रोहिंग्या के खिर्लों चल रहे सुनियोजित दंगों की वजह से विश्व में न केवल म्यांमार की छवि धूमिल हुई है, बल्कि इस देश के बड़े नेताओं की चुप्पी ने भी उनके अंतरराष्ट्रीय क़द को छोटा कर दिया है. मिसाल के तौर पर नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित आंग सांग सुकी ने इन घटनाओं को लेकर अभी तक अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी है. वहीं विपक्ष अपनी चुनावी रोटी सेंकने के लिए इसको राजनीतिक मुद्दा बना कर दक्षिणपंथी बुद्धों को खुश करने के लिए मुसलमानों के खिर्लों र्नेंरत की भावना को हवा दे रहा है. बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने बर्मा सरकार से रोहिंग्या मुसलमानों को जल्द से जल्द नागरिकता देने की मांग की है. साथ ही देश में चल रहे नरसंहार रोकने के लिए कारगर कदम उठाने के लिए भी कहा है.
मई 2012 में म्यांमार के राखाइन प्रान्त में एक बौद्ध महिला के साथ सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के बाद रोहिंग्या मुसलमानों और बहुसंख्यक स्थानीय राखाइन बौद्धों के बीच हिंसा भड़क उठी थी. देखते ही देखते इसने ऐसा भयावह रूप अख्तियार कर लिया कि संयुक्त राष्ट्र संघ को यह कहना पड़ा कि म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमान दुनिया के सबसे अधिक सताए गए अल्पसंख्यकों में से एक हैं. 28 मई, 2012 की शाम को एक रखाइन महिला जब राम्ब्री शहर से अपने गांव लौट रही थी तो कुछ लोगों ने उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उसकी हत्या कर दी. इसका आरोप रखाइन बौद्धों ने रोहिंग्या मुसलमानों पर लगाया. पुलिस ने तीन आरोपियों को गिरफ्तार कर के जेल भेज दिया, लेकिन मामला यहीं शांत नहीं हुआ. 3 जून, 2012 को एक भीड़ ने तौन्गप नामी स्थान पर एक बस पर हमला कर दिया. उनको यह संदेह था कि बस में दुष्कर्म के आरोपी जा रहे हैं. इस हमले में 10 मुसलमान मारे गए, जिसके विरोध में मुसलमानों ने भी बौद्धों पर हमले किए और यहीं से इस देश में दंगों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अब तक जारी है.
इन दंगों में केवल राखाइन प्रान्त के रोहिंग्या मुसलमानों को ही निशाना नहीं बनाया जा रहा है, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों में रहने वाले मुसलमान भी इसकी ज़द में हैं, लेकिन इन दंगों से जो सबसे अधिक प्रभावित लोग हैं, वे रोहिंग्या मुसलमान हैं. वर्ष 2012 की अपनी रिपोर्ट में ह्यूमन राइट वाच (एचआरडब्लू) ने कहा था कि बर्मा के सुरक्षाकर्मी हिंसा को रोकने में न केवल बुरी तरह से नाकाम रहे, बल्कि उन्होंने रोहिंग्या के खिर्लों हिंसक अभियान भी छेड़ दिया. एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी अपनी रिपोर्ट में भी इस बात को माना था. इसका नतीजा यह हुआ कि एक लाख से अधिक रोहिंग्या मुसलमानों को उनके घरों से निकाल कर सरणार्थी कैम्पों में अमानवीय स्थिति में ज़िन्दगी गुजारने पर मजबूर कर दिया गया. इन कैम्पों की हालत इतनी खस्ता है कि लोग यहां से किसी तरह निकल जाना चाहते हैं. वे पड़ोेसी मुस्लिम बहुल देशों बांग्लादेश, इंडोनेशिया और मलेशिया की तर्रें न केवल उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं, बल्कि मौक़ा मिलने पर वहां पलायन करने की भी कोशिश कर रहे हैं. इस कोशिश में बहुतों ने अपनी जानें भी गंवा दी हैं और बहुत सारे समुद्र में नावों के ऊपर रहने को मजबूर हो गए हैं, क्योंकि कोई देश उनको शरण देने के लिए तैयार नहीं है, लेकिन यहां त्रासदी केवल यह नहीं है कि रोहिंग्या को कोई शरण देने के लिए तैयार नहीं है, बल्कि उनकी त्रासदी यह भी है कि वे अपने घरों से केवल कुछ दूरी पर कैम्पों में रह सकते हैं, लेकिन अपने घरों को नहीं लौट सकते.
हालांकि राखाइन प्रान्त में पहले भी रोहिंग्या मुसलमानों और बौद्धों के बीच दंगे होते रहे हैं, लेकिन मौजूदा दंगों के पीछे अगर किसी सोची-समझी साजिश को नकार दिया जाए, तब भी कम से कम यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इतने बड़े पैमाने पर दंगों के लिए पहले से माहौल तैयार हो रहा था. ज़ाहिर है कि ऐसे दंगे रातोंरात नहीं होते. इसके लिए पहले से माहौल तैयार किया जाता है. इस सिलसिले में रखाइन बौद्धों में यह धारणा आम की जा रही थी कि वे अपने ही पूर्वजों के प्रान्त में अल्पसंख्यक बन जाएंगे और रोहिंग्या बहुसंख्यक बन जाएंगे. वर्ष 1982 में रोहिंग्या को नागरिकता से वंचित करने के पीछे यही सोच थी. वर्ष 1982 में जनरल ने विन की सरकार ने बर्मा का नागरिकता कानून लागू किया था, जिसमें रोहिंग्या को अप्रवासी की हैसियत देकर उन्हें नागरिकता से वंचित कर दिया था. नतीजा यह हुआ कि रोहिंग्या मुसलमान बहुत सारी नागरिक सेवाओं से वंचित हो गए. समय-समय पर सैनिक शासन उनक शोषण भी करती रही. कई अन्य समीक्षक यह मानते हैं कि इस देश में मुसलामनों और बौद्धों के बीच मौजूद वैमनस्य तालिबान द्वारा बामियान में बुद्ध की मूर्ति को तोड़ने के बाद से शुरू हो गया था. अब सवाल यह उठता है कि ये रोहिंग्या कौन हैं, कहां से आए हैं और क्या मौजूद संकट का कोई समाधान है?
