देश के हर हिस्से का विकास होना चाहिए. प्रधानमंत्री खुद पूर्वोत्तर के विकास की बात कर रहे हैं. कश्मीर की तरह पूर्वोत्तर भी वंचित क्षेत्र रहा है. पूर्वोत्तर में क्या होता है, इससे दिल्ली या मुंबई के लोगों का कोई सरोकार नहीं होता. ऐसा मुझे लगता है. पूर्वोत्तर से कोई खबर तभी आती है, जब वहां किसी लाचार लड़की से दुर्व्यवहार हो जाता है. उसके बाद पूर्वोत्तर पर कुछ बड़े लेख छप जाते हैं. लेकिन, वास्तव में पूर्वोत्तर में क्या हो रहा है, क्या वहां के लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का मौक़ा मिल रहा है? ये सारी बातें सार्वजनिक बहस से अलग हो गई हैं. ऐसा क्यों है?
अभी देश में जो एक चिंताजनक प्रवृत्ति दिखाई दे रही है, वह है विकास के लिए, बुनियादी सुविधाओं के लिए, बुलेट ट्रेन के लिए, एअरपोर्ट और सड़क निर्माण के लिए अंधी दौड़ या कहें अंध प्रचार. दरअसल, ये सभी आवश्यक हैं, लेकिन हम अपने इस अंध प्रचार में एक राष्ट्र के रूप में अपनी संवेदनशीलता कहीं न कहीं खो रहे हैं. इसे स्पष्ट करने के लिए दो उदाहरण पर्याप्त हैं. पहला, 80 के दशक में हुए हाशिमपुरा नरसंहार पर आए अदलती फैसले में सभी आरोपी पुलिसकर्मियों को संदेह का लाभ देते हुए रिहा कर दिया गया. ठीक है! अदालत एक तकनीकी दृष्टिकोण अपना सकती है, यह एक क़ानूनी प्रक्रिया है, लेकिन हक़ीक़त फिर भी यह है कि लोगों की निर्मम हत्या की गई थी. उत्तर प्रदेश की पीएसी (प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी) इसके लिए ज़िम्मेदार थी. बाकी पुलिस बल को इसकी जानकारी थी. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इस मामले को मीडिया के साथ मिलकर उजागर किया था. लेकिन यह कितने शर्म का विषय है कि इतने लंबे विलंब के बाद भी ज़िंदा बच गए पीड़ितों को राहत नहीं मिली. कुछ तो अपनी प्राकृतिक मौत मर चुके हैं. लेकिन, जो ज़िंदा हैं, उन्हें यह घटना अंजाम देने वालों को सिर उठाकर शान से जाते हुए देखना पड़ रहा है.
दूसरी बात यह है कि पूरे देश में इस घटना को लेकर कोई हो-हल्ला नहीं हुआ, कोई पोस्टर नहीं दिखा, कोई आपत्ति नहीं दर्ज कराई गई और कोई हाशिमपुरा नहीं गया. 20-30 साल पहले राजनेताओं में (दबाववश) और आम जनता में जो संवेदनशीलता दिखाई देती थी, वह अब नहीं दिखती. यह सब कहीं खो गया लगता है. मुंबई में बैठकर हमें अ़खबारों से पता चलता है कि कहां फ्लाईओवर बनाया रहा है, पुल बन रहा है, विकास के किस काम में बदलाव हुआ है, लेकिन हमारे पास यह महसूस करने के लिए समय नहीं है कि हमारे साथी नागरिकों का क्या हाल है या उनके साथ क्या कुछ घटित हो रहा है. पहले पुलिस ने हाशिमपुरा के लोगों के साथ बुरा किया और क़ानूनी प्रक्रिया के बाद भी उनके हाथ कुछ नहीं लगा.
