पालिका चुनावों ने भी वाममोर्चे को दिखाया रेड सिगनल
देश के दूसरे राज्यों की तरह इस साल पश्चिम बंगाल में भी पानी भरी मानसूनी हवाओं ने इंतज़ार करवाया. थोड़ी बेइमानी भी की. उत्तर बंगाल में सूखे जैसा सीन था तो दक्षिण बंगाल में आइला की तबाही. इतना पानी कि लोगों तक राहत पहुंचाने को लेकर केंद्र से राज्य तक अच्छी-खासी राजनीति भी हो गई. पर बंगाल में एक हवा जो सालों से उत्तर से दक्षिण तक एक ही रफ़्तार से बह रही है, वह है बदलाव की हवा. इस हवा ने वामपंथियों को बेचैन कर दिया है तो ममता बनर्जी को सपने जैसी दिखती आ रही मुख्यमंत्री की कुर्सी को स़िर्फ दो हाथ दूर ला खड़ा किया है. और अगर यह हवा इसी तरह और डेढ़ दो साल बहे, तो बंगाल में 34 साल बाद विपक्षी खेमे में बसंत आएगा.
पहले पंचायत चुनाव, लोकसभा और इस बार नगरपालिका और नगर निगम चुनाव. 1 जुलाई को राज्य के 10 जिलों की 16 पालिका व नगर निगम चुनावों के परिणामों से भी इस हवा के नब्ज़ का पता चला. 16 में से 13 पर तृणमूल और कांग्रेस का क़ब्ज़ा हो गया. वाममोर्चा को स़िर्फ 3 पर जीत हासिल हुई. 1989 में गठन के बाद से ही त्रिस्तरीय सिलीगुड़ी महकुमा परिषद पर वाममोर्चा का क़ब्ज़ा था, पर वहां की कुल सात सीटों में से तीन सीटें जीतकर कांग्रेस ने ज़बर्दस्त झटका दिया. 2004 के चुनावों में इन 16 पालिकाओं में से वाममोर्चे ने 10 पर जीत का झंडा गाड़ा था. कांग्रेस ने चार और तृणमूल के खाते में एक एकरा नगरपालिका थी. अब तक लाल दुर्ग रहा बर्दवान जिले ने भी खासकर माकपा का साथ छोड़ दिया. 50 सदस्यीय आसनसोल नगर निगम के चुनाव में तृणमूल को 18 और कांग्रेस को 11 सीटें मिलीं, जबकि वाममोर्चा को केवल 20 का सांत्वना पुरस्कार मिला. 2004 में इस निगम की 39 सीटें वामदलों की झोली में थीं. आसनसोल के क़रीब कुल्टी नगरपालिका और हाल में बनी डानकुनी नगरपालिका पर भी तृणमूल का क़ब्ज़ा हो गया. माकपा के मज़बूत संगठन का र्कोंी ढोल पीटा जाता है, पर कोलकाता से सटे दमदम और दक्षिण दमदम नगरपालिकाओं के हाथ से जाने से मज़बूती की भी पोल भी खुल गई है. 40 साल बाद इन पर विपक्ष का क़ब्ज़ा हुआ है. दमदम में वामदलों को 9 और तृणमूल को 13 सीटें मिलीं, जबकि यहां पर कभी खाता न खोलनेवाली कांग्रेस ने पांच सीटें जीत ली हैं. दक्षिण दमदम में पिछली बार 33 सीटें जीतने वाले वाममोर्चे को केवल 11 सीटों से संतोष करना पड़ा है, जबकि एक सीट वाली तृणमूल ने 18 सीटें जीतकर बोर्ड पर क़ब्ज़ा कर लिया है.
पिछले आम चुनावों में वाममोर्चे को 43.3 प्रतिशत वोट मिले, जो 2004 की तुलना में 7.42 प्रतिशत कम थे. इसमें माकपा को अगर अलग किया जाए तो उसे 5.5 प्रतिशत का नुक़सान हुआ है. 2004 में उसे 33 प्रतिशत मत मिले थे. माकपा के अपने आकलन के मुताबिक वाममोर्चा विधानसभा की 294 सीटों में 195 पर पिछड़ गया था, जबकि 2006 के विधानसभा चुनावों में उसने 235 सीटें जीती थीं. 2006 के विधानसभा चुनावों की तुलना में भी वाममोर्चे को 6.88 प्रतिशत कम वोट मिले हैं. इसी तरह राज्य में तृणमूल और एसयूसीआई गंठबंधन ने 45.67 प्रतिशत और भाजपा ने 6.14 प्रतिशत वोट हासिल कर ख़तरे की घंटी बजा दी है. लोकसभा चुनावों के परिणामों ने बताया है कि तृणमूल-कांग्रेस गंठजोड़ ने कुल 294 विधानसभा क्षेत्रों में से 182 पर बढ़त हासिल की. ग़ौर करने की बात है कि जिन 99 सीटों पर वाममोर्चे को बढ़त हासिल हुई है, उनमें से मात्र 41 पर ही उसे 50 प्रतिशत से ज़्यादा वोट मिले.
