो इस सबका कोई अर्थ ही नहीं है. विभिन्न मुस्लिम सांसदों और संगठनो ने भी संसद के अंदर और बाहर इस मुद्दे पर आवाज़ उठाई है. जद(यू) सांसद और ऑल  इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के अध्यक्ष अली अनवर अंसारी सालों से इस मुद्दे पर आवाज़ उठाते आ रहे हैं.
अली अनवर कहते हैं कि जब रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन  यूपीए सरकार ने ही किया था तो उसकी रिपोर्ट संसद में लाने से सरकार क्यों परहेज़ कर रही है? क्यों इसे एक नाजायज़ औलाद की तरह छुपाया जा रहा है? यदि रिपोर्ट को जल्द से जल्द सार्वजनिक नहीं किया गया तो सरकार को इसका ख़ामियाज़ा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए.
ज़ाहिर है, आयोग की रिपोर्ट यूपीए सरकार के लिए गले की हड्डी बन चुकी है. रिपोर्ट की  अनुशंसाओं को लागू कर पाना सरकार के लिए आसान नहीं होगा. आरक्षण के मामले पर पहले भी सरकार की किरकिरी होती रही है. उधर उच्चतम न्यायालय का निर्देश है कि किसी भी सूरत में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए.
ऐसे हालात में सरकार को मालूम है कि किसी के  हिस्से  का आरक्षण काटकर दलित मुसलमानों या दलित  ईसाइयों को दे देना उसके वश की बात नहीं है. बावजूद इसके कभी न कभी तो आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश करनी ही होगी. यानी कुल मिलाकर यूपीए सरकार के लिए एक तऱफ कुआं तो दूसरी तऱफ खाई वाली स्थिति बन चुकी है.

हमारे गांव में दो चर्च हैं और दो क़ब्रिस्तान. यहां तक कि ताबूत भी अलग-अलग हैं. ब़डे लोगों के लिए अलग और हमारे लिए अलग.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here