प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना पहाड़ चढ़ने से पहले ही टूट गया. इसे आकार देने की जिम्मेदारी स्वयं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने ली थी, जिसका सेनापति भाजपा के राष्ट्रीय महा सचिव कैलाश विजय वर्गीय को बनाया था. वे भी हिमालयी राज्य उत्तराखंड में पूरी तरह से फेल सिद्ध हुए. अमित शाह की रणनीति थी कि कांग्रेस में बगावत पैदा कर उसी के तीर से हरीश सरकार को निशाना बनाया जाए और देवभूमि उत्तराखंड की सत्ता पर किसी भी तरह से कब्जा जमा लिया जाए. उनके मंशा के अनुरूप हुआ भी, विजय बहुगुणा, डॉ हरक सिंह समेत कांग्रेस के नौ विधायक पद की लालच में भाजपा से जा मिले. विधायकों के बगावत करते ही मोदी सरकार ने हरीश रावत को बिना कोई अवसर दिए आनन-फानन में राष्ट्रपति शासन लगा दिया. देश की न्यायव्यवस्था ने मोदी सरकार को आईना दिखाते हुए स्वयं हस्तक्षेप कर उत्तराखंड में लोकतंत्र की बहाली का रास्ता दिखाया. पूरे देश में उत्तराखंड की इस घटना को लेकर मोदी सरकार की किरकिरी हुई. प्रदेश में लोकतंत्र की बहाली को लेकर सुप्रीम कोर्ट और उत्तराखंड उच्च न्यायालय की पूरे देश में सराहना हुई.
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सुप्रीम कोर्ट के दखल देने के बाद लोकतंत्र और संविधान की मर्यादा तार-तार होने से बच गई. पूरे देश में यह संदेश गया कि मोदी सरकार का उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने का निर्णय लोकतंत्र विरोधी था. सुप्रीम कोर्ट के पर्यवेक्षक की मौजूदगी में भी दोनों राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस के एक-एक विधायक ने एक दूसरे के पक्ष में मतदान किया. इस अवसर पर सूबे के निर्दलीय विधायकों के फ्रंट पीडीएफ ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया. बसपा सुप्रीमों ने भी कांग्रेस का साथ दिया और बसपा के विधायकों ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि हरीश सरकार को धराशाई करने की योजना विजय बहुगुणा ने भाजपा से मिलकर एक वर्ष पूर्व ही बना लिया था. इसी वजह से बार-बार बहुगुणा सरकार के सहयोगी दल पीडीएफ को सरकार से दूर करने की मांग कांग्रेस हाईकमान से करते रहे. और सूबे में हरीश सरकार को हमेशा निशाना बनाते रहे. हरीश रावत पहले ही विजय बहुगुणा के इस कदम से वाकिफ हो गए थे और पहले ही कांग्रेस हाईकमान के सामने सारी बातें रख दी थीं.