champaranपश्चिमी चंपारण जिले के सबसे उत्तरी भाग में नेपाल की सीमा के पास बेतिया से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है वाल्मीकि नगर. यह एक छोटा कस्बा है, जहां कम आबादी है और यह अधिकतर वन क्षेत्र में है. पश्चिमी चंपारण जिले का एक रेलवे स्टेशन नरकटियागंज के पास है. यह पार्क उत्तर में नेपाल के रॉयल चितवन नेशनल पार्क और पश्चिम में हिमालय पर्वत की गंडक नदी से घिरा है. यहां बाघ, स्लॉथ बीयर, भेड़िए, हिरण, सीरो, चीते, अजगर, पीफोल, चीतल, सांभर, नील गाय, हाइना, भारतीय सीवेट, जंगली बिल्लियां, हॉग डीयर, जंगली कुत्ते, एक सींग वाले राइनोसिरोस व भैंसे कभी-कभार चितवन से चलकर वाल्मीकि नगर में आ जाते हैं.

वाल्मीकि नगर टाइगर रिजर्व फॉरेस्ट को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने टाइगर रिजर्व के लिए टूरिस्ट व सर्किट पैकेज बनाने की घोषणा की है. इसे टूरिस्ट प्लेस बनाने के लिए यहां के भोले-भाले थारूओं, उरांव और अन्य वनवासियों को उनके पारंपरिक व संवैधानिक अधिकारों से बेदखल किया जा रहा है. कहने को इनके लिए वन अधिकार का कानून भी बना, पर जिसके लिए कानून बना उसे ही इसका लाभ नहीं मिल रहा है.

उन्हें जलावन की लकड़ी नहीं लाने दी जाती है, जबकि इनकी रोजी-रोटी का एक बड़ा साधन लकड़ी काट कर बेचना ही है. वनों से लघु उपज व जड़ी-बूटी तक लाने पर रोक है, जबकि दुर्गम और पथरीले रास्ते वाले दोन इलाके के लोगों के लिए जड़ी-बूटी एक आवश्यक वस्तु है. दुरूह रास्ता होने के कारण इन्हें चिकित्सकीय सहायता तुरंत नहीं मिल पाती है. ऐसे में इसी से वे अपना उपचार करते हैं. ठोरी में नदी से पत्थर का उत्खनन नहीं होने से स्थानीय लोग बेरोजगार हो रहे हैं. इससे 12 हजार परिवार प्रभावित हैं.

बिहार के पश्चिम चंपारण स्थित बगहा, रामनगर, गौनाहा, मैनाटांड़ प्रखंडों में थारू व अन्य आदिवासी बहुल लगभग 260 गांव हैं. इनकी कुल आबादी लगभग पौने चार लाख है. इन इलाक़ों में रहने वाले 80 फीसदी लोग भूमिहीन हैं. थारू को आदिवासी घोषित करने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई. 2003 में सफलता मिली, जब सरकार ने इन्हें एसटी का दर्जा दिया. इस श्रेणी में आने के बावजूद वे आजतक न सिर्फ अधिकारों और सुविधाओं से वंचित हैं, बल्कि उनपर दमन चक्र भी चल रहा है.

जंगल से जुड़े होने के बावजूद एक साज़िश के तहत सरकारी विभाग ने उन्हें इसके लाभ से वंचित रखा. परिणामस्वरूप वन विभाग और आमलोगों के बीच में टकराहट बढ़ने लगी. मुकदमों का दौर शुरू हो गया. स्थानीय निवासियों का कहना है कि एक समय बेतिया और रामनगर राज में जंगल से रैयती हक (परमिट) मिलता था. उन्हें सूखी लकड़ियां काटने की छूट थी. वे जंगल से त्रिफला लाते थे, लेकिन आज रोक लगा दी गई है.

हजारों साल से जंगलों और वन्य प्राणियों को थारू, उरांव व अन्य वनवासी बचाते चले आए हैं. इसका प्रमाण ये है कि वर्ष 1989-90 में यहां के जंगलों में 85 बाघ थे, लेकिन व्याघ्र परियोजना लागू होने के बाद जब बाघों की रखवाली वन विभाग ने शुरू की, तो बाघों की संख्या कम होती चली गई.

हालांकि, विभाग बाघों की संख्या में इज़ाफा होने का दावा कर रहा है, लेकिन इन दावों और आंकड़ों में काफी अंतर है. इतना ही नहीं, पहले जंगली खजूर को वन विभाग ने खत्म किया, अब ग्रासलैंड विकसित करने के नाम पर सफेद मूसली, आंवला, हर्रे-बहेड़ा जैसी जड़ी-बुटियों को खत्म करने की 93 लाख रुपए की योजना बनाई गई है. हाल में थरूहट और दोन इलाके में रह रहे वनवासियों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति पर बिहार शोध संवाद की एक टीम ने रिसर्च किया था.

थारूओं व उरांवों के विरुद्ध वन विभाग साज़िश रच रहा है. उनके भोलेपन और ज़मीन से संबंधित कोई प्रमाण नहीं होने का फायदा उठाया जा रहा है. दोन से हरनाटांड़ जाने वाली सड़क पर भेलहवा दह के पास मगरमच्छ पालने की योजना है. यह योजना ज़मीन पर कब और कितनी कारगर होगी, यह तो पता नहीं, अलबत्ता मगरमच्छ संरक्षण के नाम पर यह रास्ता बंद करने की साज़िश ज़रूर रची जा रही है.

