पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव अब अपने अंतिम दौर में है. सभी संभावनाओं और अपेक्षाओं के मुताबिक नतीजे इस अर्थ में खंडित ही आनेवाले हैं कि किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिलने की संभावना नहीं है. अब लड़ाई का मैदान पूरा देश न रहकर राजधानी दिल्ली में ही रह जाएगा.
यह भी अपेक्षित है कि खंडित जनादेश की हालत में एक-एक सांसद का महत्व भी काफी अधिक होनेवाला है और कोई भी अहम गठबंधन सरकार बनाने के अपने दावे को पूरा करने के लिए कोई कसर नहीं रखेगा. सभी नज़रें रायसीना हिल्स पर लगी रहेंगी और अगर किसी एक गठबंधन को सरकार बनाने के लिए बुलाया गया तो उसको सदन नें बहुमत सिद्ध करने को कहा जाएगा, जैसा पहले भी होता आया है. आने वाला यह विश्वास प्रस्ताव हमें झामुमो रिश्वत कांड की याद दिलाता है, जब पी वी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे. उस वक्त यह स्थापित हुआ था कि सांसदों को खासी मात्रा में धन दिया गया, ताकि उनके वोट को सुरक्षित कर अल्पमत वाली सरकार को बचाया जा सके.
1991 में दसवीं लोकसभा के लिए आम चुनाव हुआ था. इसमें कांग्रेस (आई) सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी और पी वी नरसिंह राव के नेतृत्व में सरकार बनी थी. 26 जुलाई 1993 को लोकसभा में नरसिंह राव की अल्पमत सरकार के ख़िला़फअविश्वास प्रस्ताव लाया गया. अविश्वास प्रस्ताव को गिराने के लिए 14 सांसदों के समर्थन की दरकार थी. 28 जुलाई 1993 को अविश्वास प्रस्ताव गिर गया. अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 251 और विरोध में 265 सांसदों ने मत किया. झामुमो सांसदों सूरज मंडल, शिबू सोरेन, साइमन मरांडी और शैलेंद्र महतो के साथ ही जनता दल के रामलखन सिंह यादव, रोशन लाल, आनंदीचरण दास, अभय प्रताप सिंह और हाजी ग़ुलाम मोहम्मद और अजीत सिंह की पार्टी के एक गुट ने अविश्वास प्रस्ताव के ख़िला़फ मतदान किया था. अजीत सिंह उस समय मतदान के वक्त अनुपस्थित रहे थे.
उसी समय राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के रविंदर कुमार ने सीबीआई के पास एक फरवरी 1996 को शिकायत दर्ज कराई, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि जुलाई 1993 में एक आपराधिक षड्यंत्र किया गया था, जिसके तहत ऊपर उल्लिखित सांसदों ने रिश्वत लेकर अविश्वास प्रस्ताव के ख़िला़फमतदान किया था. इस शिकायत पर सीबीआई के विशेष न्यायाधीश ने रिश्वत देने और लेनेवालों के ख़िला़फ संज्ञान लिया. सीबीआई कोर्ट में जिन लोगों पर मामला दर्ज हुआ, वे दिल्ली हाईकोर्ट में राहत पाने के लिए गए. हाईकोर्ट ने याचिका ख़ारिज कर दी तो आरोपी सांसद सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. उनकी अपील पर पहले सुनवाई तीन सदस्यीय खंडपीठ ने की और फिर मामले को संवैधानिक खंडपीठ के हवाले कर दिया गया.
