मोहन भागवत के तीन दिन के सम्मेलन के बाद कई तरह की टिप्पणियां दिख रही हैं. मैं उन लोगों का विचार सुन रहा हूं, जो लोग आरएएसस को सिद्धांत और व्यवहार के रूप में बहुत करीब से देखते हैं. उनका ये मानना है कि आरएसएस ने यह दरअसल भ्रम पैदा करने के लिए किया है. इसमें यह समझना कि यह कोई बदलाव है, खुद को भ्रम में रखने जैसी बात होगी. वे लोग भागवत के इस कनक्लेव को बहुत महत्व नहीं दे रहे हैं और आमतौर पर खारिज कर रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि संघ ने बड़े बदलाव की तरफ इशारा किया है और उस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है.
मुझे जहां तक लगता है संघ की जो दृष्टि है और उसका जो स्वभाव है, उसमें कोई बदलाव नहीं है. लेकिन संघ की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति जरूर है, जो अपने में खासतौर पर संविधान और संसदीय राजनीतिक व्यवहार के बारे में एक नई अभिव्यक्ति है. इसे देखने की जरूरत है. संघ ये मानता है कि भारत में संविधान के पीछे केवल उदारपंथियों की नहीं, बल्कि सामाजिक शक्तियों की भी एक बड़ी ताकत है. अभी तक की जो व्यवस्था है, उसमें संसदीय प्रणाली राष्ट्रपति प्रणाली से बेहतर है. इसलिए इन दोनों को उसने स्वीकार किया है और मैं समझता हूं कि पहली बार संघ ने स्पष्ट तौर पर इसे स्वीकार किया है.
एक राजनीतिक मंच (भाजपा) द्वारा उसने जो शासन किया, उस व्यवहार से भी उसे एक नई सीख मिली. संघ ने यह माना है कि संविधान और संसदीय राजनीति जैसी चल रही है वैसे चलने दी जाए. जहां तक उन्होंने हिंदुत्व की बात की है, अल्पसंख्यकों के मामले में गुरु गोलवलकर के विचारों को बदलने की बात की है, तो उसमें कोई मौलिक बदलाव नहीं है. मूल प्रश्न यह नहीं है कि वे मुसलमान को स्वीकार करते हैं या नहीं करते हैं. मुसलमानों को वे सशर्त पहले भी स्वीकार करते थे और आज भी स्वीकार करते हैं. उनका मानना है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को अपने पूर्वजों का, अपनी परंपरा का, अपनी संस्कृति का सम्मान करना पड़ेगा, उसे स्वीकार करना पड़ेगा. जैसा कि उनके प्रेरणास्रोत सावरकर या फिर गुरुजी के विचार रहे हैं. वे इस बात को भी ले आते हैं कि आपको इसे पितृभूमि ही नहीं, बल्कि पूण्यभूमि भी मानना पड़ेगा. यह जो उनका सैद्धांतिक सूत्रीकरण है, इस पर वे अभी भी अडिग हैं.
संघ की इस मूल दृष्टि में कोई बदलाव नहीं हुआ है. गैर हिंदुओं पर यह सांस्कृतिक दबाव वे बनाए रखना चाहते हैं. अब इसमें उन्होंने दोनों पद्धतियों को स्वीकार किया है, लेकिन अंतिम पद्धति उनके हमले और दंबगई की है. इसे भी वे बदलने नहीं जा रहे हैं. जैसा वे मानते हैं कि हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए प्राण देना और प्राण लेना उनका राष्ट्रीय कर्तव्य है. हिंदुओं के सैन्यीकरण और सैनिकों के हिंदूकरण जैसी जो उनकी कुछ मूल स्थापनाएं हैं, उन्हें वे मानते हैं. पूण्यभूमि और पितृ भूमि की चर्चा अब भी बनी हुई है. मातृभूमि के तौर पर तो सब लोग इसे स्वीकार करते ही हैं. लेकिन उनका जो सांस्कृतिक और राजनीतिक दबाव है पूण्यभूमि मानने का, उस विचार से जिस दिन वे अपने को अलग कर लेंगे, तब फिर आरएसएस के बने रहने का या फिर हिंदुत्व के बने रहने का औचित्य ही खत्म हो जाएगा.
