मौजूदा भारतीय आर्थिक नीति को चंद पंक्तियों में समेटना हो, तो केवल इतना ही कह सकते हैं कि न कोई अर्थ है, न कोई नीति है, दरअसल यह सरकार की जनता के ख़िलाफ़ एक गंदी राजनीति है. अगर कोई इन पंक्तियों से असहमत है, तो उसे भारतीय संविधान के भाग चार में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत को पढ़ना चाहिए. आइए, जानते हैं कि कैसे पिछले 24 सालों के दौरान विभिन्न सरकारों की आर्थिक नीतियों ने भारतीय संविधान के विरुद्ध काम किया है और अभी भी कोई राजनीतिक दल इससे उलट कोई आर्थिक नीति पर बात तक नहीं कर रहा है.
हम भारत के लोगों से बना भारतीय संविधान स्पष्ट रूप से एक लोक कल्याणकारी राज्य की बात करता है. लोगों की बेहतरी के लिए हमारा संंविधान कुछ ऐसे सूत्र बताता है, जिनके इस्तेमाल से राज्य एक ऐसे लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करे, जहां हर एक आदमी को समान सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकार मिलें, समान विकास हो. लेकिन पिछले 24 सालों की आर्थिक नीतियों की ही देन है कि एक ओर गोदामों में अनाज सड़ता रहा और दूसरी तरफ़ कालाहांडी के ग़रीब आम की गुठली खाकर मरते रहे. यह हमारी आर्थिक नीति ही है, जिसकी वजह से भारत की हालत, हंगर इंडेक्स 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों से भी बदतर है. यह नव-विकास के लिए ज़रूरी मंत्र नव-उदारवाद की ही देन है कि अकेले 2012 में भारत के 15 लाख बच्चे (5 साल से कम उम्र के) अकाल मौत के शिकार हो गए. यह मनमोहन सिंह और एम एस अहलूवालिया की आर्थिक नीति ही है, जो यह मानती है कि 30 रुपये कमाने वाला आदमी ग़रीब नहीं है. इस सबसे अलग बेरोज़गारी, महंगाई, नक्सलवाद एवं प्राकृतिक संसाधनों की लूट आदि जैसी अनगिनत समस्याएं भी हैं. और, कहीं न कहीं इस सबकी जड़ में भी हमारी पिछले 24 सालों की आर्थिक नीति ही है.
पिछले 24 सालों से चली आ रही आर्थिक नीति भारत जैसे देश के लिए प्रभावी साबित नहीं हुई है. न ही यह आर्थिक नीति हमारे संविधान के लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को पूरा करा सकती है. ऐसे में आज ज़रूरत है एक ऐसी आर्थिक नीति की, जिसे भले ही आक्सफोर्ड या लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़े किसी अर्थशास्त्री ने न बनाया हो, लेकिन जो कम से कम हमारे संविधान के लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को पूरा कर पाने में सक्षम हो.
संविधान के मुताबिक, राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करेगा, जिसमें सबको सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय मिले. राज्य आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा. लोक कल्याणकारी राज्य के लिए आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले, जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संक्रेंद्रण न हो. पुरुष और स्त्री, सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो. लेेकिन, क्या सचमुच ऐसा है? क्या यह मौजूदा आर्थिक नीति की उस ट्रिकल डाउन थ्योरी (धन के ऊपर यानी अमीर की झोली से गिरकर नीचे यानी ग़रीबों तक पहुंचनेे) की देन नहीं है, जिसकी वजह से देश की कुल संपदा का आधा से भी अधिक हिस्सा देश के चंद कॉरपोरेट हाउसेज के पास है और दूसरी तरफ़ देश की सत्तर फ़ीसद आबादी रोजाना 20 रुपये की कमाई पर जिंदा है.
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के मुताबिक, समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो, जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो. लेकिन मौजूदा आर्थिक नीति के तहत विकास के नाम पर कॉरपोरेट हाउसेज को प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की छूट मिली हुई है. आदिवासी क्षेत्रों में बेहिसाब जल, जंगल, ज़मीन और खदानें मल्टीनेशनल कंपनियों को आवंटित कर दी जाती हैं. स्थानीय लोगों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल कर दिया जाता है. और यह सब होता है विकास के नाम पर. लेकिन किसका विकास और कितना विकास? बड़े बांधों के नाम पर मध्य प्रदेश से लेकर गुजरात तक लाखों लोग विस्थापित होने का दंश झेल रहे हैं. लोगों की ज़मीनें छीनी जा रही हैं. सवाल है कि आख़िर उस आर्थिक नीति का क्या फ़ायदा, जिसकी वजह से इस देश की जनता को अकेले कोल ब्लाक आवंटन से ही लाखों करोड़ों रुपये का नुकसान हो जाए.
