(गतांक से आगे)
जनराजनीति के बारे में भी आरएसएस की कोई धारणा स्पष्ट नहीं है. इनकी कोशिश जरूर रहती है कि डॉक्टर अंबेडकर से लेकर गांधी तक को समाहित कर लें. डॉक्टर अंबेडकर आधुनिक वैज्ञानिक व्यक्ति हैं, इसलिए यह कहकर कि फ्रांस की क्रांति में जो समानता, बंधुत्व की अवधारणा है, उसको न स्वीकार कर के बुद्ध में जो समानता बंधुत्व है, अंबेडकर उसकी बात करते हैं. इसके जरिए वे डॉक्टर अंबेडकर के बारे में अपनी समझ को थोपते हैं. डॉक्टर अंबेडकर एक आधुनिक भारत बनाने के लिए ज्यादा जोर दलितों पर इसलिए देते हैं, क्योंकि बिना उनको गोलबंद किए एक स्वतंत्र व्यक्ति का आविर्भाव नहीं हो सकता है. एक नागरिक का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है. जातीय बंधन में बांधकर दलितों को मनुष्य बनने के अधिकार से ही वंचित कर दिया गया.
इसलिए वे उस समाज को साथ लेने की बात करते हैं. ऐसी बात डॉक्टर अंबेडकर भी करते हैं और गांधी जी ने भी हिंद स्वराज में इसके बारे में लिखा है. लेकिन 1947 आते-आते वे उसमें सुधार नहीं बल्कि जाति तोड़क की भूमिका में आ जाते हैं. तो गांधी का निरंतर विकास हो रहा है. संघ वाले कभी भी गांधी को पचा नहीं पाएंगे. पूरे संविधान की आत्मा है गांधी. संविधान में गांधी का आधुनिक विचार दिखता है, जो नेहरू के माध्यम से सामने आता है.
इसलिए गांधी और नेहरू के बीच कोई अंतरविरोध तलाशना बेमानी है. दोनों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किए जाने की कोशिश की जाती है. संघ वाले कभी गांधी को नेहरू तो कभी नेहरू को गांधी के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करते हैं. दरअसल, वे नेहरू के माध्यम से गांधी को हराना चाहते हैं. आरएसएस के लोग कभी-कभी चाणक्य की नीति की बात करते हैं. लेकिन चाणक्य की नीति में भी एक सामाजिक नैतिकता है. यह सामाजिक नैतिकता संघ में नहीं है. क्योंकि संघ में आप देखिएगा कि किस तरह से खुद में संघ के मूल स्रोत के विचारक सावरकर अपनी रिहाई के मामले में क्या-क्या करते हैं. खुद देवरस इमरजेंसी के दौरान क्या-क्या किए.
यहां तक कि संघ में एक धारा रही है, जिसमें नाना जी देशमुख, जिन्होंने लोहिया वगैरह से लेकर गांधी को स्वीकार किया और कहा कि बिना इन लोगों को लिए हम भारत वर्ष में नहीं बढ़ सकते हैं. कम्युनिस्ट संदर्भ में न कार्यनीति के संदर्भ में, इन्होंने कोई बदलाव नहीं किया है और न ही चाणक्य नीति के संदर्भ में ऐसा कुछ हुआ है. दरअसल, यह परिस्थितियों के हिसाब से समय-समय पर अपनी मूल दृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए समायोजन करते रहते हैं. ये इन सब प्रश्नों पर काम करते हैं. आज की तारीख में अगर हम समग्रता में देखें तो मोहन भागवत जो कह रहे हैं, उससे कुछ मोटी बातें निकलती हैं.
एक मोटी बात यह निकलती है कि उन्होंने सामाजिक दबाव में, अभी जो कमजोर बिंदु है, उसके लिहाज से संविधान में सेकुलरिज्म और समाजवाद शब्द को स्वीकार किया है और अभी जो संसदीय प्रणाली है, राष्ट्रपति प्रणाली की जगह उसे बनाए रखने के पक्ष में हैं. इस संदर्भ में यह बात जरूर देखनी होगी. ये जो पुरानी बात को नए ढंग से कह रहे हैं, इसने उन लोगों के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है, जो हिंदू-हिंदू खेल में लगे हुए हैं. जैसे कांग्रेस का पूरा खेल यह था कि ये कट्टरपंथी हिंदू और मैं उदारवादी, सनातनी हिंदू हूं.
