क्या असंसदीय शब्दकोश जनप्रतिनिधियों के बीच आपसी सौहार्द और शालीनता की इबारत को कायम रख सकेगा? खासकर तब कि जब आज के जमाने में ‘भाषाई अभद्रता’ को भी ‘बिकाऊ मटेरियल’ के तौर पर देखा जाने लगा है। और यह भी कि जब सार्वजनिक आचरण में भी कई बार भद्रता-अभद्रता की लक्ष्मण रेखा धुंधलाती दिखती है, तब जनता नुमाइंदे इससे कहां तक अछूते रह सकते हैं? इन तमाम सवालों के बावजूद इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए कि मप्र विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम की पहल पर सदन का पहला असंसदीय शब्दकोश तैयार हो चुका है। जल्द ही शुभाकांक्षा के साथ विधायको को बांटा जाएगा। बताया जाता है कि इस असंसदीय शब्दकोश में करीब तीन सौ वो शब्द शामिल हैं, जिनका सदन में प्रयोग प्रतिबंधित होगा। जिसमें ‘पप्पू’ और ‘फेंकू’ जैसे शब्द भी शामिल है। संसदीय कार्यवाही के दौरान ऐसे अमान्य शब्दो की विधायकों को बाकायदा ट्रेनिंग देकर जानकारी दी जाएगी। इसके पहले भारतीय संसद 2012 में ऐसा शब्दकोश ला चुकी है। भारत ही नहीं, दुनिया के हर लोकतांत्रिक देश में सदन के अंदर प्रतिबंधित शब्दों की एक निश्चित सूची होती है, जिसका पालन सदस्यों को करना होता है। भले वो शब्द सामान्य बोलचाल में प्रचलित हों। यह अलग बात है कि सदस्य इस अनुशासन का किस हद तक पालन करते हैं या फिर इसमें से भी पतली गली किस तरह निकाल लेते हैं।
कहते हैं कि शब्द कोई-सा भी बुरा नहीं होता, उसके प्रयोग के पीछे नीयत उसे अच्छा या बुरा सिद्ध करती है। संसदीय और असंसदीय शब्दों की यह विभाजन रेखा भी कुछ इसी तरह की है। वरना जिस ‘बेवकूफ’ शब्द का उपयोग आप दिन में दसियों बार करते हों, वही संसद की चारदीवारी में प्रतिबंधित श्रेणी में आ जाता है। सबसे मजेदार तो ‘झूठ’ शब्द है। संसद या विधानसभा में यह शब्द उच्चारित नहीं किया जा सकता। हमारे यहां इसकी जगह ‘असत्य’ मान्य है। जबकि दोनो का अर्थ एक ही है। ब्रिटेन में भी ‘हाउस आॅफ कामन्स’ में अंग्रेजी का ‘लाइंग’ (झूठ बोलना) शब्द का प्रयोग अस्वीकार्य है। इसका कोई वैकल्पिक शब्द चलेगा। यानी ‘झूठ’ शब्द का संसद में प्रयोग ‘पारिभाषिक अशुद्धता’ है। विधानसभा अध्यक्ष गौतम के अनुसार इस ताजा कवायद का मकसद यह है कि विधानसभा सदस्य सदन में बोलने से पहले ही इस बात से आगाह हों कि उन्हें कौन से शब्दों से परहेज करना है। ऐसा होगा तो अध्यक्ष को भी प्रतिबंधित शब्दों को सदस्य के भाषण से विलोपित करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
