पिछले हफ्ते-दस दिनों से समाजवादी पार्टी का अंदरूनी घटनाक्रम देश में सियासी बहस का मुद्दा बना हुआ है. ये सब को पता है कि समाजवादी सांगठनिक शक्ति के अधिकतर हिस्से पर शिवपाल यादव का नियंत्रण है. अखिलेश यादव मुख्यमंत्री होने के कारण इस गलतफहमी में हैं कि पूरी पार्टी उनके साथ है. उनकी छवि ठीक है, उन्होंने पार्टी के लिए अच्छा काम किया है, लेकिन चुनाव तो चुनाव होता है. अब चुनाव होने वाले हैं और समाजवादी पार्टी के लिए यह संभव नहीं है कि वो शिवपाल यादव के सहयोग के बिना बेहतर प्रदर्शन कर पाए. जितनी जल्दी वे अपने मतभेद दूर कर लेते हैं, उनके लिए उतना ही बेहतर होगा. बहरहाल, इस सारे ड्रामे का फायदा मायावती को होगा. उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता असमंजस की स्थिति में हैं कि उन्हें समाजवादी पार्टी को वोट करना चाहिए या मायावती को क्योंकि वे भाजपा के साथ नहीं जाएंगेे. फ़िलहाल मैं समझता हूं कि समाजवादी पार्टी के लोगों ने मुसलमानों को अपना मन बनाने में मदद की है. यदि मुसलमानों ने मायावती का समर्थन कर दिया तो वो बेशक नंबर एक बन जाएंगी और ये भी हो सकता है कि उन्हें पूर्ण बहुमत मिल जाए. समाजवादी पार्टी जितनी जल्द अंदरूनी कलह से उत्पन्न अनिश्चितता की स्थिति को समाप्त कर लेती है, उसके लिए उतना ही अच्छा होगा.
दूसरी बड़ी खबर कॉर्पोरेट दुनिया से है, जहां रतन टाटा ने एक बार फिर टाटा सन्स की कमान अपने हाथ में ले ली है, जहां पहले उन्होंने साइरस मिस्त्री को बहाल किया था. साइरस 48 साल के हैं और रतन टाटा 78 वर्ष के हैं, लेकिन इसमें कोई अचंभे की बात नहीं थी. इंफ़ोसिस में भी पहले ऐसा हो चुका है. नारायण मूर्ति ने कमान दूसरे को सौंप कर ये समझा कि वे रिटायर हो गए, लेकिन उन्हें फिर वापस आना पड़ा. आखिरकार संस्थाएं दशकों और सालों में बनती हैं. ऐसी संस्थाएं नए लोगों द्वारा नहीं चलाई जा सकती हैं, जो उसके मूल्यों, संस्कृति और आचार से वाकिफ नहीं होंगे. मैं व्यक्तिगत तौर पर रतन टाटा को उनके द्वारा किए गए बदलाव के लिए दोषी नहीं ठहराऊंगा. उन पर एक आरोप ये लगाया जा रहा है कि उन्होंने ऐसा करने के लिए विशेष कारण नहीं बताया. वे किसी चपरासी या निचले स्तर के कर्मचारी को नहीं बदल रहे थे, जिसके लिए उन्हें चार्जशीट देना पड़े और एक जांच बैठाएं और सवाल-जवाब करें. ये ऐसे बदलाव हैं जो सबसे ऊंचे स्तर पर हुए हैं, जो गोपनीय रखे जाते हैं. उन्होंने बिलकुल सही तरीका अपनाया. अब दिल्लगी की बात यह है कि साइरस एक खुला ख़त लिख रहे हैं, जिसमें वो हर तरह के इलज़ाम लगा रहे हैं.
वो कहते हैं कि चेयरमैन के तौर पर उनके पास कोई पावर नहीं था. अगर ऐसा था, तो उन्होंने इस्तीफा क्यों नहीं दिया? पद पर बने रहने के लिए उनसे किसने कहा? ये सही नहीं है. हमें इंतज़ार करना होगा कि आगे क्या होता है? इस पद पर अगला व्यक्ति कौन बैठेगा, इसके लिए रतन टाटा को बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि ऐसी स्थिति फिर पैदा हो सकती है. उनके लिए यह सही होगा कि वे यह ओहदा किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में दें जो टाटा से 30-40 सालों से जुड़ा हो और जो टाटा के एथिक्स को समझता हो. मेरे ख्याल से उन्हें चेयरमैन को अनियंत्रित पावर नहीं देना चाहिए. उन्हें एक कोर समिति बनानी चाहिए, जिसमें उन्हें भी रहना चाहिए. यदि वे कृष्णा कुमार या किसी अन्य सीनियर व्यक्ति को टाटा का चेयरमैन बनाते हैं, तो ये टाटा के लिए बेहतर होगा. 75 साल की आयु सीमा को भी बढ़ाकर 80 साल कर देना चाहिए, क्योंकि आप एकदम से नए व्यक्ति की तलाश नहीं कर सकते.
कश्मीर अब भी जल रहा है. दक्षिण कश्मीर से बड़ी तादाद में नौजवान गायब हैं. वे मारे गए हैं या ट्रेनिंग पर गए हैं, ये मालूम नहीं है, लेकिन वे गायब हैं. यह बहुत गंभीर मसला है और जबतक भारत सरकार गिलानी वगैरह से बातचीत करने का मन नहीं बना लेती, मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि कोई समाधान नहीं निकलेगा. दरअसल भारत सरकार के लिए सबसे बेहतर काम यह होगा कि बातचीत के दरवाज़े खोले जाएं और वहां से शुरुआत हो, जहां से मुशर्रफ और वाजपेयी ने छोड़ा था. अगर वो प्रक्रिया बहाल रहती, तो इस समस्या का अब तक समाधान हो गया होता. मनमोहन सिंह ने कोशिश की, लेकिन उस समय भी ऐसा नहीं हो सका.
हमें मालूम है कि पाकिस्तान मुश्किल में है क्योंकि नवाज़ शरीफ के पास सीमित अधिकार हैं, सारे फैसले राहील शरीफ कर रहे हैं. लेकिन यदि हम बातचीत की प्रक्रिया को वहां से शुरू करें, जहां से मुशर्रफ और वाजपेयी ने छोड़ा था, तो इसमें कुछ न कुछ निकल कर आएगा. उस समय मुशर्रफ इस मसले को सुलझाने के हक में थे, लेकिन आडवाणी जी के माध्यम से आरएसएस ने समझौता होने से रोक दिया. जैसा कि अक्सर होता है आरएसएस हमेशा अल्पकालिक फायदे की सोचता है और ये नहीं देखता कि कितना दीर्घकालिक नुकसान पहुंचाया है. बीजेपी कश्मीर में पावर में है, लेकिन कैसा पावर, ये पावर पुलिस और बंदूक का है. श्रीनगर में ट्रैफिक इसलिए नहीं चल रही है क्योंकि वहां लड़के सड़कों पर पत्थर रख रहे हैं और दुकानें व पेट्रोल पंप छह बजे के बाद खुलते हैं, जब वे सड़कों से पत्थर हटा देते हैं, तो ऐसे में किसका आदेश चल रहा है, सरकार का तो नहीं चल रहा है. ये लड़के हैं, जिनका आदेश चल रहा है. जितनी जल्दी इस हालत को ठीक करने के लिए कदम उठाए जाएंगे, उतना ही बेहतर होगा.