अब कश्मीर पर एक नज़र. पिछले साल कश्मीर में भयानक बाढ़ आई थी. श्रीनगर ने इस तरह की त्रासदी पहले कभी नहीं देखी थी. उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे. उन्होंने अपने स्तर पर ठीक काम किया. लोगों की जान बचाने की दिशा में सेना ने बेहतरीन काम किया. एक बार फिर कश्मीर में बाढ़ आई. समाचार-पत्रों की रिपोट्र्स के मुताबिक, इस बार त्रासदी टल गई. अब यह कोई मुद्दा नहीं है. बाढ़, सूखा या अन्य प्राकृतिक आपदा देश में कहीं भी आ सकती है और उससे निपटने के लिए देश में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण है. यह सब ठीक है, लेकिन राष्ट्र की संवेदनशीलता का क्या? पहले जब बिहार में भूकंप आता था या बाढ़ आती थी, तो उसके साथ सारा देश खड़ा हो जाता था. सारे देश से पैसा इकट्ठा किया जाता था. ऐसा नहीं है कि पैसा महत्वपूर्ण था, पैसे से ज़्यादा लोगों की भावनाएं महत्वपूर्ण थीं, जो दिखाती हैं कि हम आपके साथ हैं. मुंबई से इंडियन एक्सप्रेस या टाइम्स ऑफ इंडिया अपने पाठकों से पैसा इकट्ठा करना शुरू कर देते थे और मदद के लिए भेजते थे. लेकिन, कश्मीर के मामले में ऐसा नहीं दिखा. क्या कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है? क्या हम कश्मीर पर पाकिस्तान के उस मत को और मजबूत नहीं बना देते कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है? भारतीयों ने वहां के लोगों के प्रति अपनी संवेदनशीलता खो दी है और वे यह मानकर चल रहे हैं कि उन पर पैसा खर्च करना व्यर्थ है. एक राष्ट्र के तौर पर हम क्या हो गए हैं? हमारी आत्मा संवेदनहीन हो गई है. एक देश के लिए इससे अधिक दु:खद और क्या हो सकता है?
इस सबके साथ कोई देश कितना आगे बढ़ सकता है? हम चीन नहीं बन सकते, क्योंकि चीन में लोकतंत्र नहीं है. चीन में नेता प्रोजेक्ट बनाते हैं, वही यह ़फैसला करते हैं कि किस नदी को जोड़ना है, कहां बांध बनाना है, कहां पुल बनाना है. ये ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते. यह उनके विकास का तरीका है, हमारा तरीका अलग है. देश के हर हिस्से का विकास होना चाहिए. प्रधानमंत्री खुद पूर्वोत्तर के विकास की बात कर रहे हैं. कश्मीर की तरह पूर्वोत्तर भी वंचित क्षेत्र रहा है. पूर्वोत्तर में क्या होता है, इससे दिल्ली या मुंबई के लोगों का कोई सरोकार नहीं होता. ऐसा मुझे लगता है. पूर्वोत्तर से कोई ़खबर तभी आती है, जब वहां किसी लाचार लड़की से दुर्व्यवहार हो जाता है. उसके बाद पूर्वोत्तर पर कुछ बड़े लेख छप जाते हैं. लेकिन, वास्तव में पूर्वोत्तर में क्या हो रहा है, क्या वहां के लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का मौक़ा मिल रहा है? ये सारी बातें सार्वजनिक बहस से अलग हो गई हैं. ऐसा क्यों है?
मुझे लगता है कि सत्ता हो या मीडिया, उनमें संवेदनशीलता खत्म हो चुकी है. उनकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. वे अंधी दौड़ में शामिल होकर चमकते मल्टीप्लेसेज, फ्लाईओवर और सड़कें दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. वे उस चमक में मानो खो गए हैं. हर कोई यहां दिखाने में लगा हुआ है कि देखो, हमने कितनी जल्दी यह पुल बना लिया, कितनी दूरी कम कर दी है. नितिन गडकरी ने देश में ऐसे टोल नाके की खोज की, जहां बहुत ही कम ट्रैफिक है, वहां एक टोल गेट है. लेकिन, जहां पर बहुत ज़्यादा ट्रैफिक है, वहां पर टोल गेट ट्रैफिक को रोके रखता है. प्रगति की बात सही है, लेकिन कहीं पर हमें एक संतुलन बनाने की ज़रूरत है. भौतिक विकास के लिए मानवीय मूल्यों का त्याग नहीं किया जा सकता. अन्यथा, विकास के नाम पर हम ग़रीबों के साथ नाइंसाफी करते रहेंगे. ग़रीबों को इन सारे विकास का लाभ बमुश्किल मिल पाता है. उन्हें पहले रोटी-कपड़ा-मकान चाहिए. लेकिन, हम इसकी जगह कुछ और ही बातें कर रहे हैं. हमारी असंवेदनशीलता ग़रीबों के लिए घातक है. जितनी जल्दी हम यह सब समझ सकें, उतना ही बेहतर होगा.