सरकार कहती रही कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, सामान्य कानून का मामला है, लेकिन संविधान पीठ ने सरकार की इस दलील को खारिज कर दिया. 1973 में एक फिल्म आई थी, ‘यादों की बारात’. इसका एक गाना आज भी सुना जाता है, ‘आप के कमरे में कोई रहता है, तररारा हम नहीं कहते ज़माना कहता है.’ प्राइवेसी, निजता की बहस में आप चाहें, तो इस गाने को गुनगुना सकते हैं, ‘हम नहीं कहते, ज़माना कहता है.’ लिखने और गाने वाले को पता है कि किसी के कमरे में कौन रहता है, झांकना या किसी को बताना ठीक नहीं है. हम देखेंगे कि सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की खंडपीठ ने जो फैसला दिया है, उसके सहारे में हम गंवा चुके निजता को हासिल कर सकते हैं या नहीं. सरकार कहती रही कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, सामान्य कानून का मामला है, लेकिन संविधान पीठ ने सरकार की इस दलील को खारिज कर दिया.
निजता का अधिकार वो अधिकार है, जिसकी ख़ुशबू संविधान में है. जज साहिबान ने बताया है कि संविधान के बगीचे में अलग-अलग अधिकारों से जो ख़ुशबू आ रही है, वो निजता के अधिकार की ख़ुशबू है. इस ख़ुशबू के बग़ैर संविधान की बगिया की रौनक फीकी पड़ जाती है. आज के फैसले में बस यही हुआ है कि उस ख़ुशबू का नाम दे दिया गया है कि यह जासमीन नहीं, ग़ुलाब नहीं, ख़स नहीं बल्कि निजता का अधिकार है. यह लड़ाई आपके लिए जिन लोगों ने लड़ी पहले उनका शुक्रिया अदा करते हैं.
90 साल की उम्र में निजता के अधिकार मामले के पहले याचिकाकर्ता रिटायर्ड जस्टिस केएस पुत्तास्वामी का शुक्रिया. उनके साथ कई वकीलों ने भी इस केस में अपनी दलील रखी है. मशहूर वकील श्याम दीवान, अरविंद दातार, जी. सुब्रमणियम, युवा वकील गौतम भाटिया, कृतिका भारद्वाज, प्रसन्ना एस, अपार गुप्ता का भी शुक्रिया. इन लोगों ने लड़ाई अदालत के अलावा मीडिया और समाज के स्पेस में भी लड़ी, ताकि लोगों को समझ आए कि प्राइवेसी, निजता का मामला खाते-पीते घरों का मामला नहीं है, बल्कि यह अधिकार चला गया तो कमज़ोर आदमी ज़्यादा आसानी से मारा जाएगा. सरकारें उसे चबा जाएंगी. आपको लगता है कि चबा जाना थोड़ा ज़्यादा कह दिया, तो अगली पंक्ति का इंतज़ार कीजिए.
पूर्व अटॉर्नी जनरल हैं, मुकुल रोहतगी. संविधान पीठ के सामने उन्होंने सरकार का पक्ष नहीं रखा, क्योंकि तब तक पद छोड़ चुके थे. उन्होंने जस्टिस एके सिकरी और अशोक भूषण की बेंच के सामने आधार मामले में जो कहा उसे याद रखना ज़रूरी है. मुकुल रोहतगी की राय भी सरकार की ही राय मानी जाएगी और अलग संदर्भ में कहे जाने के बाद भी इस संदर्भ में उसका ज़िक्र ज़रूरी है. मुकुल रोहतगी अब अटॉर्नी जनरल नहीं हैं, लेकिन तब उन्होंने कहा था कि नागरिकों का उनके शरीर पर संपूर्ण अधिकार नहीं है. प्राइवेसी का तर्क बोगस है.
आपके शरीर पर आपका अधिकार नहीं है तो किसका है. क्या सरकारों को यह हक है कि आपके शरीर का कोई अंग निकाल ले, आंख या किडनी निकाल ले, यह कहते हुए कि आपका शरीर आपका नहीं, सरकार का है. इस आलोक में देखें तो इस फैसले ने ऐसी सोच से सबको बचा लिया है. दुनिया और देश में भ्रष्टाचार है, इसे दूर करने के नाम पर जीने और निजता के अधिकार से खिलवाड़ नहीं हो सकता. सब्सिडी से ज़्यादा भारतीय राजनीति और चुनाव को कालेधन से मुक्त करने की ज़रूरत है, जहां आज भी बीजेपी सहित सभी राजनीतिक दल बगैर पैन नंबर और देने वाले का पता पूछे पैसा ले लेते हैं.
एडीआर कि रिपोर्ट से साफ होता है-
– राष्ट्रीय दलों को 384 करोड़ रुपए चंदा मिला है, जिसका पैन नंबर नहीं है.
– 355 करोड़ का चंदा देने वालों का पता तक नहीं है.
