संसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया. इस बार मोदीगेट के साथ वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान बहाना बने. बहरहाल, इससे पहले जो सत्र हंगामे के भेंट चढ़े थे, उनके कुछ और कारण थे. संसद स्वायत्त ज़रूर है, लेकिन उस पर आम लोगों की सेवा की ज़िम्मेदारी भी है. अगर व्यापारी वर्ग संसद में कामकाज ठप होने की वजह से चिंतित है, तो उसकी चिंताओं पर विचार किया जाना चाहिए.
व्यापार में उन्नति के साथ ही नौकरी और रोज़गार के अवसरों को सुरक्षित किया जा सकता है. सांसदों के असंसदीय व्यवहार के कारण अगर चीज़ें आगे नहीं बढ़ती हैं, तो उसका खामियाज़ा सांसदों के बजाय आम लोगों को भुगतना पड़ता है. अब सबसे ख़राब परिस्थिति की कल्पना करते हैं. मान लीजिए कि जब तक भाजपा (एनडीए) को दोनों सदनों में बहुमत नहीं मिल जाता है, तब तक सदन नहीं चलने दिया जाता है, क्योंकि दोनों सदनों के चुनाव एक साथ नहीं होते और दोनों सदनों के सदस्यों की कार्यावधि भी अलग-अलग है.
लिहाज़ा सरकार को दोनों सदनों में बहुमत के लिए वर्ष 2019 तक इंतज़ार करना पड़ेगा. इस दौरान सरकार को यह रणनीति बनानी चाहिए कि कोई महत्वपूर्ण क़ानून बनाए बगैर कैसे शासन चलाया जाए. यह कोई बहुत चिंता की बात नहीं है, क्योंकि हमें लोकपाल और तेलंगाना बिल पारित करने के लिए संसद के कई सत्रों तक इंतज़ार करना पड़ा था. दूसरे शब्दों में, देश एक अप्रभावी संसद (लगभग जवाहर लाल नेहरू के बाद) झेल लेने में सक्षम था.
इंदिरा गांधी ने खुद के सिवाय किसी को कोई तवज्जों नहीं दी. राजीव गांधी को भारी बहुमत हासिल था, इसलिए संसद उनके लिए भी अप्रासंगिक थी. राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस और रचनात्मक विधि निर्माण के एक मंच के तौर पर संसद में नेहरू दौर की स्वस्थ परंपरा का वापस आना अब नामुमकिन लगता है.
भारत में कार्यपालिका बहुत शक्तिशाली है. एक निर्णायक प्रधानमंत्री और एक कारगर नौकरशाही की मदद से सुशासन के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है. यह बैंकिंग, बीमा और सब्सिडी जैसी कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में दिखने भी लगा है. डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रम शुरू किए जा चुके हैं. रक्षा क्षेत्र में एफडीआई की रुकावटें हटाई जा चुकी हैं. व्यापार में आसानी और नागरिकों को कागज़ी कार्यवाही की उलझन से मुक्ति दिलाना बाकी है.
सरकारी काम को और बेहतर बनाने के क़ानून का कार्यान्वयन किया जाना है. जीएसटी बिल और भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में संशोधन पारित न करने के मौजूदा ऩुकसान से यह ज़ाहिर होता है कि सभी पारित विधेयक अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी नहीं होते. याद कीजिए, वर्ष 1998 और 2009 के दरम्यान बिना जीएसटी और भूमि अधिग्रहण बिल के भी अर्थव्यवस्था में 8.5 प्रतिशत का विकास दर्ज किया गया था.
बहरहाल, अगर ये बिल पास हो जाते हैं, तो अवश्य मददगार साबित होंगे और अगर कांग्रेस सहयोग नहीं भी करती है, तो भी सरकार अच्छा प्रदर्शन कर सकती है. इसके लिए जितना कम हो सके, उतने क़ानून बनाने की रणनीति बनानी चाहिए, ताकि दो बजट (रेल और आम) के अलावा कोई बिल सदन में रखा ही न जाए. फ़िलहाल अर्थव्यवस्था सात प्रतिशत की दर से विकास कर रही है और महंगाई दर में भी गिरावट दर्ज की जा रही है. मौजूदा निवेश से अधिक से अधिक लाभ हासिल करने की गुंजाइश है.
यूपीए-2 ने मौजूदा सरकार के लिए कई परियोजनाएं छोड़ी हैं. बैंकों की अनर्जक परिसंपत्तियों का बोझ है. प्रधानमंत्री एक प्राइवेटाइजर नहीं हैं. वह चाहते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम बेहतर प्रदर्शन करें. यह भी एक प्रशासनिक कार्य है, जिसमें क़ानून बनाने की ज़रूरत नहीं है. गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को विधायिका की अधिक ज़रूरत नहीं थी. इस लिहाज़ से देखा जाए, तो राज्यों में मुख्यमंत्री राष्ट्रपति की तरह काम करते हैं.
कांग्रेस ने उन्हें एक सुनहरा मौक़ा दे दिया है कि संसद के बिना ही शासन चलाया जाए. केवल संसद का सत्र बुलाना और प्रतिदिन स्थगित करना बहुत आसान है तथा इससे विपक्ष भी उपकृत महसूस करेगा. सरकार अपना काम करती रहेगी और दोनों सदन निष्क्रिय रहेंगे. अभी सरकार के पास चार साल बचे हैं. देश में बदलाव लाने के लिए यह समय पर्याप्त है.प