नरसिंह राव के साथ सभी अपीलकर्ताओं का मुख्य तर्क यह था कि संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत संसद सदस्यों के ख़िला़फ बगैर अनुमति के किसी भी कोर्ट में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है. साथ ही उन पर भ्रष्टाचार निरोधक एक्ट 1988 के तहत भी मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से यह फैसला दिया कि कथित तौर पर रिश्वत लेने वाले सांसदों पर संविधान के अनुच्छेद 105(2) के तहत न्यायिक कार्रवाई से छूट मिली हुई है. अविश्वास प्रस्ताव के तहत वोटिंग करने या भाषण देने के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है. हालांकि वैसे संसद सदस्यों-जिन्होंने पैसे लेकर मतदान के समय अनुपस्थित रहने का ़फैसला किया है-को यह छूट नहीं मिलती है. जहां तक रिश्वत देने वालों का सवाल है, सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि उनके ख़िला़फ सांसदों को पैसे देकर मतदान से अनुपस्थित रखवाने का मामला ज़रूर चलना चाहिए. वैसे, संसद रिश्वत देने और लेने वालों के ख़िला़फ विशेषाधिकार हनन और अवमानना का मामला चला सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि संविधान का अनुच्छेद 105 (1) संसद में बोलने का अधिकार देता है, जो यह बताता है कि यह स्वतंत्रता अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतंत्रता से अलग और वहां लागू बंदिशों से मुक्त है. यह व्यवस्था इस तथ्य को स्थापित करती है कि संसद सदस्यों को सभी तरह की बंदिशों से मुक्त रखा गया है, जहां तक बहस में अपने क्षेत्र को प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व देने का मामला है. कोई भी सदस्य संसद में दिए गए अपने वक्तव्य के लिए क़ानून की किसी अदालत या उसी तरह की ट्रिब्यूनल में जवाबदेह नहीं है. इसी तरह एक वोट को भी बोलने की स्वतंत्रता का ही विस्तार माना गया है, और उसे भी बोले गए शब्दों की तरह ही सुरक्षा प्राप्त है. यह सुरक्षा किसी भी न्यायिक प्रक्रिया से पूरी छूट देती है जिसका संबंध संसद में दिए गए मत या भाषण से है.
वैसे न्यायमूर्ति अग्रवाल और जस्टिस आनंद बहुमत से सहमत नहीं थे और असहमति वाले ़फैसले में उन्होंने माना कि कोई भी संसद सदस्य अनुच्छेद 105(2) या 105(3) के तहत वह छूट नहीं पाता कि उस पर किसी फौजदारी कोर्ट में रिश्वत लेने या देने (संसद मेें या किसी समिति में वोट देने के लिए) का मामला न चलाया जा सके. अनुच्छेद 105(2) का उद्देश्य एक-एक सांसदों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए है. यह स्वतंत्रता संसदीय प्रजातंत्र की सही कार्रवाई के लिए ज़रूरी है.
जस्टिस अग्रवाल और जस्टिस आनंद ने अपने ़फैसले में आगे यह भी कहा कि पिछले 100 सालों से ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के विधायक अपनी विधायक गतिविधियों में रिश्वत लेने या देने के लिए आरोपी बनाए जा सकते हैं और ब्रिटेन के अपवाद को छोड़ दें तो राष्ट्रमंडल के अधिकतर देश विधायिका के सदस्यों की रिश्वतखोरी को एक आपराधिक मामला ही मानते हैं. इस बात का कोई कारण नहीं दिखता कि भारत में विधायिका को क़ानून से यह छूट क्यों मिलनी चाहिए?
नरसिंह राव के मामले में दूसरा मसला जो सुप्रीम कोर्ट के सामने आया, वह यह था कि क्या संसद सदस्य सरकारी कर्मचारी हैं? सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि संविधान के प्रावधानों और जन-प्रतिनिधित्व कानून, 1951 के तहत यह माना गया है कि संसद की सदस्यता तब तक कार्यालयीय है, जब तक इसकी प्रकृति सार्वजनिक है और इस तरह के कार्यालय की वजह से ही कोई सदस्य सार्वजनिक प्रकृति के कार्यों को करने के लिए जवाबदेह और अधिकारी है. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 की प्रक्रिया के तहत संसद का कोई भी सदस्य एक सरकारी कर्मचारी ही है.
