अयोध्या पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद कई लोग इस सवाल पर बोल रहे हैं. न केवल बोल रहे हैं, बल्कि राजनीति को नए सिरे से मोड़ने की कोशिश भी कर रहे हैं. लेकिन देश की जनता, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं और हिंदू भी, इस सवाल से बहुत परेशान नहीं हैं. फैसला आने से पहले देश के, खासकर उत्तर भारत के मंदिरों में भजन-कीर्तन हुए, लोगों को संगठित करने की कोशिश हुई, पर आम आदमी इससे नहीं जुड़ा. दूसरी ओर मुस्लिम समाज ने कहा था कि अदालत का जो फैसला आएगा, वह स्वीकार्य होगा. अदालत से मतलब हाईकोर्ट भी है और सुप्रीमकोर्ट भी.
देश की जनता यही चाहती है, क्योंकि लड़ने के लिए बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, बीमारी, विकास, असमानता जैसे सवाल हैं. यही धर्म की कसौटी है, क्योंकि जो धर्म इंसान को, उसे मानने वालों को ज़िंदगी में आगे न बढ़ाए, वह धर्म इंसान के लिए नए दरवाजे नहीं खोलता. अब सरकार को आगे आना चाहिए और संविधान संशोधन का प्रस्ताव देश के सामने रखना चाहिए. मुसलमानों के बीच समझदार लोगों और देश की सिविल सोसाइटी को आगे बढ़ सालों पहले हुए एक्सीडेंट को भूल आगे बढ़ने के लिए देश की जनता को आवाज़ देनी चाहिए.
इसमें कोई दो राय नहीं कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला गले से नीचे नहीं उतरता. पहले यह मुक़दमा चला कि यह ज़मीन किसकी है, फिर उसमें विषय जुड़ते चले गए. ज़मीन के विवाद का मुक़दमा राम कहां जन्मे थे, इस पर आकर टिक गया. जजों की समझदारी को सलाम करना चाहिए कि उन्होंने बताया कि राम बाबरी मस्जिद के बीच वाले गुंबद के ठीक नीचे पैदा हुए थे. तीनों जज अगर यह भी बता देते कि तीनों रानियों के महल एक थे या अलग-अलग, वे एक कोठरी में रहती थीं या अलग-अलग कोठरियों में, राजा दशरथ का दरबार, उनका शयनकक्ष और उनका भोजनकक्ष कहां था. उनके दरबारी, उनके गुरु, उनकी सेना कहां रहती थी तो देश का बहुत भला होता. लेकिन जज साहबान ने यह सब नहीं बताया.
एक तथ्य और है. गोस्वामी तुलसीदास से पहले देश में वाल्मीकि रामायण चलती थी, जिसमें राम एक पात्र थे, आदर्श पात्र थे और उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता था. तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखकर उन्हें भगवान बना दिया. भाषा की वजह से गोस्वामी तुलसीदास जी की लिखी रामायण उत्तर भारत के घर-घर में लोकप्रिय हो गई और मर्यादा पुरुषोत्तम राम भगवान राम में बदल गए. गोस्वामी तुलसीदास अकबर के समय में थे और रामायण भी तभी लिखी गई थी. राम से जुड़ी आस्था जिसने उन्हें भगवान बनाया, इसी समय पैदा हई.
देश का कोई हिंदू संगठन वाल्मीकि रामायण की बात नहीं करता. इसका पहला कारण है कि महर्षि वाल्मीकि दलित महात्मा थे, जिन्हें भारतीय मनुवादी समाज ने कभी श्रेष्ठ रूप में स्वीकारा ही नहीं, दूसरे उन्होंने रामकथा को, जैसी थी वैसा लिखा. उस पूरी रामायण में राम की अच्छाइयां, उनकी कमज़ोरियां, उनकी रणनीति की बड़ाइयां और खामियां विस्तार से कही हैं. गोस्वामी तुलसीदास ब्राह्मण थे तथा उन्होंने राम के चरित्र को भगवान के रूप में इसलिए रखा, क्योंकि वे तत्कालीन शासन के ख़िला़फ आम लोगों का मनोबल बढ़ाना चाहते थे. रामायण लोगों के इकट्ठा होने, रावण के अत्याचारों पर बात करने का उन दिनों एक माध्यम बन गई थी. जिस कथा को महर्षि वाल्मीकि ने कहा, पर वह भी जन्म स्थान न लिख पाए, स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जब अयोध्या गए तो वह वहां किसी मंदिर में नहीं ठहरे, वह एक मस्जिद में ठहरे. लोगों का कहना है कि वह जगह बाबरी मस्जिद ही थी, जहां गोस्वामी तुलसीदास ठहरे थे. पर गोस्वामी जी के किसी ग्रंथ में राम कहां पैदा हुए थे, वर्णन नहीं मिलता. हमारे तीन महान जजों ने जब यह निर्णय दिया है तो ज़ाहिर है, हमें उनका सम्मान महर्षि वाल्मीकि और गोस्वामी तुलसीदास से ज़्यादा करना चाहिए.
