शायद भारतीय उपमहाद्वीप की कस्तूरबा गांधी, पहली महिला सत्याग्रही है ! आज 23 सितंबर 1913 के उनके दक्षिण अफ्रीका के भारतीय मूल के लोगों को आवागमन की मनाही के खिलाफ अन्य महिला साथियों के साथ सत्याग्रह के 109 साल होने के उपलक्ष्य में यह पोस्ट लिख रहा हूँ ! काठियावाड के पारंपारिक परिवार से, बगैर किसी औपचारिक शिक्षा लिए, उम्र के तेरहवें साल में, मोहनदास करमचंद गांधी नाम के तेरह साल के, बच्चे के साथ शादी हुई थी ! और और 1888 में मोहनदास बॅरिस्टर की शिक्षा के लिए, इंग्लैंड चला गया था ! 1891 में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, वापस भारत आने के बाद, दो साल अपनी आजीविका के लिए काफी जद्दोजहद करने के बाद, असफलता ही हाथ लगी ! तो एक गुजराती की अब्दुल्ला – अब्दुल्ला फर्म ने, दक्षिण अफ्रीका में जूनियर वकील की हैसियत से, 1893 दक्षिण अफ्रीका में एक साल के लिए गए थे ! लेकिन दक्षिण अफ्रीका सरकारके भारतीय लोगों के खिलाफ नए बील के कारण, उन्हें उस सवाल पर मार्गदर्शन करने के लिए, विशेष आग्रह करके रख लिया ! जो बीस साल के बाद भारत वापस आए ! जब दक्षिण अफ्रीका में और अधिक समय रहने के कारण, वह अपनी पत्नी और बच्चों को दक्षिण अफ्रीका 1896 में लेकर गए ! और वहीसे उनके साथ कस्तूरबा के जीवन का कदम – कदम पर अपने आपको बदलने का प्रयास शुरू हुआ था ! जो 22 फरवरी 1944 के दिन गिरफ्तारी की स्थिति में ! पुणे के आगा खाँ पैलेस में उनके मृत्यू के साथ थम गया !
अमूमन बडे वृक्ष के नीचे छोटे वृक्ष की वृध्दि नही होती है ! लेकिन कस्तूरबा इसमें अपवाद है ! महात्मा गाँधी जैसे विशाल वृक्ष के साथ रहते हुए ! अपने आप को भी बदलते – बदलते, उम्र के पचहत्तर साल के अपने जीवन के, सफर में समस्त भारतीय स्त्रीयों का मान बढ़ाया है ! और मोहन से महात्मा के सफर में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है !
अपने जीवन के तीसरे दशक के अंतिम और चौथे दशक के आरंभिक वर्षों में जब गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका में अपनी खोज में व्यस्त थे, तब उनके जीवन का एक उल्लेखनीय रुपांतरण हुआ था ! हिंदू धर्मग्रंथ गीता से उन्होंने दो आदर्श ग्रहण किए थे ! एक आदर्श था अपरिग्रह, जिसने उन्हें स्वेच्छा से निर्धन रहने की ओर प्रेरित किया और दुसरा था निस्वार्थ कर्म, जिसने उन्हें सार्वजनिक जीवन के लिए असाधारण उर्जा से संपन्न किया ! उन्होंने एक निशुल्क अस्पताल में एक औषधिवितरक का प्रशिक्षण लिया, जिससे वे दक्षिणी अफ्रीका में रह रहे निर्धनतम भारतीयों – बंधुआ( गिरमिटिया) मजदूरों की सेवा कर सके ! डरबन के निकट फोनिक्स में (और बाद में जोहांसबर्ग में) उन्होंने छोटी – छोटी-छोटी बस्तियां स्थापित की, जहाँ वे उनके आदर्शों पर चलने वाले कुछ मित्र, नगरों की गर्मी और धुप से, और लोगों के लालच और नफरत से, दूर एक स्वर्ग में रह सकें !