इसीलिए अपने कारण का निषेध करके वे नहीं चल सकते हैं. ये भारत वर्ष के लिए एक लंबी लड़ाई है, जो संघ लड़ना चाहता है. अभी संघ सरकार की दृष्टि से यह महसूस जरूर करता है कि बहुत सारी सामाजिक शक्तियां हमसे अलगाव में हैं. इसके शासक वर्ग के एलीट हिस्से में एक संदेश है कि बीजेपी तो चलो ठीक है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जो लोग हैं, वे समाज में इस तरह का काम कर रहे हैं. उस हिस्से को यहां पूंजी निवेश करने में डर लगता है. उनको भी उन्होंने आश्वस्त किया है कि वे किसी पुराने विचार के साथ नहीं हैं और वे भी मॉब लिंचिंग के खिलाफ हैं. वे भी चाहते हैं कि समाज में एक अच्छा माहौल रहे.
लोगों के बीच सम्बन्ध रहे. वे कहते हैं कि कानून को हाथ में न लें. हमारा संघ भी ऐसा कुछ नहीं करेगा, जो कानून के दायरे के इतर हो. वे आश्वस्त करना चाहते हैं. वे बीजेपी और संघ के बीच के अंतरविरोध को देखते हैं और बदलती हुई स्थितियों में वे आधुनिक ढंग से काम करना चाहते हैं. हम गैर राजनीतिक हैं, इसलिए हमारे राजनीतिक स्वयंसेवक जहां काम कर रहे हैं, उन्हीं के अनुरूप हम भी आचरण करते हैं. जिसे वे दिखाना चाहते हैं. लेकिन यहां भी उनका एक अंतरविरोध है, पूरे वक्तव्य में जहां से उन्होंने शुरुआत की थी और अंत में जहां उन्होंने उसे खत्म किया. उसका उन्होंने निषेध कर दिया. उन्होंने कहा कि कानून का राज होना चाहिए, इसे स्वीकार करते हैं, लेकिन अब कह रहे हैं कि किसी भी तरीके से मंदिर बनवाओ. यह मुख्य रूप से उसी का निषेध है.
आप कह सकते थे कि जो लोग राजनीति कर रहे हैं, यह उनका मामला है, वही देखेंगे या फिर मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और वहां से जो भी फैसला होगा, देखा जाएगा. लेकिन किसी भी तरीके से बनवाओ, यह जो आग्रह है, यह किन कारणों से हो सकता है, ये आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा. यह भी हो सकता है कि ये लोग अपनी कॉन्स्टीट्यूंसी को मेसेज दे रहे हों कि राम मंदिर हमारे लिए केवल नारेबाजी का मुद्दा नहीं है, हम इसको गंभीरता से ले रहे हैं. या यह भी मेसेज दे रहे हों कि राम मंदिर बनाया जाना चाहिए और इसके जरिए नई राजनीतिक परिस्थिति में खड़े होकर 2019 के चुनाव में इसे मुद्दा बनाया जा सकता है.
जहां तक उन्होंने हिंदुत्व की व्याख्या की है. हिंदू जो धर्म है, उसका हिंदुत्व से कुछ लेना-देना नहीं है. हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है. लेकिन वे बंधुत्व की परिभाषा हिंदुत्व में देखते हैं. विश्व बंधुत्व में समानता, स्वतंत्रता की अवधारणा है, जो मूलतः तर्क पर आधारित है, यह उससे अलग है. उनका बंधुत्व आस्था पर आधारित है. यहां हर चीज आस्था के नाम पर किया जाता है. इस तरह से भारत में आस्था का संकट नहीं है. यहां तर्क, विवेक और वैज्ञानिक सोच का संकट है. इसलिए ऐसा हिंदुत्व जिसमें तर्क के लिए, विज्ञान के लिए, विवेक के लिए जगह नहीं है, उसे विश्व बंधुत्व कहकर आप उसके गैर वैज्ञानिक और गैर मानवीय चरित्र का महिमामंडन कर रहे हैं.