आठ साल पहले जब से मोदी सरकार आयी है तब से सामान्य जनता को लेकर तरह तरह की बातें चल रही हैं । इसलिए कि नरेंद्र मोदी ने जिस तरह समाज के निचले वर्गों में जाकर अपनी पैठ और छवि बनाई है वह बहस के केंद्र में बराबर बनी हुई है । यह भी सत्य है कि इन सालों में अब जाकर कुछ ठोस बातें जनसामान्य पर या उसको लेकर होती दिखाई पड़ रही हैं । कारण यह है कि देश का विपक्ष खत्म सा होता दिखता है , जो खत्म तो नहीं ही होगा, पर ऐसा वातावरण बन गया है । पत्रकार और प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोग खुद में सिमटे से बहस करते हुए नजर आते हैं । इसलिए अब सारी निगाहें देश की जनता पर आकर टिकी हैं । यह बहस कुछ वर्षों से चल पड़ी है कि जनता मूर्ख नहीं समझदार है । है भी कि नहीं या कितनी समझदार है । और इन्हीं बहसों के बीच अब यह बात उठ रही है कि जिस दिन जनता स्वयं उठ खड़ी हुई वह दिन इस सरकार का अंतिम दिन होगा । पर क्या ऐसा होगा । क्या जनता स्वयं से उठ खड़ी होगी । जनता में इतनी कूव्वत है ?
दरअसल कोई भी एक विचार दो- ढाई सौ सालों में एक बार पनपता है । और फिर उस विचार के अनुसरण से जिंदगी में आमूलचूल परिवर्तन होते हैं । उदाहरण अनेक हैं पर ठोस और नजदीक का उदाहरण कार्ल मार्क्स का आप ले सकते हैं । कार्ल मार्क्स की वैचारिक स्थापनाओं का आगे चल कर खंडन मंडन तो हुआ लेकिन उसको प्रस्थापित करते हुए उसी विचारधारा में किसी विचार की स्थापना नहीं हुई । कार्ल मार्क्स के बरक्स पूंजीवाद जरूर खड़ा हुआ लेकिन वह उसके समानांतर चलते हुए उससे भिड़ता ही रहा । तो एडम स्मिथ का विचार हो या कार्ल मार्क्स का । वे निकट के दो ढाई सालों में पनपे और उनका अनुसरण और उसके आधार पर विवाद और लड़ाईयां अभी तक चल रही हैं । सामान्य जनता को किसी विचार से उतना लेना देना नहीं, जितना उस पर बनी और बह रही धारा से । यह वाक्य बरसों से प्रसिद्ध है – ‘कोऊ होई नृप हमें का हानि’ । बाद की राजनीति और विशेषकर भारतीय राजनीति को यह ब्रह्म वाक्य की भांति लगता है । प. नेहरू और शास्त्री जी ने तो नहीं इंदिरा गांधी को यह खूब भाया । उसी दौर से जनता इस विश्वास के साथ जीने लगी – ‘हमें का हानि’ । दरअसल नेताओं ने यह विश्वास दिलाया कि हमारी सत्ता गांधी के सिद्धांतों पर आधारित है इसलिए सामान्य जनता का हित ही हमारा अंतिम उद्देश्य है । यह छलावा तब से जो शुरु हुआ आज तक विद्यमान है । समूची दुनिया में भारत की जनता सर्वथा निराली है । अलग अलग धर्म, जात बिरादरी, पूजा की अलग अलग पद्धतियां, अंधविश्वास , कुनबे, वर्ग, वर्ण और न जाने किन किन में बंटी भारत की जनता को एक साथ साध पाना यकीनन हर किसी के लिए टेढ़ी खीर ही साबित हुआ । इसलिए इन बहसों के कोई मायने नहीं कि जनता कितनी समझदार है या है ही नहीं । हर व्यक्ति की बुद्धि अपने संस्कार और परिवेश में तार्किक होती है । लिहाजा हर व्यक्ति अपनी बढ़ती उम्र के साथ स्वयं में समझ पैदा करता चलता है । लेकिन प्रश्न हमेशा उसकी वैचारिक क्षमता पर लगा करते हैं । क्योंकि जानवरों के साथ साथ इंसान को भी हांकने की परंपरा हमारे ही समाज में रही