गांधीजी की जीवन- पद्धति में आया यह फेरबदल उनकी पत्नी कस्तूरबा के लिए बहुत दुष्कर सिध्द हुआ ! सार्वजनिक जीवन में अपने पति की बढ़ती भागीदारी के फलस्वरूप, उन्होंने पाया कि वे दरअसल पति के व्यवसायीक तथा राजनीतिक सहयोगियों के लिए एक आवास चला रही है ! परिवार की सारी बचत, सार्वजनिक कामो में खप जाती थी ! सार्वजनिक कर्तव्यों की मांग पर, पूरी गृहस्थी दो महाद्वीपों के बीच आती-जाती रहती थी ! एक तार मिलतेही कस्तुरबा और बच्चों को, बंबई से डरबन तक का जहाजी सफर करना पड़ता था ! गांधीजी का निजी जीवन पिछे छुटता जा रहा था ! दक्षिण अफ्रीका में ही, उनके परिवार में उनकी पत्नी और बच्चों के अलावा, अनेक वे कार्यकर्ता और अनुगामी शामिल हो गए थे, जिन्होंने स्वयं को उनके हवाले कर दिया था ! एक सक्रिय भारतीय बॅरिस्टर के नाते, वे अपने बच्चों का प्रवेश युरोप के स्कूलों में करा सकते थे, लेकिन अपने लिए वह सुविधा उन्हें स्वीकार नहीं थी ! जो दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले उनके अन्य देशवासियों को अधिकारिक रूप से नहीं मिल सकती थी ! उनके बच्चों को उस छीटपुट शिक्षा से ही संतुष्ट रहना पडा था ! जो उन्हें अपने पिता के साथ जोहांसबर्ग स्थित, उनके दफ्तर की ओर से जाते और वहां से घर लौटते हुए, दस मील पैदल सफर के दौरान मिल पातीं थी ! घुमंतू पाठों में भी, अक्सर उनके मुवक्किलों अथवा सहयोगियों द्वारा व्याघात डाल दिया जाता था, लेकिन उनकी माता की जीद के बावजूद, गांधीजी ने अपने बच्चों को युरोपीयन स्कूलों में भेजने से इन्कार कर दिया था ! इसका अनिवार्य परिणाम यह हुआ, कि बच्चों की शिक्षा नही हो पाई ! सबसे अधिक हानि सबसे बडे बेटे हीरालाल की हुईं, जिसे बाद में शराब की लत पड गई ! गांधीजी के दुसरे बेटो – रामदास, मणिलाल, और देवदास ने सामान्य जीवन जिया, लेकिन उनका नाम उस तरह अखबारों में नहीं छपा ! जैसे हरीलाल का समय – समय पर, छपते रहता था ! वह जीवन भर अपने माता-पिता के लिए, परेशानी का कारण बना रहा ! हरीलाल के मानसिक और नैतिक पतन की जिम्मेदारी, गांधीजी ने सार्वजनिक रूप से अपने उपर ले ली थी ! माता- पिता के इस अपराध बोध का क्या अर्थ लगाया जाए ? समझमे नही आता ! अनेक विशिष्ट पुरुष ऐसे हुए हैं, जिनके बच्चे पथभ्रष्ट हो गए, पर इस दुर्भाग्य की जिम्मेदारी अपने उपर लेने की बात उन्होंने कभी नहीं सोची !


भारतीय उपमहाद्वीप की पहली महिला सत्याग्रही, कस्तुरबा गांधी के आज 23 सितंबर 1913 के, दक्षिण अफ्रीका में, एक जगह से दूसरी जगह जाने की, पाबंदी के खिलाफ ! सत्याग्रह करने के कारण, तीन महीने पिट्सबर्ग की जेल में अपने अन्य महिला साथियों के साथ सजा के ! 109 साल होने के उपलक्ष्य में विनम्र अभिवादन !
जेल मॅन्युअल के अनुसार, खाना नहीं देने के कारण, उन्होंने जेल में उपवास किया था ! फिर उसके बाद और भी कई बार जेल जाना पडा है ! यहां तक कि भारत में 1915 में वापस लौटने के बाद भारत छोडो आंदोलन के कारण, उन्हें महात्मा गाँधी जी के साथ पुणे के आगा खाँ पैलेस में, भारत छोडो आंदोलन के दौरान, बंदी बनाने के बाद, उनकी बिमारी से मौत हो गई है ! 22 फरवरी 1944 के दिन और अंग्रेज सरकार की असंवेदनशीलता के कारण ही, आगा खाँ पैलेस के प्रांगण में ही उनका दाहसंस्कार महात्मा गांधीजीके हाथों से हुआ है ! और महात्मा गांधी, सुबह के ग्यारह बजे से शाम चार बजे तक ! बां के शव को अपने आंखों से जलते हुए देखते हुए वहीं पर कुछ दूरी पर बैठे रहे !