विपक्ष की यह कामयाबी एक और अर्थ में अहम है. नगरपालिका चुनावों के लिए इस बार कांग्रेस और तृणमूल के बीच औपचारिक समझौता नहीं हुआ था, अगर लोकसभा चुनावों की रणनीति अपनाई गई होती तो विपक्षी खेमे को उत्तर बंगाल की माल नगरपालिका भी हासिल हो सकती थी. दरअसल, ममता कांग्रेस को केवल उत्तरबंगाल और मध्य बंगाल के उसे प्रभाव वाले क्षेत्रों तक ही सीमित रखना चाहती हैं. कुछ ऐसा ही इरादा कांग्रेस का भी है. पिछली बार लाख नाक रगड़ने के बावजूद ममता ने कांग्रेस को दक्षिण बंगाल की एक भी सीट नहीं दी. इसे लेकर दोनों दलों के बीच कुछ समय तक गतिरोध भी बना रहा. सांप्रदायिक ताक़तों को दूर रखने के लिए कांग्रेस मजबूरन वामदलों का सहयोग लेती रही है, जबकि ममता इसके सख्त ख़िला़फ हैं. यही वजह है कि गंठबंधन भी वे अपनी शर्तों पर करती हैं. वैसे इस बार भी तहे दिल से दोनों दल मिले होते तो कम से कम एक और मान नगरपालिका इनके खाते में आ सकती थी और वामदलों को 16 में से केवल दो पर संतोष करना पड़ता.
परिणामों पर सत्ताधारी दल के नेताओं के रोचक बयान आए हैं. माकपा के राज्य सचिव विमान बोस ने माना है कि लोकसभा चुनावों के समय का वोटिंग पैटर्न नहीं बदला है, पर वे अपने एक बयान को भूल गए. हार की झेंप मिटाने के लिए उन्होंने कहा था कि लोगों ने केंद्र में एक स्थिर सरकार के लिए वोट डाला है, क्योंकि माकपा की अगुवाईवाले तीसरे मोर्चे और भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति पर उसका भरोसा नहीं था. अब उनसे कौन पूछे कि क्या पालिका चुनावों में भी वही राष्ट्रीय मुद्दे काम कर रहे थे? वैसे, वाम नेता चेहरे पर घबराहट के लक्षण नहीं आने दे रहे. उनमें गजब की र्सोंगोई भी दिख रही है. जैसा कि राज्य के परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने कहा कि हमें झटका लगा है, पर इससे उबरने में समय लगेगा, क्योंकि लोग अगर आपको नहीं चाहते तो आप कैसे सत्ता में रहेंगे? हालांकि उन्होंने उम्मीद ज़ाहिर की कि 2001 के विधानसभा चुनावों तक इस बदलाव की हवा का रुख़ बदल देंगे. अगले साल कोलकाता नगर निगम के चुनावों से भी उनके दावे की हक़ीक़त की एक झलक देखने को मिल सकती है. 2005 के चुनावों में माकपा ने कोलकाता की कुर्सी तृणमूल से छीन ली थी. उस समय कहा जाता था कि तृणमूल का प्रभाव केवल कोलकाता तक ही सीमित है और ममता बनर्जी स़िर्फ कोलकाता की नेता हैं, पूरे बंगाल की नहीं. ज़ाहिर है सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलनों का ही असर है कि कमज़ोर संगठन के बावजूद उन्हें पूरे राज्य में शानदार कामयाबी मिल रही है. ममता के सामने इस बढ़त को बरकरार रखने की चुनौती है. वैसे रेल बजट में बंगाल के लिए ढेर सारी घोषणाएं कर ममता ने अपना इरादा जता दिया है. वे दिल्ली से ज़्यादा समय कोलकाता में बिता रही हैं. अपने मंत्रियों को भी उन्होंने ऐसा ही आदेश दिया है.
इधर, वाम खेमे की गांवों में घटते जनाधार को रोकने की कोशिशें नार्कोंी साबित हो रही हैं. कभी भूमि सुधारों के ज़रिए कृषि क्रांति लाने का दावा करने वाले कॉमरेडों के राज में किसानों को कालाबाज़ार से खाद ख़रीदनी पड़ रही है. खाद तस्करी के ज़रिए बांग्लादेश चला जा रहा है और सीमा पर बीएसर्ऐं इसे रोकने में कामयाब नहीं हो पा रही है. गेहूं, दाल और तिलहन के उत्पादन में राज्य लगातार पिछड़ रहा है. पिछले साल झुलसा रोग के कारण आलू की फसल झुलस गई. इस वजह से आलू बाजार में आग लगी है. बंगाली मध्यवर्ग भी खीझा हुआ है. हाल में हुगली जिले के चुंुचुड़ा गये मुख्यमंत्री ने ख़ुद माना कि राज्य में बीज का उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं हो रहा है. हाल में विधानसभा में राज्य के बजट पर हो रही बहस में कांग्रेस के विधायक असित माल ने एक मार्के का सुझाव दिया कि सिंगूर में कार फैक्ट्री की जगह अगर खाद का कारखाना लगाने की पहल होती तो किसानों का ज़्यादा भला होता . भूमि सुधारों वाली दुधारी गाय सूख गई है. जमींदारों का एक वर्ग गया तो 32 साल से बिल्डरी और सरकारी ठेके का माल खा रहे कॉमरेडों का एक नया मालदार वर्ग तैयार हो गया है. हिस्सेदारी को लेकर असंतोष है. यह क्या स्वाभाविक नहीं है कि केवल छाछ पीकर रहने वाले कॉमरेड चुनाव जैसे मौक़े पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करें? माकपा के संगठन में आई दरार की सबसे बड़ी वजह यही है. सबसे पहले माकपा को कैडरों के बीच के इस असंतोष को दूर कर जनता की असली तकली़फों का इलाज करना होगा. कुछ वैसा भी करना होगा, तो कभी आंध्र में रामाराव ने किया था और अभी तमिलनाडु में करुणानिधि और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह कर रहे हैं.
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