akhilesha-and-muilayamउत्तर प्रदेश की बिगड़ी क़ानून व्यवस्था कहीं समाजवादी सरकार के लिए अस्थिरता का कारण न बन जाए, यह चिंता समाजवादी थिंक टैंक को अंदर ही अंदर खोखला किए जा रही है. मात्र दो-सवा दो वर्षों में अखिलेश सरकार के ऊपर नाकामी का ऐसा ठप्पा लग गया है, जिसे मिटाना असंभव नहीं, तो मुश्किल ज़रूर है. महिलाओं के उत्पीड़न और बलात्कार जैसी तमाम घटनाओं से राज्य सरकार पहले से ही हिली हुई थी, इसी बीच चेकिंग करते पुलिस वालों को कार-जीप से कुचल कर मार देने की कोशिश, तीन भाजपा नेताओं की हत्या, फिरोजाबाद में दो पुलिस वालों को बदमाशों द्वारा घात लगाकर मौत के घाट उतार दिए जाने जैसी घटनाओं के चलते पानी सिर से ऊपर जाता दिख रहा है. केंद्र की भाजपा सरकार और उत्तर प्रदेश से चुनाव जीतकर मंत्री बने राजनाथ सिंह, उमा भारती एवं कलराज मिश्र द्वारा राज्य के हालत पर लगातार तल्ख टिप्पणियों के चलते राजनीतिक पारा चढ़ा हुआ है. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अब केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह कहते हैं कि गृह मंत्रालय उत्तर प्रदेश में क़ानून व्यवस्था की स्थिति से चिंतित है. हम वहां के हालात पर क़रीबी नज़र रखे हैं. प्रदेश सरकार के लिए यह समय कठिन परीक्षा का है, जिसमें उसे कुछ करके दिखाना होगा. सपा को अच्छी तरह पता है कि जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के अलावा अब उसकेे पास कोई विकल्प नहीं बचा है, क्योंकि केंद्र में कांगे्रस के पतन और भाजपा के उभार के साथ ही पूरे देश के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिवाद का दौर हाशिये पर पहुंच गया है, जिसकी बुनियाद पर सपा-बसपा जैसे क्षेत्रीय दल कई बार सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाब हो चुके हैं.
पूरे प्रदेश में क़ानून व्यवस्था को लेकर हाहाकार मचा हुआ है. कई ज़िलों की जनता बगावती तेवर अपनाए हुए है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मीडिया को सफाई देते-देते थक गए, तो उन्होंने अब इस मसले पर बात करना ही छोड़ दिया है. वहीं समाजवादी पाटी के वरिष्ठ नेता एवं राज्यसभा सदस्य नरेश अग्रवाल प्रदेश के बिगड़े हालात पर चिंता जताने की बजाय मीडिया की विश्‍वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं. उनका यह कहना कि उत्तर प्रदेश से अधिक अपराध मध्य प्रदेश, दिल्ली एवं गुजरात में हो रहे हैं, लेकिन वहां की घटनाओं को नहीं उछाला जा रहा है, उनकी मानसिकता को दर्शाता है. वह अपने दामन के दाग दूसरों की छींटों से धोना चाहते हैं. लेकिन, नरेश अग्रवाल या उनके जैसे अन्य बड़े नेताओं के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि सपा सरकार जातिवाद की राजनीति से उबर क्यों नहीं पा रही है. उत्तर प्रदेश में 1560 थाने हैं, जिनमें से आधे से अधिक थानों की कमान यादवों के पास है. पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के सहारे सरकार क़ानून व्यवस्था सुधारना चाहती है, लेकिन किसी भी अधिकारी को कहीं एक जगह टिक कर काम करने का मौक़ा नहीं दिया जाता है. अखिलेश ने अपने क़रीब दो वर्ष के शासनकाल में तबादलों का रिकॉर्ड बना लिया है. शायद ही कोई पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी होगा, जो साल-छह महीने कहीं टिक पाया हो. सपा के सवा दो साल के शासनकाल में आईएएस, पीसीएस एवं पीपीएस संवर्ग के क़रीब 2900 अधिकारी इधर से उधर किए जा चुके हैं. प्रति माह औसतन 110 अधिकारियों को तबादले की मार झेलनी पड़ी.
तमाम आश्‍वासनों, तबादलों, कठोर आदेशों-निर्देशों के बावजूद उत्तर प्रदेश में क़ानून व्यवस्था की स्थिति सुधरने की बजाय लगातार बिगड़ती जा रही है. इसका प्रमाण है, फिरोजाबाद में दो पुलिस कर्मियों की हत्या. यह घटना अपराधियों के दुस्साहस को उजागर करती है. सबसे आश्‍चर्यजनक बात यह है कि पुलिस कर्मियों की हत्या के बाद उनके परिवारीजनों ने इसके लिए पुलिस अधिकारियों को ही ज़िम्मेदार ठहराया है. इस आरोप में कितनी सत्यता है, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन जिन पर आरोप लगाए गए थे, उन्हें निलंबित किया जाना दर्शाता है कि आरोप पूरी तरह बेबुनियाद नहीं हैं. राज्य की क़ानून व्यवस्था सवालों के घेरे में है. बावजूद इसके राज्य सरकार क़ानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति स्वीकार करने की बजाय विरोधी दलों और मीडिया पर निशाना साधने में लगी हुई है. वह अपना रवैया बदलने के लिए तैयार नहीं है. समाजवादी पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव बयान दे रहे हैं कि उत्तर प्रदेश की घटनाओं पर मीडिया की दिलचस्पी केंद्र सरकार की सुनियोजित साजिश का हिस्सा है. सपा नेताओं का तर्क है कि अगर अन्य राज्यों के आपराधिक आंकड़े देखे जाएं, तो उत्तर प्रदेश तीसरे-चौथे नंबर पर आता है. सपा को समझना चाहिए कि ऐसे तर्क देकर सच्चाई पर पर्दा नहीं डाला जा सकता. जनता सब समझती है. अगर ऐसा न होता, तो लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना न करना पड़ता.
उत्तर प्रदेश सरकार चाहे जो दावा करे, लेकिन सच्चाई यही है कि राज्य में एक तरफ़ अपराध के मामले बढ़ते जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ पुलिस के ऊपर आरोप भी लग रहे हैं कि वह रिपोर्ट लिखने के मामले में काफी कंजूसी बरतती है. थानों में रिपोर्ट दर्ज कराना टेढ़ी खीर है. भुक्तभोगी खाकी वर्दी के पास जाने तक से डरता है, रिपोर्ट दर्ज कराने की बात तो दूर रही. दु:ख की बात यह भी है कि अधिकांश घटनाओं में क़ाूनन व्यवस्था को चुनौती सपा नेताओं, कार्यकर्ताओं एवं उनके समर्थकों से ही मिल रही है. अतीत में इस सच्चाई को खुद सपा के बड़े नेता भी स्वीकार कर चुके हैं. कोई नहीं जानता कि अखिलेश सरकार ऐसे तत्वों के ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई करने में सक्षम क्यों नहीं है? इस संदर्भ में भाजपा के एक बड़े नेता की टिप्पणी उजागर करना ज़रूरी है, जिनका कहना है कि अगर समाजवादी पार्टी से गुंडे निकाल दिए जाएंगे, तो फिर पार्टी ही नहीं बचेगी.

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