और शायद अपने वैवाहिक जीवन के साठ साल से भी अधिक जीवन के सफर को याद कर रहे होंगे ! कि उम्र के तेरह साल में, विवाह उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथा के अनुसार बालविवाह हुआ है ! और तेरह वर्ष की आयु के मोहनदास इंग्लैंड अपनी बॅरिस्टर की पढाई हेतु, उम्र के अठारहवे साल में जाने के पहले, कस्तुरबा तीन साल ही ससुराल में रही है! शेष समय उस समय की प्रथा के अनुसार, अपने मैके में ही रही है ! 1891 में मोहनदास बॅरिस्टर की पढ़ाई खत्म करने के बाद, भारत लौटे तो जीवीका की खोज करने के लिए वह लगातार घुमते ही रहे ! मुश्किल से छ महिने वह अपने परिवार के साथ रह पाए होंगे, कि परिस्थिति ने उन्हें 1891 दक्षिण अफ्रीका जाने के लिए विवश कर दिया ! उस समय वह लिखते हैं कि “दक्षिण अफ्रीका के बुलावे के समय ही मैंने स्वयं को शरीर की भुक से मुक्त पाया” उस समय वे केवल चौबीस वर्ष के थे ! उनकी पत्नी और दो बेटे 1896 के पहले उनके पास नेटाल नही पहुंच पाए ! तीन वर्ष बाद, अपने परिवार के आकार को सिमित करने का संकल्प वे ले चुके थे ! गर्भ – निरोधको के प्रयोग के, वे पहले से ही विरोधी थे ! इसलिए उनके संकल्प का अर्थ हो जाता था ! लगभग इंद्रिय निग्रह का जीवन अपना लेना ! 1906 में उन्होंने ब्रम्हचर्य का औपचारिक व्रत, उम्र के 37 वे साल में, ले लिया था !
इसके बाद से गांधीजी और उनकी पत्नी विवाह के विशिष्ट बंधन को छोड़ अनेक बंधनों में बंधे ! इस समय वे दोनों एक सुसमंजित दंपती थे ! जीवन के चौथे दशक में किशोरावस्था के लडाई – झगडो को वे पिछे छोड़ आए थे ! उनका जीवन निजी कम – से – कम रह गया था ! और वह एक सामुदायिक जीवन बनता जा रहा था ! दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष में, जब गांधीजी अपमान और जेल – यात्राएं भोग रहे थे, तब कस्तूरबा अपने पति के पार्श्व में खडी थी ! उनके साहस और सहयोग के बीना, सार्वजनिक जीवन के तुफानो को वे शायद ही झेल पाते ! लेकिन जो कठोर संन्यस्त जीवन, गांधीजी ने स्वयं अपने उपर और अपने निकटतम लोगों पर ! आरोपित किया, उसे स्वीकार करना कस्तूरबा के लिए सहज नहीं रहा था ! 1901 में जब परिवार भारत जाने के लिए तैयार था, तो कृतज्ञ देशवासियों ने उपहार के रूप में गांधीजी को आभूषणों से लाद दिया था ! पर सार्वजनिक सेवा के बदले मुल्यवान उपहार स्विकार करना गांधीजी के लिए असह्य था ! उन्होंने निर्णय लिया कि सभी आभुषणो की एक निधि बना दी जाए, और उसका इस्तेमाल नेटाल के भारतीयों की सेवा में किया जाए ! कस्तूरबा अभिभी आभुषणो के प्रति स्त्रियोचित प्रलोभन से मुक्त नहीं थी ! उन्होंने निष्फल हठ किया कि कम- से- कम एक नैकलेस, जिसने उन्हें विशेष रूप से सम्मोहित किया था, रख लिया जाए ! पर गांधीजी तिलभर नही डिगे ! उनके लिए यह सिद्धांत का प्रश्न था!