नरसिंह राव की सरकार पूरे कार्यकाल यानी पांच साल चली. इस तथ्य के बावजूद कि यह निस्संदेह सिद्ध हो चुका था कि वोट जुगाड़ने के लिए खासी मात्रा में धन का आदान-प्रदान हुआ था. सच पूछें तो, यह भारतीय लोकशाही का मजाक ही कहा जा सकता है, जहां सदन में वोट लेने के लिए पैसे दिए-लिए जाएं और इस तरह के काम को भी संसदीय विशेषाधिकारों के तहत सुरक्षा दी गई हो और किसी भी न्यायिक कार्रवाई से छूट मिली हो. वैसे, इस तरह के मामलों में संसद को अधिकार है कि वह उचित कार्रवाई कर सके.
वैसे, 2005 में जब एक टीवी चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन के तहत 11 सांसदों को पैसे लेते हुए परदे पर दिखाया था तो संसद ने इन 11 सांसदों -10 लोकसभा के और एक राज्यसभा का-को बहिष्कृत कर दिया था. इनका व्यवहार संसद सदस्यों के तौर पर अमर्यादित और अनैतिक माना गया था. संसद के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि 11 सदस्यों की सदस्यता ध्वनिमत के आधार पर ख़ारिज कर दी गई थी. स्टिंग ऑपरेशन के 11 दिनों बाद इनकी सदस्यता रद्द कर दी गई थी. राज्यसभा भी लोकसभा की आचार समिति के प्रस्ताव से सहमत दिखी और उसने भी पवन कुमार बंसल समिति की रिपोर्ट की अनुशंसा को लागू किया.
अपने निष्कासन के ख़िला़फ कुछ निष्कासित सांसद सुप्रीम कोर्ट चले गए. उन्होंने तर्क दिया कि उनकी बात ढंग से नहीं सुनी गई और दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को उनके ख़िला़फ इस तरह की कार्रवाई करने का कोई अधिकार नहीं है. इसके बावज़ूद सुप्रीम कोर्ट ने उन 11 सांसदों की सदस्यता रद्द किए जाने के ़फैसले को ही ठीक ठहराया. सांसदों की याचिका को ठुकराते हुए कोर्ट ने व्यवस्था दी कि संसद के दोनों सदनों की व्यवस्थागत प्रक्रिया किसी भी अवैधानिकता, अतार्किकता, असंवैधानिकता या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती है.
मुख्य न्यायधीश वाई के सब्बरवाल की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय खंडपीठ ने कहा कि संसद अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर न केवल सदन के अंदर की घटनाओं पर कार्रवाई कर सकती है, बल्कि वह उन सभी घटनाओं पर फैसला ले सकती है, जो किसी भी तरह संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाती हैं. कोर्ट ने यह भी बताया कि दोनों सदनों की सर्वदलीय समिति ने सभी सांसदों को बुलाकर उनकी राय इस मसले पर ली थी. न्यायमूर्ति सब्बरवाल ने अपने मुख्य ़फैसले में कहा कि अनुच्छेद 105 के तहत संसद की शक्तियों और विशेषाधिकार में ही सदस्यों के निष्कासन का अधिकार भी शामिल है.
संसद का अपने सदस्यों का सवाल पूछने के बदले पैसा लेने पर निष्कासित करने की घटना ने एक परंपरा स्थापित की है, जिसे हरेक मामले में दोहराए जाने की ज़रूरत है. ऐसे किसी भी मामले में, जहां सदस्य किसी तरह के अनैतिक व्यवहार मे लिप्त हैं और उनका आचरण सदन की गरिमा को गिराता है. सभी राजनीतिक दलों को अपने संकीर्ण हितों से ऊपर उठकर इस संदर्भ में एक स्तर पर व्यवहार करने की आवश्यकता है.
संसद की शक्तियों में है निष्कासन का अधिकार
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