है । प्रायः माना जाता है कि एक ग्रामीण सबसे सीधा, नादान, भोला , गैर बनावटी, छल प्रपंच से दूर भावनाओं से बंधा हुआ अपने स्वाभिमान में मस्त होता है । वह अपनी समझ से तो जीवन व्यतीत करता है पर जब वैचारिक निर्णय लेने की बात आती है तब वह उसी व्यक्ति के पास पहुंचता है जिसे वह खुद से ज्यादा बुद्धिमान और विश्वास का पात्र समझता है । इस तरीके से वह उस व्यक्ति द्वारा समझाया या आज के संदर्भ में कहा जाए तो ‘हांका’ जाता है । चतुर राजनीतिज्ञों के लिए यह सबसे ज्यादा जरूरी होता है कि वे जनता के इस मनोविज्ञान को समझें । महात्मा गांधी चतुर थे लेकिन चालाक नहीं थे । हम कह सकते हैं कि उन्होंने जनता के इस मनोविज्ञान को भली भांति समझा । वे राजनीतिज्ञ नहीं थे । डा. लोहिया, जेपी जैसे लोगों ने जन आकांक्षाओं को सामने रख कर उनके सर्वप्रथम हितों पर ही अपनी राजनीति साधी । लेकिन इंदिरा गांधी से सारी लाइनें बदल गयीं । ऐसा क्यों हुआ क्या इंदिरा गांधी कपटी राजनेता थीं । नहीं , वे महत्वाकांक्षी थीं । और ऐसे नेता के लिए महत्वाकांक्षाएं बारीक तार पर चलने जैसी होती हैं । कब इन महत्वाकांक्षाओं की अति हो जाए । इंदिरा गांधी के साथ यही हुआ । ऐसे हाल में ये राजनेता जनता को कठपुतली समझा करते हैं । और भावुक जनता कठपुतली साबित होती भी है । इंदिरा गांधी का नारा देखिए जो विरोधी दलों के लिए उन्होंने जनता के सामने रखा – ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वे कहते हैं इंदिरा हटाओ’ इसके आगे वे कहती हैं अब आप ही तय करें। जनता यदि राजनीतिक रूप से समझदार या विचारवान होती तो इस नारे के भीतर छिपी इंदिरा की कुटिलता को समझती – पहचानती। यही भाषा ज्यादा नाटकीय अंदाज से नरेंद्र मोदी अपनाते हैं । यानी जनता का मूल स्वभाव इंदिरा से मोदी तक ऊपर से नीचे तक वैसा की वैसा ही है । यह तार्किक सत्य है कि जब तक एक एक सामान्य जन स्वयं से अच्छे बुरे का निर्णय लेने के लिए सक्षम नहीं होता तब तक सब कुछ यों ही चलता रहेगा ।
एक समय में हम प्रजा थे । बादशाह और राजा रजवाड़ों का समय बीता फिर भी जनता के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया । जीवन में बदलाव नहीं आएगा तो सोच समझ में कैसे बदलाव आएगा । हर समझदार ने अपने से कम समझदार पर हुक्म चलाया । यही सबल और निर्बल की कहानी सदियों से बनी हुई है । धर्म और अंधविश्वासों में बंधी जनता को तमाम कपटी साधु संत तब से आज तक छलते रहे । आसाराम के जितने अनुयायी होंगे उससे ज्यादा राम रहीम के होंगे। इन अनुयायीयों का मनोविज्ञान आसानी से कोई भी समझ सकता है । 2014 में नरेंद्र मोदी के जीतने के पीछे इन कपटियों का कम हाथ था क्या। ये जनता को हांकते हैं और जनता हाथ जोड़े सिर झुकाए वैसे ही खड़ी रहती है जैसे बादशाहों के समय में खड़ी होती थी । आज भी कहीं ठेकेदार के कहने से वोट दिये जाते हैं, कहीं मिल मालिकों और इसी तरह के लोगों के कहने से । भारत में फिलहाल लोकतंत्र इसी परपाटी का नाम है । पश्चिम में जनता अपने विवेक से काम करती है । कारण यह है कि वहां की जनता का केवल समृद्ध विकास ही नहीं हुआ बल्कि व्यक्तित्व और चरित्र के स्तर पर चौतरफा विकास हुआ है । वहां का गरीब भी हमारे अपर मिडिल क्लास जैसा जीवन जीता है । वहां के व्यक्ति में जितना सिविक सेंस है उतना ही ट्रैफिक सेंस और उतना ही जीवन के मूल्यों के प्रति वह सचेत हैं । फिर भी विचार की नजर से जब हम बात करें तो यह न भूलें कि मूल विचार वही दो ढाई सौ सालों में एक बार ही पनपता है । वही विकसित होता है और जो जनता बुद्धि और बल विवेक का ज्यादा प्रयोग करती है वह ज्यादा लाभान्वित होती है।
नरेंद्र मोदी ने जनता के दिमागों को ‘कैप्चर’ किया है। वे खुद की चमड़ी को बचाते हुए गांधी, लोहिया, जेपी का नाम लेते हुए भी उनको पीठ दिये खड़े हैं । लेकिन तब भी उनकी नाटकीयता और ढोंग पने का जादू जिस कदर जनता पर हावी है उसे देख कर आज भी आप भारत को सांप – सपेरों का देश मान सकते हैं । थोड़ा संशोधन करें तो कहिए कि शहरों की जनता वैसी नहीं, पर गांव तो अब भी उसी रंग में हैं । बल्कि ‘इंडिया’ की चकाचौंध उनके विवेक पर बार बार हमला करती है । तो हमारे आज के बुद्धिजीवी जो कहते हैं कि जिस दिन जनमानस जाग गया या उठ खड़ा हुआ उसी दिन क्रांति हो जाएगी। पर क्या यों ही ? यह सत्य है कि जनता महंगाई और दूसरी चीजों से हलाकान है । मोदी जानते थे कि यह दिन आ सकता है । आप देखिए कि मोदी की ‘कैलकुलेशन’ या आकलन कितना सटीक है फिर भी उनके पिटारे में कई ऐसे भावुक तीर होते हैं जिसे वे ब्रहास्त्र की तरह छोड़ते हैं । जैसे 2019 में उन्होंने पुलवामा को भुनाते हुए औरंगाबाद की सभा में अपने मंच को शहीद जवानों की तस्वीरों से पाट दिया । जनता के सामने प्रश्न था कि वह भावनाओं में बहे या विवेक का प्रयोग करे । भावुक जनता पर भावनाएं हावी हो गयीं । मोदी यह जानते थे । बहुत चिल्ला चिल्ली हुई पर मोदी की अंततः जीत हुई । यह जनमानस की बात है । जिस जनमानस को शनै शनै आज्ञाकारी बनाया जा रहा हो , वह अचानक क्रांतिकारी कैसे हो जाए । हां, कोई आंदोलन ऐसा उठे जिसमें जनता अपना बेहतर भविष्य देखे तो जनता प्रजा बन कर उस आंदोलन के पीछे हो जाएगी । यह तो निश्चित है । पर फिलहाल मोदी में जनता ‘रोबिनहुड’ की छवि देखती है । उसे यही घुट्टी पिलाई गई है तो कोई क्या करे । सुना है कांग्रेस कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा पर काम कर रही है और उसमें योगेन्द्र यादव जैसे अनेक लोग सहयोग कर रहे हैं । क्या मोदी इसे सफल होने देंगे । मान कर चलिए कि जनता में ‘परसेप्शन’ बहुत बड़ी चीज होती है । और जिंदगी भर लड़ाई हर जगह इसी ‘परसेप्शन’ की ही है । जनता की मूलभूत जरूरतों से किसी को लेना देना नहीं। मोदी को तो बिल्कुल नहीं । उन्हें तो उनके हितों से लेना देना है जो जनता का ही खून चूस कर समृद्ध होते हैं यानी ‘कारपोरेट’ । यह बात जनता स्वयं से जितनी समझी हो तो समझी हो वरना किसी विरोधी ने तो जनता के बीच जाकर समझाया नहीं । दरअसल देश आज भी आज की राजनीति को अस्सी नब्बे के दशक की राजनीति समझ रहा है । मोदी का मतलब कितने लोग जानते हैं । क्या आरएसएस भी जानता है ??

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