वैसे यह तय करना बड़ा कठिन है कि कौन से शब्द संसदीय और कौन से असंसदीय क्यों हैं? सामान्य बोलचाल और सार्वजनिक भाषणों में जिन शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल होता हो, वो सदन की सीमारेखा में अस्वीकार्य क्यों हो जाते हैं? क्या यह जीवन की यथार्थता को नकारना नहीं है? इसके पीछे कारण संभवत: यह है कि सदन में होने वाली बहस, हंगामा या तर्क प्रति तर्क मूल रूप में मानवीय गरिमा, सहिष्णुता और सामाजिक मर्यादा के दायरे में माने जाते हैं। लोकतंत्र के ये प्रमुख कारक हैं। ये कारक मनुष्य की गरिमा, परस्पर सम्मान और शालीनता के उदात्त आग्रह से उपजे हैं। संसद या विधानसभा इन्हीं लोकतांत्रिक आग्रहों का मंदिर है। ऐसे शब्द, जो इन आग्रहों को खंडित करें, सदन में अस्वीकार्य हैं। इस दृष्टि से विभिन्न लोकतांत्रिक देशों में ‘असंसदीय शब्दावली’ तय है। यह एक प्रकार से जनप्रतिनिधियों की शब्दाचार संहिता है।
भारतीय संसद ने नौ साल पहले संसद में प्रतिबंधित शब्दों और मुहावरो की एक पुस्तिका प्रकाशित की थी। जिसमें ‘अली बाबा और चालीस चोर’ जैसे मुहावरे और बदनाम,बदमाशी,ब्लैकमेल, गूंगे बहरे, घूस, कम्युनिस्ट, डकैत, डार्लिंग, गुंडा, डबल माइंड, रैकेटियर, चोर और अंगूठा छाप जैसे शब्द संसद में प्रतिबंधित हैं। मप्र विधानसभा की हैंडबुक में कुछ और शब्द इस सूची में जोड़े गए हैं, जिनमे मंदबुद्धि और बंटाढार जैसे शब्द शामिल हैं। यानी वो शब्द, जो राजनीतिक जुमलों के रूप में प्रस्थापित हैं, आम प्रचलन में हैं, पर सदन में अमान्य हैं। अकेला बेल्जियम ऐसा लोकतांत्रिक देश है, जिसकी संसद में सदन कुछ भी बोल सकते हैं। वहां इसे सदस्य का ‘लोकतांत्रिक अधिकार’ और ‘अभिव्यक्ति की संपूर्ण आजादी’ माना जाता है। ब्रिटिश संसद में भी कावर्ड (कायर), इडियट (मूर्ख), रेट (चूहा), ट्रेटर (धोखेबाज) जैसे शब्द बोलने पर रोक है। यहां तक कि डाॅडगी ( पैंतरेबाज) कहना भी असंसदीय है।
लेकिन सदन में बोले गए शब्द कितने संसदीय हैं और कितने असंसदीय, यह तय करने का अंतिम अधिकार आसंदी को होता है। कई बार सदस्य अपने मन की बात कहने और उसे कार्यवाही से विलोपित होने से बचाने के लिए कुछ ऐसी शैली में बात कहते हैं कि आसंदी भी चकरा जाती है। हालांकि ऐसा वही कर पाते हैं कि जिनके पास जबर्दस्त भाषा कौशल होता है। मप्र विधानसभा में सुंदरलाल पटवा ने बतौर मुख्यमंत्री उनके खिलाफ लाए गए आरोप पत्र की धज्जियां उड़ाते हुए कहा था ‘ इसकी भोंगली (पुंगी) बनाकर सुरक्षित स्थान पर रख दीजिए।‘ मर्यादित शब्दावली में उन्होंने विपक्ष को जमकर लताड़ा था। इसी तरह दिग्गज कांग्रेस नेता रहे स्व. सुभाष यादव ने बतौर मंत्री सदन में एक बार अपने हाथों का क्रास बनाकर इशारा ( आशय था कि हथकड़ी लगवा दूंगा) किया। इस पर विपक्षी सदस्य ने यह कहकर आपत्ति की कि उन्हें ‘धमकी’ दी जा रही है। यादव ने प्रतिप्रश्न किया कि मैंने क्या ‘धमकी’ दी? सदस्य ने कहा कि आपने इशारों में धमकाया। इस पर अध्यक्ष ने सवाल किया कि इस ‘इशारे’ को कार्यवाही में कैसे लिखा जाए ?
