हमें सांसदों पर टिप्पणी करनी चाहिए या नहीं करनी चाहिए, इसके बारे में अब फैसला कर लेना चाहिए. हम लगातार लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही देख रहे हैं और खासकर मौजूदा लोकसभा की. सांसद चाहे भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हों, कांग्रेस से जुड़े हों या अन्य दलों से जुड़े हों, वे विषय उठाते नज़र नहीं आते और इस बात में सच्चाई लगती है कि अगर अख़बार या टेलीविजन ख़बर न दें, तो सांसद अपनी जानकारी का दायरा ही नहीं बढ़ाते.
एक जमाना था, जब संसद में मधु लिमये, जार्ज फर्नांडिस, नाथ पाई, भूपेश गुप्ता, ज्योर्तिमय बसु और राज नारायण जैसे सांसद हुआ करते थे. उन दिनों संसद में नौज़वान सांसदों में किशन पटनायक का भी जिक्र करना आवश्यक है, क्योंकि किशन पटनायक हमेशा पूरी तैयारी के साथ संसद में जाते थे. उन दिनों उन विषयों के ऊपर संसद में बहसें होती थी, जिनका रिश्ता देश की तकलीफों से, देश के दर्द से और देश के विकास से है. पक्ष और विपक्ष की बहसों का स्तर इतना ऊंचा होता था कि सांसद एक-दूसरे की जानकारी में कुछ न कुछ जोड़ते थे और देश को भी पता चलता था कि हमारी सचमुच हालत यह है. क्योंकि, ये सारे जितने नाम मैंने लिए, वे देश के हालात का खोजपरक विश्लेषण करते थे.
उन दिनों सांसद अपनी खुद की पार्टी का किस पूंजीपति से रिश्ता है, इस पर ज़्यादा ध्यान देने की बजाय देश का किसमें फ़ायदा है, इस पर ज़्यादा ध्यान देते थे. चंद्रशेखर जी ने जब राज्यसभा में बिड़ला के ख़िलाफ़ अभियान शुरू किया था, तो यह माना जाता था कि बिड़ला जी के पास संसद के अस्सी सांसदों का समर्थन है, जिन्हें वह हर महीने कुछ न कुछ उपहार दिया करते थे. कांग्रेस पार्टी का भी बिड़ला घराने से अच्छे रिश्ते रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद चंद्रशेखर जी ने बिड़ला के ख़िलाफ़ मामला उठाया. सांसदों का अध्ययन करना उन दिनों उनकी योग्यता मानी जाती थी. संसद के पुस्तकालय में अक्सर सांसद पुस्तक पढ़ते या जानकारी लेते हुए मिल जाते थे.
क्या इस संसद में एक भी ऐसा सांसद नहीं है, जो इस ख़तरे को भांप सकें? और, सुप्रीम कोर्ट इस स्थिति के ऊपर तभी अपनी नज़र डाल पाता है, जब यह सवाल उसके सामने लाया जाए. सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल है, इसलिए उसने पहली टिप्पणी इस आधार कार्ड के विरोध में कर दी है और इसे अनिवार्य न बनाए जाने के बारे में कहा है. लेकिन, भारत सरकार हर जगह आधार कार्ड को अनिवार्य बना रही है. क्या मौजूदा सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की प्रशासनिक आदेशों के ज़रिये अवमानना कर रही है? अब इसका फैसला तो सुप्रीम कोर्ट को करना है. पर हां, सरकार में ऐसे लोग बैठे हैं, जो देश के हित के ख़िलाफ़ सारी जानकारियां विदेशों को दे रहे हैं और वे जानकारियां पाकिस्तान व चीन जैसे देशों से ज़रूर शेयर हो रही होंगी, क्योंकि आजकल कंपनियां आंकड़े बेचती हैं.
और एक आज का वक्त है, संसद की लाइब्रेरी में पत्रिकाएं पढ़ते हुए तो कुछ सांसद दिख जाते हैं, लेकिन गंभीर विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें लगभग आलमारी में आराम फरमा रही होती हैं. हालत यह हो गई है कि बहुत सारे सांसदों को राष्ट्रगान तक नहीं याद है और जनता से जुड़े हुए सवाल याद करने का उनके पास वक्त नहीं है. इसका सीधा उदाहरण शून्यकाल के बाद लोकसभा और राज्यसभा का टीवी देखना है. संसद में सांसद उपस्थित नहीं रहते. संसद में क्या हो रहा है, उसमें हिस्सा नहीं लेते. उनकी न कोई अपनी राय होती है, न कोई अपना अध्ययन होता है. यह वह संसद है, जो 125 करोड़ लोगों की ज़िंदगी का फैसला करती है, क्योंकि संसद इस देश की सत्ता का सर्वोच्च न्यायालय है.
