इस सप्ताह पत्रकार नीलाभ की स्मृति में राजनीतिक चिंतक प्रताप भानु मेहता के साथ अपूर्वानंद का संवाद काफी चर्चा में रहा। इन दिनों प्रताप भानु मेहता यों भी तब से चर्चा में हैं जब से उन्होंने अशोका यूनिवर्सिटी से खुद को अलग किया है। अपूर्वानंद से संवाद में प्रताप भानु मेहता ने खुल कर वे सारी बातें कह डालीं जो श्रोताओं को हमेशा से मथती रही हैं। उन्होंने लोकप्रियतावाद, बाजारीकरण से लेकर आरएसएस, राष्ट्रवाद, सेक्यूलरिज़्म, आरएसएस का हिंदुत्व और राजीव गांधी की खामियां जैसे तमाम विषयों पर खुल कर बात की। यह कार्यक्रम और मेहता का संवाद न केवल रोचक है बल्कि उन सबके लिए जरूरी है जो इंडियन एक्सप्रेस में उनके लेख किन्हीं कारणों से नहीं पढ़ पाते हैं।
मोदी की लोकप्रियता पर बकौल मेहता लोगों का यह सोचना कि मोदी अपने से बड़ा तो कुछ कर रहे हैं और कौन ऐसा नेता है जो अपने से बड़ा कर रहा या सोच रहा है। उन्होंने आरएसएस पर टिप्पणी करते हुए कहा आरएसएस का डायलॉग केवल ‘हिन्दू डेमोग्राफी’ तक सीमित है। बाकी उसकी चिंता का कोई सबब नहीं। एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर उन्होंने इशारा किया – बाजारीकरण। उनका मानना है कि बाजारीकरण दरअसल ‘ईलीट क्लास’ के कारण हुआ।
बाद में यही वर्ग भ्रष्ट हो गया और आज यही वर्ग खुद को खतरे में महसूस कर रहा है। और भी कई महत्वपूर्ण विषयों को इस संवाद में प्रताप भानु मेहता ने उठाया है। मित्रों से कहना चाहूंगा कि यह वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध है, जरूर देखें।
बंगाल चुनाव के पहले चरण के लिए कल वोटिंग होगी। जबरदस्त अखाड़ा सजा है लेकिन ‘ओपिनियन पोल’ फिर भी ममता बनर्जी के पक्ष में भविष्यवाणियां कर रहे हैं। लगता भी यही है लेकिन भाजपा का चरित्र किससे छुपा है। नीति या नैतिकता से इस पार्टी को कुछ लेना देना नहीं।
इसमें दो राय नहीं कि ममता ने किला फतह किया तो विपक्ष के चेहरे के रूप में उभरेंगी। और भाजपा ने बंगाल जीता तो पूरा देश चौतरफा संकट में आ जाएगा। अभी ही लग रहा है कि मोदी छांट छांट कर बदला ले रहे हैं। एक नीति उनकी यह भी है कि विरोधियों को किसी भी बहाने जेलों में बंद कर सड़ने के लिए छोड़ दिया जाए। सुधा भारद्वाज और अन्य साथियों के साथ क्या हो रहा है, हम देख रहे हैं। उमर खालिद, शरजिल इमाम भी अंदर हैं। जो सरकार पिछले दो सालों में छ: हजार से ज्यादा देशद्रोह के मामले ठोंक सकती है और खबर यह भी है कि इन सात सालों में सोशल मीडिया पर दस गुना ज्यादा सरकारी निगरानी रही। तो समझा जा सकता है कि इस सरकार के भावी इरादे क्या हैं।