यह माना जाता है कि रोहिंग्या बंगाल (मौजूदा बांग्लादेश) से अंग्रेजों के समय में और उनसे पहले भी यहां आकर आबाद होते रहे हैं. अंग्रेजों ने उन्हें मुख्यतः 18वीं और 19वीं सदी में खेती के लिए बसाया था. रोहिंग्या दो और मौकों पर यहां आकर आबाद हुए थे. पहले 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप की आज़ादी के समय और दूसरे 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के समय, लेकिन वर्मा के पश्चिमी भाग में रहने वाले इस अल्पसंख्यक समुदाय के यहां बसने के समय को लेकर विवाद है. बर्मा की सरकार यह कहती है कि रोहिंग्या हाल में ही यहां आबाद हुए हैं. लिहाज़ा, उन्हें नागरिकता नहीं दी जा सकती, लेकिन दूसरी तर्रें रोहिंग्या का कहना है कि वे यहां सैकड़ों वर्षों से आबाद हैं और यहीं के नागरिक हैं, जिन्हें सरकार प्रताड़ित कर रही है. ख्याल रहे कि बांग्लादेश में फ़िलहाल कई हज़ार रोहिंग्या पिछले 20 वर्षों से शरण लिए हुए हैं, लेकिन यहां भी त्रासदी यह है कि उन्हें सरकारी तौर पर शरणार्थी की हैसियत नहीं दी गई है. यहां के कैम्पों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. अब रोहिंग्या की तर्रें से यह र्खौें ज़ाहिर किया जा रहा ही कि बांग्लादेश उन्हें बंगाल की खाड़ी के किसी टापू पर स्थानांतरण पर विचार कर रहा है. ज़ाहिर है, ऐसे में यह देश भी क्षेत्र के दूसरे देशों की तरह और अधिक लोगों को शरण देने के लिए तैयार नहीं है. खासतौर पर उस वक़्त, जब बंगलादेश में आतंकवादी गतिविधियों में रोहिंग्या लोगों के भी शमिल होने का आरोप है.
बहरहाल, तीन साल बाद एक बार फिर रोहिंग्या त्रासदी पर दुनिया की नज़रें टिकी हुई हैं. इस बार हजारों रोहिंग्या मानव तस्करों की जाल में फसकर इंडोनेशिया, मलेशिया और दूसरे दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के समुद्र में फंसे हुए हैं. उनमें से बहुतों की समुद्र के ऊपर ही मौत हो गई. फ़िलहाल अन्तराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप के बाद मलेशिया और इंडोनेशिया ने कई महीनों से नावों पर और जहाजों पर ज़िन्दगी गुजारने को मजबूर लोगों को शरण दे दी है, लेकिन वहां भी उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं होने जा रही है. अवैध प्रवासियों और मानव तस्करी की समस्या से जूझ रहे पड़ोसी देश थाइलैंड मामले की गंभीरता को देखते हुए क्षेत्र के देशों का शिखर सम्मलेन बुलाने की मांग कर रहा है.
रोहिंग्या के खिर्लों चल रहे सुनियोजित दंगों की वजह से विश्व में न केवल म्यांमार की छवि धूमिल हुई है, बल्कि इस देश के बड़े नेताओं की चुप्पी ने भी उनके अंतरराष्ट्रीय क़द को छोटा कर दिया है. मिसाल के तौर पर नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित आंग सांग सुकी ने इन घटनाओं को लेकर अभी तक अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी है. वहीं विपक्ष अपनी चुनावी रोटी सेंकने के लिए इसको राजनीतिक मुद्दा बना कर दक्षिणपंथी बुद्धों को खुश करने के लिए मुसलमानों के खिर्लों र्नेंरत की भावना को हवा दे रहा है. बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने बर्मा सरकार से रोहिंग्या मुसलमानों को जल्द से जल्द नागरिकता देने की मांग की है. साथ ही देश में चल रहे नरसंहार रोकने के लिए कारगर कदम उठाने के लिए भी कहा है. हालांकि म्यांमार किसी तरह के सुनियोजित नरसंहार से इंकार कर रहा है, लेकिन उस देश से जो ख़बरें आ रहीं हैं, उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता.
म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए यह ज़रूरी है कि देश में स्थिरता बनी रहे. अब अगर देश में ऐसे ही हालात रहे तो 2010 में देश में लोकतंत्र की बहाली की जो शुरुआत हुई है, उसको झटका लग सकता है और देश एक बार फिर निरंकुश सैनिक शासन के शिकंजे में आ सकता है. वहीं दूसरी तर्रें रोहिंग्या मुसलमानों की दयनीय हालत का कोई आतंकवादी संगठन फायदा उठा सकता है. इसलिए पूरी दुनिया को इस मानवीय त्रासदी से निपटने के लिए म्यांमार पर दबाव डालना चाहिए.