पिछली छब्बीस नवंबर को अयोध्या में रसिक पीठाधीश्वर महंत जन्मेजय शरण ने सूफी जिलानी कत्ताल को अपनी पीठ पर बुलाया. यहां राम जानकी का बड़ा मंदिर है और यह क्षेत्र बड़ा स्थान कहलाता है. यहां काफी साधु-संत और सूफी इकट्ठे हुए. महंत जन्मेजय शरण और सूफी साहब को आगे कर सभी लोग उस स्थान की ओर गए, जहां का फैसला हाईकोर्ट ने किया है तथा जिस ज़मीन को तीन बराबर हिस्सों में बांटने की बात कही है. सारे बाज़ार ने उनका स्वागत किया. इन्होंने पहले विवादित और अब फैसले के बाद सारे स्थान को देखा और वहां उपस्थित लोगों से कहा कि मंदिर और मस्जिद बनते रहेंगे, पर अगर लोगों के दिल न बनें तो इनके बनने का मतलब क्या. दोनों ने कहा कि देश में रहने वालों का प्यार और उनका भाईचारा किसी भी मंदिर और मस्जिद जितना ही महत्वपूर्ण है.
अयोध्या में महंत जन्मेजय शरण के साथ सूफी जिलानी के जाने ने उन्हें घबड़ा दिया, जो इस सवाल का राजनीतिक फायदा उठाना चाहते हैं. विश्व हिंदू परिषद के लोगों का बयान आने लगा कि जिस दरवाजे से शंकराचार्य को नहीं जाने दिया गया, उससे ये दोनों कैसे गए. यह वही मानसिकता है, जिसने महर्षि वाल्मीकि को इस देश में सर्व स्वीकार्य नहीं होने दिया. ऐसे लोगों को सूफी का अयोध्या में फैसला दिए स्थान पर जाना अच्छा नहीं लगा, क्योंकि अगर ये कुछ सौ साल पहले यदि ज़िंदा होते तो इन्हें गोस्वामी तुलसीदास का मस्जिद में रहकर राम के दोहे रचना भी अच्छा नहीं लगता, ये बयान देते, आंदोलन करते.
पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने एक रास्ता दिखाया है, जिससे यह विवाद हमेशा के लिए ख़त्म हो सकता है. मेरी प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान मौलाना कल्बे रूशैद रिज़वी से बात हुई तथा सूफी जिलानी तथा महंत जन्मेजय शरण से भी बात हुई. सभी का मानना है कि यदि संसद संविधान संशोधन करे कि 15 अगस्त 1947 को देश के जिस धार्मिक स्थल की जो स्थिति थी, वही रहेगी या इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के दिन जिस धार्मिक स्थल की जो स्थिति थी, वही रहेगी और मुसलमान इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को जैसे का तैसा मान लें, तो इस समस्या का हमेशा के लिए निबटारा संभव है. लेकिन इससे वे स्थल अलग हैं जिन्हें सुप्रीमकोर्ट ने अवैध कहा है तथा जिन्हें हटाने के लिए विभिन्न राज्य सरकारों को आदेश दिया है.
देश की जनता यही चाहती है, क्योंकि लड़ने के लिए बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, बीमारी, विकास, असमानता जैसे सवाल हैं. यही धर्म की कसौटी है, क्योंकि जो धर्म इंसान को, उसे मानने वालों को ज़िंदगी में आगे न बढ़ाए, वह धर्म इंसान के लिए नए दरवाजे नहीं खोलता.
अब सरकार को आगे आना चाहिए और संविधान संशोधन का प्रस्ताव देश के सामने रखना चाहिए. मुसलमानों के बीच समझदार लोगों और देश की सिविल सोसाइटी को आगे बढ़ सालों पहले हुए एक्सीडेंट को भूल आगे बढ़ने के लिए देश की जनता को आवाज़ देनी चाहिए.