किसान आंदोलन ने मोदी सरकार को चुनौती दी है। लगातार दे रहा है। आंदोलन कहीं से भी ठंडा नहीं पड़ा। तैयारी 2024 तक की है। यह भी साफ है कि यदि बंगाल जैसे तैसे भाजपा ने जीत लिया और तब किसान आंदोलन को कुचलने की कोशिश की तो आजादी के आंदोलन जैसा बवंडर फैलेगा। यह भूल किसी को नहीं होनी चाहिए कि इस आंदोलन का नेतृत्व सिख कौम कर रही है और यह कौम कटने मरने को हमेशा तैयार रहती है। ‘जो लड़े दीन के हेत …. ‘
किसान आंदोलन पर अखिलेंद्र प्रताप सिंह के साथ संतोष भारतीय की बातचीत कल सुनी। उन्होंने महत्व की बात यह बतायी कि यह आंदोलन ‘ग्रासरूट’ स्तर पर मजबूत है और राष्ट्रीय स्तर पर संयोजित है। यही कारण है कि यह आंदोलन कभी मरेगा नहीं।
संतोष भारतीय ने बताया कि यूट्यूब ने दस दिनों तक उनका प्रसारण नहीं होने दिया। कारण कि यूट्यूब की नजर में उनकी भाषा ‘एब्यूज़िव’ थी। यह बात किसे पचेगी। संतोष भारतीय जिस अंदाज में सहजता और सरलता से बात पेश करते हैं वह भी किसी को ‘एब्यूज़िव’ लगे तो क्या कीजिए। बंगाल में दिल्ली से गये पत्रकारों – रिपोर्टरों का धमाल चालू है। अजीत अंजुम के बाद आरफा खानम शेरवानी, भाषा सिंह, शीतल पी सिंह, मनीषा पांडे वगैरह भी पहुंचे हुए हैं। अजीत अंजुम पूरे आत्मविश्वास में हैं लेकिन एक बात समझ से परे है कि वे ‘कोलकाता’ को ‘कोलकत्ता’ क्यों बोलते हैं। इसे तो उनका फूहड़पन ही कहा जाएगा। पत्रकार सबसे ज्यादा सजग प्राणी है और सामान्य जन को उनसे उम्मीद भी अपेक्षा से ज्यादा रहती है। इसी तरह आरफा ‘ध्रुवीकरण’ को ‘धुरवीकरण’ बोलती हैं। हालांकि यह उच्चारण की गलती है पर ‘कोलकाता’ को ‘कोलकत्ता’ बोलना तो महाशय की अज्ञानता ही कही जाएगी। जैसे Oxford गाड़ी के आगे ox यानी बैल।
रवीश भाई तो इन दिनों छुट्टी पर हैं। प्राइम टाइम रसहीन हो गया सा लगता है। ‘सत्य हिंदी’ पर कभी कभी विषय रोचक भी हों तो पैनलिस्ट वही होते हैं घूम फिर कर। पुण्य प्रसून वाजपेयी के बीच बीच में कुछेक रोचक विश्लेषण आते हैं। पर कुछ लोगों का कहना है जैसे ही वे ‘सच’ के दर्शन कराने लगते हैं वहीं से उबाऊ होने लगते हैं। वैसे ही जैसे विनोद दुआ ‘बहरहाल’ से चिपक जाते हैं। फिलहाल ‘विनोद दुआ शो’ भी नहीं आ रहा है। इस सरकार में कब किसके साथ क्या हो जाए, इस बात की हमेशा दहशत बनी रहती है।
और जो कुछ भी होता है बड़ी फूहड़ता के साथ होता है। पुण्य प्रसून वाजपेयी को ऐसी ही फूहड़ता के साथ एबीपी न्यूज़ छोड़ने को मजबूर किया गया था। दरअसल 2014 में जितना सोचा गया था उससे कई गुना बदहवासी का आलम है आज ।आगे यह बदहवासी और कितनी बढ़ेगी, कौन जानता है। मन्नत मांगिए कि देश की भलाई के लिए बंगाल में भाजपा बुरी तरह हारे। किसी की जीत की मन्नत सिर माथे होती है पर हार की मन्नत आज का कड़ुवा सच है जिसे भले के लिए मांग लेना कुछ बुरा भी नहीं।
बसंत पांडे