1904 में एक श्याम जब गांधीजी जोहान्सबर्ग से डरबन की रेलगाड़ी से प्रवास कर रहे थे ! तो एक मित्र ने उन्हें रस्किन की ‘द अन टू द लास्ट ‘नाम की किताब दी ! तो उन्होंने रातभर जागकर वह किताब पूरी पढ डाली ! अगली सुबह जब गाड़ी डरबन पहुँची, तो वे सादे जीवन के बारे में रस्किन के सिद्धांतो को व्यवहार में लाने का फैसला ले चुके थे ! कुछ महीनों बाद कस्तूरबा जब फोनिक्स फार्म पहुँची, तबतक उनके पति की सादे ग्राम्य जीवन की रूपरेखा तैयार थी ! उनका आस्चर्य और गुस्सा प्रकट था ! सोने के हार और हिरे की अंगुठीयां त्याग देने के बारे में अपने मन को समझा चुकी थी;पर न्यूनतम सुविधाएँ त्याग देने, और रातों-रात बॅरिस्टर की पत्नी से एक किसान की पत्नी में रुपांतरित हो जाने के लिए, प्रयास की आवश्यकता थी ! गांधीजी लिखते हैं कि “जब 1906 में उन्होंने कस्तूरबा से कहा कि वे आजीवन ब्रम्हचर्य का व्रत लेना चाहते हैं, तो उन्होेंने कोई आपत्ति नहीं की ! अपने बाहरी वातावरण के रूप – परिवर्तन को वह पहले ही स्विकृति दे चुकी थी ! अब उन्होंने पति और पत्नी के बीच यौन – संबंधों के परित्याग को भी स्वीकार कर लिया ! ब्रम्हचर्य की यह शपथ 1906 में जुलू विद्रोह के समय ली गई थी, जिसमें गांधीजी ने एक भारतीय स्वयंसेवी एंबुलेंस युनिट का नेतृत्व किया था ! जुलूलैंड के गांवों शांत निर्जन प्रदेश में लंबी कष्टप्रद पैदल यात्राओं के दौरान उन्होंने महसूस किया, कि यदि उन्हें सार्वजनिक कार्यो के प्रति समर्पित होना है ! तो वे इसके योग्य तबतक नही बन सकेंगे, जबतक पारिवारिक जीवन के सुखों, तथा बच्चे पैदा करने, और उन्हें पालने में लगे रहेंगे ! शरीर और आत्मा दोनों का जीवन वे एक साथ नहीं जी सकते थे ! यथार्थ यह था कि शरीर का जीवन पहले ही घटकर शून्य तक पहुंच चुका था !


इसके बाद गांधीजी ने अपनी पत्नी या किसी अन्य स्रि के साथ, कभी अकेलापन की इच्छा नहीं की ! अब से उनका जीवन एक खुली किताब बन गया ! उनका अपना कोई निजी शयनकक्ष नही था ! वे अपने सचिवों, शिष्यों और सहयोगियों के बीच रहते थे ! और उनके बिस्तर या चटाईया उनके साथ सटी बिछी रहती थी ! उनके इस दावे में कि उन्होंने अपने सचेत विचारों और कार्यों पर पूरा नियंत्रण प्राप्त कर लिया था, संदेह का कोई कारण नहीं है ! उनके कुछ स्खलन जिनका यथासमय जिक्र उन्होंने अपने पत्रों या लेखों में किया है, उनकी निंद में हुए थे ! यदि उन्हें कोई कामुक सपना आ जाता था, तो वे अत्यंत अस्थिर हो उठते थे ! और दुःख एवं अपराध की अपनी भावनाओं को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने पर जोर देते थे ! यौन विचारों को न सिर्फ चेतन बल्कि अचेतन मन से भी निकाल फेंकना, उनकी महत्वाकांक्षा थी ! यदि उन्हें आध्यात्मिक प्रगती के लिए, अथवा अपने साथी मानवों की सेवा करने के लिए, एक स्वस्थ माध्यम के रूप में स्वयं को सन्नद्ध रखना था, तो ऐसी ‘पूर्ण आत्मशुद्धी’ उनके विचार से अनिवार्य थी !
यौन-क्रिया से सन्यास की शपथ लेने के चालीस वर्ष बाद, गांधीजी ने कहा था “कि उनकी पत्नी ने और उन्होंने वैवाहिक जीवन का वास्तविक आनंद इस सन्यास के बाद ही पाया है ! तथा यह हुआ कि हमारा साहचर्य प्रस्फुटित हुआ ! और हम दोनों, भारत की और मानव मात्रा की असली सेवा कर सके ! वास्तव में, यह आत्म निषेध सेवा की हमारी गंभीर इच्छा में से पैदा हुआ था ”
गांधीजी पॉल के इस आदेश से सहमत हो सकते थे !” कि जलते रहने की अपेक्षा विवाह कर लेना श्रेष्ठतर है ! ” लेकिन विवाह को वे ऐसा पवित्र संस्कार मानते थे, जिसमें शरीर – संबंध का महत्व न्यूनतम है ! वे विवाहितो को भी आत्मनियंत्रण की सलाह देते थे ! और जबतक बच्चे पैदा करने का प्रकट प्रयोजन न हो, यौन – जीवन को शारीरिक दृष्टि से हानिकर और नैतिक दृष्टि से ‘पापपूर्ण’ मानते थे !