इस स्थिति में, जब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के ख़िलाफ़ सरकार जा रही है और संसद खामोश है, इसका एक ही अर्थ निकलता है कि सांसदों को सुप्रीम कोर्ट की चिंता का भी नहीं पता, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का भी नहीं पता. और, देश में पिछले साढ़े पांच सालों से जिस तरह विदेशों के लिए सरकार के सहयोग से काम हो रहा है, उसके बारे में जानना तो बहुत दूर की बात है, सांसदों को यह क्यों नहीं पता कि हमारे देश के सारे प्रमुख लोगों के राज, उनकी जानकारियां, उनकी कमजोरियां यानी सब कुछ विदेशी खुफिया एजेंसियों के पास पहुंचाने का काम पिछली सरकार ने भी किया और यह सरकार भी कर रही है? सांसदों को यह क्यों नहीं पता कि हमारे देश से जुड़ी एक-एक जानकारी हमारे पड़ोसी मुल्कों के पास पहुंच रही है और उसमें सरकार का सबसे बड़ा हाथ है? हमारे सांसद इतिहास में हुई अक्षम्य चूकों से कोई सबक नहीं लेते. उन्हें यह भी नहीं पता कि किस तरह हज़ारों लोगों की जानें इसी तरह के कामों की वजह से पहले जा चुकी हैं.
हम पिछले तीन सालों से आधार कार्ड को लेकर सरकार और देश को आगाह करते रहे हैं. इस चेतावनी का कोई अर्थ कांगे्रस सरकार ने नहीं समझा और न अब नरेंद्र मोदी की सरकार समझ रही है. हमारे देश का राज सूचना तंत्र के ज़रिये सबसे पहले चीन के पास पहुंचता है और आज की तारीख में चीन हमारा मित्र देश नहीं है. हमारे देश के संपूर्ण सूचना तंत्र के सर्वर चीन में हैं. हमारे देश में जितना भी इंफ्रास्ट्रक्चर सूचना तंत्र का लगा है, वह सारा चीन में बना है और हर एक में अगर कोई एक छोटा-सा जासूसी करने वाला सॉफ्टवेयर अपलोड हो जाए, तो जो बातचीत प्रधानमंत्री और सेना अध्यक्षों के बीच में हो रही है, वह बातचीत भी चीन के पास कंप्यूटर के ज़रिये पहुंच जाती है. दूसरी तरफ़ आधार कार्ड के ज़रिये इस देश के हर नागरिक की जानकारी अमेरिका के पास रोज पहुंच रही है और अमेरिका में बैठी हुई हिंदुस्तान को राजनीतिक रूप से कंट्रोल करने वाली इकाइयां उनका विश्लेषण कर रही हैं. दुर्भाग्य की बात है कि ये सारे काम भारत सरकार की राय से चल रहे हैं.
क्या इस संसद में एक भी ऐसा सांसद नहीं है, जो इस ख़तरे को भांप सकें? और, सुप्रीम कोर्ट इस स्थिति के ऊपर तभी अपनी नज़र डाल पाता है, जब यह सवाल उसके सामने लाया जाए. सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल है, इसलिए उसने पहली टिप्पणी इस आधार कार्ड के विरोध में कर दी है और इसे अनिवार्य न बनाए जाने के बारे में कहा है. लेकिन, भारत सरकार हर जगह आधार कार्ड को अनिवार्य बना रही है. क्या मौजूदा सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की प्रशासनिक आदेशों के ज़रिये अवमानना कर रही है? अब इसका फैसला तो सुप्रीम कोर्ट को करना है. पर हां, सरकार में ऐसे लोग बैठे हैं, जो देश के हित के ख़िलाफ़ सारी जानकारियां विदेशों को दे रहे हैं और वे जानकारियां पाकिस्तान व चीन जैसे देशों से ज़रूर शेयर हो रही होंगी, क्योंकि आजकल कंपनियां आंकड़े बेचती हैं. और, हमारे देश के हर नागरिक से संबंधित आंकड़े न केवल बाज़ार को नियंत्रण करने वाली कंपनियों के पास जा रहे हैं, ताकि वे आर्थिक रूप से हमें नियंत्रित कर सकें, बल्कि ये आंकड़े हमारे उन दुश्मनों के पास भी जा रहे हैं, जो हमारे यहां कार्रवाई करने की योजना बनाते हैं. इतना ही नहीं, ये आंकड़े उनके पास भी जा रहे हैं, जो देश में हिंदू-मुस्लिम दंगा कराना चाहते हैं. और, अब उन्हें हिंदुुस्तान में आकर कुछ नई खोज करने की ज़रूरत नहीं होगी. वे जहां हैं, वहीं बैठकर यह तय कर सकते हैं कि किस हिस्से को उन्हें अपना निशाना बनाना है.
भारत की महान संसद के महान सांसदो, आपके ऊपर इतिहास यह आरोप लगाएगा कि आपने इस देश को आर्थिक रूप से तो गुलाम बनवा ही दिया, बल्कि आपने इस देश के हर नागरिक की जानकारी विदेशों में आर्थिक कंपनियों और हमारे पड़ोसी देशों, जिनसे हमारे रिश्ते साफ़ नहीं हैं, को देकर एक तरह से देशद्रोह का काम किया है. मैं फिर आग्रह करता हूं लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों से कि वे इस महत्वपूर्ण निहितार्थ को समझें और संसद में यह सवाल उठाएं कि आख़िर ये सारी चीजें जारी रहने के पीछे ताकतें कौन-सी हैं और इसे फौरन रोकने की बात करें. अगर आप नहीं रोकते हैं, तो एक दिन ऐसा आएगा, जब कोई यह कहने में हिचकिचाएगा नहीं कि हमारी संसद देशद्रोही है.