संविधान, सरकार और लोक कल्याणकारी राज्य
- राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था करे, जिसमें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे.
- राज्य आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा.
- पुरुष और स्त्री, सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो.
- समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो, जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो.
- आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले, जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संक्रेंद्रण न हो.
- पुरुष एवं स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोज़गारों में न जाना पड़े, जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों.
- राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए क़दम उठाएगा.
- राज्य उपयुक्त विधान या आर्थिक संगठन द्वारा या किसी अन्य रीति से कृषि, उद्योग या अन्य प्रकार के सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मज़दूरी, शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का संपूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा. और, विशिष्टतया ग्रामों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेगा.
- राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापनों या अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से क़दम उठाएगा.
- राज्य जनता के दुर्बल वर्गों, विशिष्टतया अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा.
हमारा संविधान कहता है कि राज्य उपयुक्त विधान या आर्थिक संगठन द्वारा या किसी अन्य रीति से कृषि, उद्योग या अन्य प्रकार के सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मज़दूरी, शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का संपूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा. लेकिन क्या संविधान की इस बात का पिछले 24 सालों में किसी भी सरकार ने पालन किया? देश की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी लगातार गिरती गई. हां, नए-नए उद्योग ज़रूर स्थापित हुए. लेकिन क्या इन उद्योगों में मज़दूरों को उनका वाजिब हक़ तक मिला? मज़दूरों के शिष्ट जीवन स्तर की तो बात ही छोड़िए, क्यों आज भी मज़दूर अपनी न्यूनतम मज़दूरी के लिए भी संघर्ष करते हैं? क्यों मज़दूरों को रोज़गार की सुरक्षा तक नहीं है? आज निजी संस्थानों में काम करने वाले लोगों से उनके काम की दशा और अवकाश के बारे में पूछिए, आपको जवाब मिल जाएगा.
संंविधान के मुताबिक, राज्य दुर्बल वर्गों, विशेष तौर पर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों का ख्याल रखेगा. सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा. लेकिन आरक्षण के अलावा क्या किसी भी सरकार ने इस वर्ग के विकास के लिए किसी विशेष आर्थिक नीति की घोषणा की? सरकार ने मनरेगा जैसे कार्यक्रम चलाए, जो ग्रामीण रोज़गार सृजन के साथ-साथ भ्रष्टाचार सृजन का काम भी करने लगा. किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर सरकारें यह दिखाने की कोशिश करती रहीं कि उन्हें किसानों की फिक्र है. लेकिन क्या इसका फ़ायदा कभी उन करोड़ों किसानों को मिला, जिनके पास उतनी ही जमीन है, जिस पर वे मुश्किल से दो वक्त की रोटी के लिए अनाज उगा पाते हैं?
बहरहाल, सवाल है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस लोक कल्याणकारी राज्य की बात की, क्या उसका पालन पिछले 24 सालों में किसी भी सरकार या राजनीतिक दल ने किया? 1991 में जब नरसिंहराव सरकार के वित्तमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण यानी नई आर्थिक नीति की शुरुआत की, तो कहा गया कि अगले बीस सालों में यह देश खुशहाल बन जाएगा. पिछले दस सालों से वही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं, उदारीकरण के बाद नव-उदारीकरण का दौर आ गया, लेकिन नतीजा क्या निकला? 1996 से 1998 के बीच पी चिदंबरम वित्तमंत्री रहे, उन्होंने भी मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को ही आगे बढ़ाने का काम किया. भाजपा की सरकार आई, तो उसने बाक़ायदा विनिवेश मंत्रालय बनाकर सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने का काम किया यानी भाजपा ने भी वही रास्ता चुना, जो मनमोहन सिंह ने बनाया था.
जाहिर है, पिछले 24 सालों से चली आ रही आर्थिक नीति भारत जैसे देश के लिए प्रभावी साबित नहीं हुई है. न ही यह आर्थिक नीति हमारे संविधान के लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को पूरा करा सकती है. ऐसे में आज ज़रूरत है एक ऐसी आर्थिक नीति की, जिसे भले ही आक्सफोर्ड या लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़े किसी अर्थशास्त्री ने न बनाया हो, लेकिन जो कम से कम हमारे संविधान के लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को पूरा कर पाने में सक्षम हो.