गांधीजी के यौवन में उन पर, रचनात्मक प्रभाव डालनेवाले और उनके समय के सुप्रसिद्ध लेखक ! टालस्टाय ने भी मानव जीवन में यौन – क्रिया के स्थान के बारे में ऐसा ही उपदेश दिया था ! टालस्टाय ने लिखा है कि “लोग भूचाल, महामारी, रोग और हर प्रकार की यातना से बच निकलते हैं, लेकिन प्रखरतम त्रासदी सदा ही शयनकक्ष में घटित हुई है, होती है, और होती रहेंगी” क्रूजेर सोनाता के बाद टालस्टाय ने निश्चयपूर्वक कहा कि “ईश्वर और अपने साथियों के प्रति प्रेम के ईसाई आदर्श की यौन – प्रेम अथवा विवाह से कोई संगति नही है, क्योंकि इसका अर्थ है केवल अपनी सेवा करना ! ” छिद्रान्वेषी आलोचकों ने कहा है कि” क्रूजेर सोनाता का लेखक जो तेरह बच्चों का पिता था, अब बुढा हो चला था ! और उसके लिए अंगूर खट्टे पड चुके थे ! ” वस्तुतः आत्मनियंत्रण की शपथ लेने के वर्षों बाद तक, टालस्टाय एक अंतःसंघर्ष में उलझे रहे, जिसका पर्याप्त प्रमाण उनकी डायरीयो में मिलता है ! मृत्यु से एक वर्ष पहले इक्यासी वर्ष के होने तक भी वे यौनेच्छा से मुक्ति का अनुभव नहीं कर सके थे !


आत्मनियंत्रण के लिए टालस्टाय के संघर्ष ने न, सिर्फ उनकी अपनी नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियों पर दबाव डाला, बल्कि पहले से ही कमजोर उनके वैवाहिक संबंधों को भी चूर – चूर कर डाला ! उनकी पत्नी को दौरे पडने लगे ! सोनिया रोया करती थी, “मै आत्महत्या कर लेना चाहती हूँ, कहीं भाग जाना चाहती हूँ, किसी के प्रेम में पड जाना चाहती हूँ !” उन दोनों का जीवन दोषारोपो और समझौतों का एक दुष्चक्र बन गया था ! टालस्टाय की डायरीयो में एक ऐसे ही झगड़े की कहानी इस भयानक निर्णय के साथ समाप्त की गई है ! ” हमारे बीच एक आमरण संघर्ष है! या तो ईश्वर है या ईश्वर नही है ! ” उनकी पत्नी अपने पति के आदर्शों पर आचरण करना तो दूर, उन्हें समझने तक में पूरी तरह असमर्थ थी !


गांधीजी अपने जीवन में जो परिवर्तन लाए, और अपने परिवार के लिए जो आदर्श उन्होंने स्थापित किए, वे टालस्टाय के आदर्शों के मुकाबले कम प्रखर और कम क्रांतिकारी नही थे ! गांधीजी की गृहस्थी ने इस दबाव का वहन बेहतर ढंग से किया ! तो इसका कारण पत्नी का त्याग उतना ही था ! जितना पति का कुशल आचरण ! यहाँ पत्नी ‘पति के पदचिन्हों ‘पर चलती थी, भले ही यह चलना उसकी प्रकृति के बहुत विरुद्ध हो ! पति के सुधारों के प्रति उसकी प्रतिक्रिया क्रमशः बौखलाहट, विरोध, स्विकार, विचार-प्रवर्तन और उनके लिए संघर्ष करने की होती थी ! छुआछूत को हटाने की बात हो, या घर में बुना कपडा पहनने की, पति के विचारों को व्यवहार में लाना आरंभ में उनके लिए सरल नहीं रहता था ! लेकिन जब वे स्विकार कर लेती थी, तो पूरी तरह करती थी ! और यहां तक कि दूसरों को उनकी शिक्षा देती थी ! टालस्टाय की पत्नी अपने पति के शिष्यों को “तामसिक ढोंगी, कपटी, मक्कार कहती थी ! कस्तूरबा अपने पति के शिष्यों से अपने स्वयं के बच्चों के जैसा व्यवहार करने की प्रवृत्ति रखती थीं ! शायद यह भारतीय संस्कृति का और रशिया की संस्कृति के भीतर के फर्क कि वजह से भी, पति-पत्नी के संबंध में इस तरह का बदलाव होने की संभावना है ! और व्यक्तिगत स्वभाव के कारण भी इस तरह का फर्क हो सकता है !