इसी प्रकार कई जगह थारूओं को तंग करने के लिए वन विभाग कर्मी लोगों की रैयती ज़मीन पर खंभे गाड़ रहे हैं, तो कहीं जेसीबी से गड्ढे खोदे रहे हैं. रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि जंगल के राजस्व ग्रामों को बफर और पेरिफेरियल एरिया घोषित करने के लिए वन विभाग और प्रशासन षड्‌यंत्र रच रहा है. इसके लिए लोगों को डरा-धमका कर जबरन ग्राम सभाओं से प्रस्ताव पास कराने का प्रयास हो रहा है. यदि यह सफल हो जाता तो 152 गांवों के लोग विस्थापित हो जाते. पिछले बीस वर्षों से इस इलाके में किसानों की मालगुजारी रसीद राजस्व कर्मचारी नहीं काट रहे हैं. बैरिकेडिंग से सटे गांवों की स्थिति काफी बदहाल है.

विस्थापन का दंश झेलते थारू आदिवासी

अखिल भारतीय थारू कल्याण महासंघ के नेता हेमराज प्रसाद ने बताया कि वनकर्मियों की नीयत का पता इसी से लगता है कि लकड़ी काटने व तस्करी के मामले में भतुजला के कपिलदेव उरांव पर एक मुकदमा 2011 में वन विभाग ने दर्ज कराया था, जबकि उनकी मौत पांच साल पूर्व ही हो चुकी थी. इसी प्रकार रघई उरांव नामक व्यक्ति पर वनकर्मियों ने 80 मुकदमा दर्ज कराया. एक अनुमान के अनुसार, अब तक लगभग 400 लोगों पर फर्ज़ी मुकदमे दर्ज हो चुके हैं.

इधर, थारूओं के एक अन्य नेता शैलेंद्र गढ़वाल बताते हैं कि दोन इलाके में 24 गांव रेवेन्यू ग्राम हैं. यहां पहुंचने के लिए बीहड़ जंगलों के बीच से होकर गुजरना पड़ता है. बरसात में चार महीने यहां का रास्ता अवरुद्ध रहता है. पक्का रास्ता बनाने नहीं दिया जाता है. पहले यहां के लोग जंगलों से जड़ी-बुटी लाकर अपना पेट पालते थे. अब वे पलायन कर पंजाब, दिल्ली जाने को मजबूर हैं. यहां की खेती भउड़ी (आहर-पाईन) पर निर्भर है. उसे भी प्रतिबंधित करने की बात चल रही है.

जानकारी के अनुसार वन विभाग ने केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजी थी कि यहां के स्थानीय लोगों के कारण ही बाघों, पशु-पक्षियों की संख्या घट रही है. ये लोग कोर एरिया में प्रवेश कर लकड़ी काटते हैं, बैरिकेडिंग तोड़ कर जंगल में घुस आते हैं. ये लोग तस्करी के धंधे में भी लिप्त हैं, इसलिए इन्हें इस क्षेत्र से हटाया जाए.

वाल्मीकि प्रोजेक्ट टाइगर के निदेशक सह संरक्षक संतोष तिवारी का कहना है कि यहां के निवासियों को कोई पारंपरिक अधिकार नहीं है. हम उनकी समस्याओं के निदान के लिए ही प्रयासरत हैं. सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइन व प्रोटेक्शन एक्ट को अमल में लाना हमारी मजबूरी है. अगर कोई जंगली सूअर को मारे, ज़बरदस्ती जंगल में घुस कर लकड़ी काटे तो ऐसे लोगों पर मुकदमा किया जाएगा. अब इसे कोई फर्ज़ी केस कहे, तो हम क्या कर सकते हैं.

दूसरी ओर, इस इलाके के लोगों की मांगें हैं कि वनाधिकार कानून एफआरए 2006 को लागू किया जाए, ताकि जंगल के सह उत्पादों को लाने का अधिकार मिल सके. इसके साथ-साथ इलाके को शेड्युल 5 घोषित किया जाए, ताकि आदिवासियों की ज़मीन को दूसरा कोई खरीद न सके. इन्हीं मांगों को लेकर पिछले कई साल से थारूओं का संगठन आंदोलनरत है, लेकिन प्रशासन अभी तक नींद में है.

इस स्थिति के कारण अब थारूओं और वन विभाग के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी है. हाल में टाइगर रिजर्व के जंगल से गुजरी पहाड़ी नदी से पत्थर व बालू निकालने व जलावन की लकड़ी काटने से रोकने पर वनवर्ती गांव महदेवा के ग्रामीणों ने वन विभाग के अधिकारियों व कर्मियों को तीन घंटे तक बंधक बनाए रखा. ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि वनकर्मियों के संरक्षण में वन क्षेत्र से पत्थर लाकर तोड़ा जाता है. यदि ग्रामीण महिलाएं जंगल से सूखा जलावन लाती हैं, तो वनकर्मी उन्हें बेवजह परेशान करते हैं.

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