आरएसएस ने उनके इस स्पेस को कम किया है और कम से कम अवधारणा के स्तर पर यह बहस चला दी है कि ये भी सनातनी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग हैं. इसने उनके लिए भी और जो लोग समाजशास्त्र को अर्थनीति से अलग-थलग करके इनको वास्तविक हिंदू धर्म का प्रतिनिधि नहीं मानते, उनके लिए भी चुनौती कड़ी कर दी है. इन्होंने अपने कैनवास को बड़ा किया है, जिसमें वे धर्म में अपने को सनातनी कहते हैं और राजनीति, जो हिंदुत्व की विचारधारा है, उसको सार्वजनिक विश्व बंधुत्व से जोड़ते हैं या फिर उसकी कोशिश करते हैं.
उदारवाद की भी अपनी सीमाएं हैं. जो लोग उदारवाद और अनुदारवाद के जरिए इनसे लड़ना चाहते हैं, उनके सामने संकट जरूर है. और कांग्रेस को इसका सैद्धांतिक जवाब देना होगा, जो अभी तक नहीं हुआ है. मैं समझता हूं कि इनका पूरा प्रोजेक्ट पूरी तरह से एक अधिनायकवादी वैचारिक प्रक्रिया है, जो वर्चस्ववादी है और बुनियादी तौर पर लोकतंत्र विरोधी है. जिसमें ये मॉडर्न सिटीजनशिप कंसेप्ट के विरोधी हैं. नागरिकता के विरोधी हैं. समाज के सेकुलराइजेशन के विरूद्ध हैं. मूलत: ये लोकतंत्र विरोधी विचार है और इसका जवाब सुसंगत लोकतांत्रिक पद्धति से ही दिया जा सकता है. लोकतंत्र की व्याख्या केवल सामाजिक संदर्भों में ही नहीं, बल्कि उसकी आर्थिक व्याख्या भी की जानी चाहिए.
भारत में एक राष्ट्रीय अर्थनीति की भी जरूरत है और स्वदेशी के मामले में भी ये पूरी तरह से नाकाम हुए हैं. पीछे हटे हैं. जो पर्दा लगा रखा था, उसे हटा लिया है. मूल रूप से बड़े राजनीतिक प्लेटफार्म की जरूरत है, ताकि संघ ने जो चुनौती पेश की है उसका मुकाबला किया जा सके. पुराना फार्मुलेशन इनकी विचार प्रक्रिया से लड़ने की बजाए उनके कुछ भौतिक फार्मेंशन तक सीमित रह जाता है. वे लोग इनसे वैचारिक स्तर पर अभी नहीं लड़ पाएंगे. जैसे कुछ लोग अभी तक कहते थे कि संघ ने रजिस्ट्रेशन नहीं कराया है, तो वे अपना रजिस्ट्रेशन करा लेंगे. संघ वाले ये भी कह रहे हैं कि ग्रुप आफ इंडिविजुअल के तौर पर हमारा रजिस्ट्रेशन है. ये भी कह रहे हैं कि उनका आडिट होता है. अब आप कहां खड़े होंगे?
तकनीकी प्रश्न की जगह सामाजिक न्याय की ताकतों को भी संघ ने जो चुनौती पेश की है उसके बारे में सोचना होगा. जो दलित बहुजन दृष्टि है, वे लाक्षणिक संदर्भों में ही इसका विरोध करती है. उसके सामने भी अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक व्यवस्था में एक नागरिक के अस्तित्व की स्वीकृति और उसका सेकुलराइजेशन एक बड़ा प्रश्न है. और उसे इसको हल करना होगा.
आज एक नए किस्म के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ढांचे की जरूरत है. जो व्यक्ति के अस्तित्व और उसके सेकुलराइजेशन को स्वीकृति देता हो. संघ ने इस स्तर पर जो चुनौती पेश की है, उसका सैद्धांतिक और व्यवहारिक स्तर पर मुख्यधारा के दल जवाब दे पाएंगे, ऐसा अभी नहीं दिख रहा है. इसमें संघ के संकट को कभी भी कम मानने की जरूरत नहीं है. या फिर उसे समावेशी समाज के किसी नए प्रवक्ता के बतौर नहीं देखा जा सकता है. क्योंकि उनकी जो मूलदृष्टि है, वह समाज के एक बड़े हिस्से को बहिष्कृत करती है. और वह राष्ट्रवाद के नाम पर पराधीन साम्राज्यवाद की सेवा करता है.