गांधीजी का मानना था कि “विवाह का सच्चा प्रयोजन स्त्रियों और पुरुषों के बीच घनिष्ठ मित्रता और साहचर्य स्थापित करना है, किंतु यौन – संबंध की अनुमति तभी दी जा सकती है जब दंपति बच्चा पैदा करना चाहे !” संतति – निग्रह आंदोलन की नेता मार्गरेट सेंगर गांधीजी से मिलने के लिए वर्धा आई थी ! वे गर्भ – निरोधको के प्रयोग के लिए उनकी सहमति प्राप्त करने के लिए विशेष रूप आई थी ! लेकिन विफल रही ! गांधीजी का तर्क था” कि यदि अपने कार्य के परिणाम भुगतने के खतरे से मुक्त होकर स्त्री और पुरुष संभोग कर सकेंगे तो वे आत्म-नियंत्रण की अपनी शक्ति खो देंगे !”


गांधीजी की ब्रम्हचर्य – विषयक अवधारणा में, जीवन के प्रति उनका विशेष दृष्टिकोण निहित था ! उन्होंने लिखा है कि “जिस आदमी ने अपने भीतर की यौन – लालसा को मार डाला है, वह किसी भी रूप में या प्रकार से कामना का शिकार कभी नहीं बनेगा ! कोई स्री कितनी भी आकर्षक क्यो न हो, उसका आकर्षण उस पर कोई असर नहीं डाल पायेगा ! स्री पर भी यह नियम लागू होता है !” उन्होंने स्वीकार किया कि” ऐसे आत्म – नियंत्रण के लिए निरंतर सतर्कता और प्रयास की अनिवार्यता है !”
इसी तरह गांधीजी के लिए भी काम- वासना पर नियंत्रण, शरीर और मन के व्यापक अनुशासन का ही एक अंग था, जिसमें न सिर्फ इच्छाओं से बल्कि इच्छाओं के चिंतन से भी मुक्ति शामिल थी ! ब्रम्हचर्य को व्यापक स्तर पर लाये बीना, अर्थात आचरण, वचन और चिंतन के स्तरों पर, सभी इंद्रियों के नियंत्रण के बीना, सिर्फ यौन – नियंत्रण के संकीर्ण अर्थ में ब्रम्हचर्य अव्यवहारिक हो जाता है ! प्रश्न एक इच्छा पर अनुशासित नियंत्रण का नही, बल्कि सभी तरह की इच्छाओं पर नियंत्रण का था ! प्रश्न संपूर्ण जीवन को अनुशासित करने व रखने का था !
इसी तरह से मोहन से महात्मा का सफर में ब्रह्मचर्य का निर्णय गांधीजी ने लिया और कस्तुरबा ने पालन किया ! अपरिग्रह का निर्णय लिया और उन्हें उसके लिए काफी जद्दोजहद करनी पडी लेकिन उन्होंने उसे भी अपना लिया जिस कारण अपने खुद के बच्चों की शिक्षा बधीत हुई और उसी के परिणामस्वरूप बडे बेटे हीरालाल का हताशा के कारण अपने आप को कष्ट करते-करते अपने आप को नष्ट कर लेने की कगार तक पहुंचने का दुःख एक मां के नाते कस्तूरबा को सहने की शक्ति को देखते हुए मै दंग हो जाता हूँ ! फिर जाती – धर्म और कई तरह की रुढियों को लांघने का आजसे सव्वासौ साल पहले कितना कठिन प्रवास बांको करना पडा होगा ? एक सामान्य घर की बगैर किसी औपचारिक शिक्षा से महात्मा गाँधी जैसे विशाल वृक्ष की छाया में मुरझाने की जगह स्वतंत्र रूप से अपने व्यक्तित्व को लेकर पचहत्तर साल की जिंदगी और महात्मा गाँधी जी के जीवन साथी के रूप में साठ साल से भी अधिक समय से सहजीवन का सफर तय करना ही बहुत बडी साधना है ! ऐसी महान महिला को मेरा शत- शत नमन
डॉ सुरेश खैरनार 25 सितंबर 2022, नागपुर

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