संविधानपीठ के फैसले को बार-बार पढ़ा जाना चाहिए. इससे एक नागरिक के रूप में आपके प्राइवेट स्पेस की समझ बेहतर होती है, निजी चुनाव की समझ बेहतर होती है. इससे ये समझने में ताकत मिलेगी कि आपका चुनाव आपका है, किसी और का नहीं. जज साहिबान ने कहा-
– ठीक है कि आर्टिकल 21 और 19 में निजता के अधिकार का उल्लेख नहीं है.
– यह कहना कि भारत का संविधान निजता का अधिकार सुनिश्चित नहीं करता है, सही नहीं है.
– जीने के अधिकार में भी निजता का अधिकार शामिल है.
– जीने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है.
– व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता की चाह, समानता, ये सब भारतीय संविधान के आधारभूत स्तंभ हैं.
– जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता संविधान की रचना नहीं है, बल्कि संविधान इन्हें मान्यता देता है.
– प्राइवेसी का अधिकार, जीने और निजी स्वतंत्रता के अधिकार से निकलता है.
– मौलिक अधिकारों के विभिन्न तत्वों से भी निजता का अधिकार निकलता है.
प्राइवेसी का सवाल सिर्फ आधार नंबर के संदर्भ में नहीं है. इस संदर्भ में भी है कि एक धर्म की लड़की जब दूसरे धर्म के लड़के से शादी करेगी, तो सरकार की एजेंसियां जांच नहीं करेंगी. समलैंगिकों के सवाल को यह अधिकार मज़बूती देगा. यह सवाल वहां भी आता है कि क्या कोई सरकारी एजेंसी आपका फोन रिकॉर्ड कर सकती है. अदालत की संविधान पीठ ने कहा कि वे यहां उन सभी की सूची नहीं तैयार कर रहे हैं कि निजता क्या-क्या है. इसके बाद भी प्राइवेसी का जो दायरा बताया गया है, वो काफी महत्वपूर्ण है.
संविधान पीठ ने कहा है कि सेक्सुअल संबंध, व्यक्तिगत संबंध, पारिवारिक जीवन की मान्यता, शादी करना, बच्चे पैदा करना यह सब निजता के अधिकार हैं. प्राइवेसी का अधिकार वो है, जो व्यक्तिगत स्वायत्ता का बचाव करता है. यह अधिकार मान्यता देता है कि कोई व्यक्ति अपने जीवन के वाइटल पहलुओं को कैसे नियंत्रित करता है. व्यक्तित चयन भी प्राइवेसी का हिस्सा है. प्राइवेसी हमारी संस्कृति की विविधता, बहुलता को भी संरक्षण देती है. कोई व्यक्ति पब्लिक प्लेस में है, इस वजह से उसकी प्राइवेसी खत्म नहीं हो जाती है. इंसान की गरिमा का अभिन्न अंग है प्राइवेसी.
कोर्ट ने कहा कि संविधान के मायने, इसके बनने के दौर के संदर्भ में बंद नहीं किए जा सकते हैं. बदलते वक्त की लोकतांत्रिक चुनौतियों के अनुसार इसकी ठोस व्याख्या होती रहनी चाहिए. निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है. केके वेणुगोपाल, भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल ने संविधान पीठ के सामने कहा था कि राज्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत जो हक देता है, उसके हित में निजता का अधिकार छोड़ा जा सकता है.
हमारा मत है कि निजता का अधिकार अमीरों की कल्पना है, जो बहुसंख्यक जनता की आकांक्षाओं और ज़रूरतों से काफी अलग है. अदालत मानती है कि इस दलील में दम नहीं है. यह दलील संविधान की समझ के साथ धोखा है. हमारा संविधान एक व्यक्ति को सबसे आगे रखता है. यह कहना सही नहीं है कि ग़रीब को सिर्फ आर्थिक उन्नति चाहिए, नागरिक और राजनीतिक अधिकार नहीं.
संविधान पीठ ने सरकार के कार्यों की समीक्षा, सवाल करने, उससे असहमत होने के अधिकार को भी संरक्षण दिया है. अदालत का कहना है कि यह सब लोकतंत्र में नागरिकों को सक्षम बनाता है, इससे वे राजनीतिक चुनाव बेहतर करते हैं. एक जगह तो सरकार के कटु आलोचक प्रोफेसर अमर्त्य सेन का भी ज़िक्र आया है, जिसे देखकर सरकार के मशहूर वकीलों को अच्छा नहीं लगेगा. अदालत ने बड़े विस्तार से समझाया कि सामाजिक आर्थिक तरक्की का नागरिक राजनीतिक अधिकारों से कोई झगड़ा नहीं है. इसी संदर्भ में संविधान पीठ के फैसले में एक जगह ज़िक्र आता है कि इनमें से कुछ चिंताओं की झलक नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के लेखों में भी मिलती है. सेन ने अकाल के समय में ग़ैर लोकतांत्रिक सरकारों और लोकतांत्रिक सरकारों की हरकतों की तुलना की है. उनका विश्लेषण बताता है कि निरंकुश राज्य में सरकार के नेताओं को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है, जिसके कारण अकाल जैसी स्थिति में जनता को राहत नहीं मिल पाती है.