यहां सवाल उठता है कि संसदीय संभाषण की मर्यादाएं स्पष्ट होते हुए भी सदस्य ऐसी असंसदीय भाषा का इस्तेमाल क्यों करते हैं? इसके पीछे कौन सी मानसिकता और दुराग्रह हैं? यह जान बूझकर किया जाता है या ऐसी भाषा क्षणिक आवेश का परिणाम होती है? कभी कभी यह भी होता है कि आसंदी पर बैठकर जो व्यक्ति सदस्यों को शालीनता की नसीहत देता है, वही सदस्य के रूप में मर्यादा का उल्लंघन करने में संकोच नहीं करता। बहरहाल, मोटे तौर पर असंसदीय भाषा के ये कारण हो सकते हैं- विरोधी के अपमान की मंशा, विपक्ष को चिढ़ाने की कोशिश, आत्मसयंम खोना, अनावश्यक भाषाई दंबगई दिखाना, तीखा वैचारिक टकराव, अतिनाटकीय बनना आदि। लेकिन इससे भी बड़ा कारण भाषा पर अधिकार न होना और मीडिया की सुर्खी बनना भी हो सकता है। यानी जिनके पास अच्छे और प्रभावी शब्द न हों, वो ‘असंसदीय भाषा की लहर’ में आसानी से बह जाते हैं। उधर बाजार के दबाव के चलते मीडिया भी ऐसी असंसदीय भाषा बोलने वालों को ज्यादा हाइलाइट करता है।
वैसे असंसदीय शब्दावली और संसद में इनके प्रयोग पर प्रतिबंध को लेकर हमारे देश में अकादेमिक काम बहुत कम हुआ है। न्यूजीलैंड में शोधकर्ता ग्राहम और रूथ ने वहां की संसद की कार्यवाही में इस्तेमाल असंसदीय शब्दों का कालक्रमवार विश्लेषण किया है। इसमें 1928 से लेकर 1935 तक की संसदीय कार्यवाही को लिया गया। निष्कर्ष था कि 1928 के बाद जब से लेबर पार्टी के साथ गठबंधन सरकारें सत्ता में आईं, तब से सदन में अभद्र या असंसदीय शब्दों का प्रयोग ज्यादा होने लगा। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीति के स्तर में गिरावट सीधे संसदीय संभाषण में भी परिलक्षित होती है। जनप्रतिनिधि अपने व्यवहार व भाषण से संसद के बाहर और भीतर की दुनिया का फर्क और लक्ष्मण रेखाअों को मिटाने पर आमादा दिखते हैं।
यहां वाजिब सवाल हो सकता है कि जो शब्द सार्वजनिक प्रचलन में हैं और समाज मान्य हैं, वो संसद में प्रतिबंधित क्यों हैं या क्यों होने चाहिए? क्या यह हमारे वास्तविक आचरण और संसदीय आचरण की अवास्तविकता को प्रदर्शित नहीं करता? इसका ठीक ठीक उत्तर देना कठिन है। लेकिन संसदीय व्यवहार की परिभाषा मानवीय श्रेष्ठता और सकारात्मकता के आग्रह से उपजती है। यह बात अलग है कि आज हकीकत में भारत जैसे देशों में संसदीय व्यवहार का वो रूप भी देखते हैं, जो अमानवीय और असामाजिक होता है। ऐसे में संसदीय भाषा क्या है और असंसदीय भाषा क्या, यह तय करना वाकई कठिन है। इस उलझन को इटली के बीसवीं सदी के जाने माने समाजवादी राजनेता और प्रखर सांसद गियोकोमो मेत्तेअोती के शब्दों में आसानी से समझा जा सकता है। मेत्तेअोती ने कहा था- मुझसे कहा गया है कि मैं न तो विवेकपूर्ण ढंग से भाषण करूं और न ही अविवेकी ढंग से, मैं सांसदीय ढंग से अपनी बात रखूंगा।‘